Thursday 31 May 2018

----- ॥ दोहा-पद 11 ॥ -----

-----|| राग मेघ-मल्हार || -----

घेरि घटा घन  घनकत घोरा |
छाए पिया पावस चहुँ ओरा || १ ||

थिरकत नदि जल झर झर झरे, पाँउ परे झनकत रमझोरा || २ ||

भर घमंड ए काल न देख्यो, बिनु नूपुर नाचहिं बन मोरा || ३ ||

बँट दै तरुवरि हरिअरि रसरी, पाए पवन हलै रे हिँडौरा  || ४ ||

ढूँढत जलनिधि सुध बुध भुल्यौ, पँवर पँवर भँवरत चितचोरा || ५ ||

साँझी दिवस सोंहि गठ जोरे, परिनय करत रैन अरु भोरा || ६ ||

दूरबा कर  बिछेउ बिछौने, तपन ऋतु कर न होए बहोरा || ७ ||

रमझोरा = घुंघरू
पँवर पँवर = द्वार-द्वार
चितचोरा = घनश्याम
पँवरहि = ढूंढ़ना

भावार्थ : - घटाओं से घिरा घन  घोर गर्जना कर रहा है | हे प्रीतम ! पावस ऋतू सर्वत्र व्याप्त हो रही है || १ ||  नदी नृत्य करती हुई सी प्रतीत हो रही है  झर  झर झरती हुई वह  इस भांति ध्वनि उत्पन्न कर रही है मानो उसके चरणों में नूपुर झंकृत हो रहे हैं || २ || घनता के  घमंड के वशीभूत इसने काल भी नहीं जिससे वन में मोर विभ्रमित हैं एवं पावस के आगमन का भ्रम लिए नूपुर के बिना ही नृत्य कर रहे हैं  || ३  || तरुवर भी बेल रूपी हरी हरी रसरियों को बँट  दे रही हैं पवन की संगत प्राप्त कर मानो इन तरुवरों में हिंडोले हिल्लोल रहे हैं | चित का हरण करने वाले ये  घनश्याम असमय मित्रों के साथ  क्रीड़ा की आशा से द्वार द्वार पर भ्रमण कर रहे हैं इसे ढूंढते ढूंढते  जलनिधि की  सुध बुध विस्मृत हो गई किन्तु यह नहीं मिल रहे || ५ || विवाह का  नहीं तथापि संध्या दिवस के साथ परिणद्ध हेतु आतुर है | रैन आओर भोर तो परिणय वेदी पर विराजमान हो गए हैं || दूर्वा के सुन्ब्दर बिछौने बीच गए तथापि तापस ऋतू का पग फेरी नहीं हुई है || 


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-----|| राग मेघ-मल्हार || -----

घेरि घटा घन घनकत घोरा |
छाए पिया पावस चहुँ ओरा || १ ||

बेनु हरित अहि बेलरि डारै | बंदनिवारे परे दुआरे ||
भयउ मगन मन मोदु न थोरा || २ ||

काल घना की काजर पूरी | माँग भरे भइ साँझ सिँदूरी ||
दिसत झरोखै करत निहोरा || ३ ||

बरसि बरसि बादल पनिहारे | भर भर कलसि करषि कर धारे ||
तृपित कंठ भा चकित चकोरा || ४ ||

अह ! यह तापस रितुवन की बेला | जलधि नभ चढ़ि करिहिं का खेला ||
उड़त पतंगिहि भँवरत भौंरा || ५ ||

भावार्थ : - घटाओं से घिरा घन  घोर गर्जना कर रहा है | हे प्रीतम ! पावस ऋतू सर्वत्र व्याप्त हो रही है || १ ||  बाँस, करीर पर पान की हरिणमय बेलें पड़ गई हैं जो बंदन वारों का रूप लेकर द्वारों को सुसज्जित कर रही हैं, यह दृश्य दर्श कर मन अतिशय प्रमुदित हो रहा है  || २ || नैनों में काले मेघों  की काजल उतारकर संध्या भी सिंदूरी हो चली है जो झरखों से संध्या वंदन करती दर्शित हो रही है || ३ || बादल वर्षा कर कर के पनिहारे का स्वांग भर लिया है प्यासे हाथों को खैंच खैंच कर मानो अमृत भरे कलश अर्पण कर रहे हैं, चकोर भी तृप्त कंठ होकर चकित है || ४ || आह ! यह तापस ऋतू की बेला है इस बेला में जलधि नभ में छाड़कर जाने कौन सा खेल कर रहे हैं पतंगे उड़ रही भौरें भंवर रहे हैं || ५ || 

उरहि पतंगी भंवरहि भौंरा = आंधी में पत्तो और धूल का बवंडर, पतंग और भौंरे (लट्टू) का खेल


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-----|| राग मेघ-मल्हार || -----

ढरती साँझ अति भाई | रे भाई !
चारु चंद्र की कनक कनी सी बिंदिया माथ सुहाई || १ ||

उरत सिरोपर सैंदूरि धूरि जगत लखत न अघाई || २ ||

अरुन रथी सों रश्मि लेइ के बीथि बीथि बिहराई || ३ ||

दीप अली दुआरि लग जौंहे लौनी लौ न लगाई || ४ ||

बिरताइ जूँ  गौ धूलि बेला रैनि चरन बहुराई || ५ ||

भावार्थ : -- अरे भाई ! ये ढलती हुई संध्या मनभावनी प्रतीत हो रही है | इसके मस्तक पर प्रिय चन्द्रमा के स्वर्ण जटित हीरक कण के जैसी बिंदिया अति सुहावनी प्रतीत हो रही है || १ || शीश पर सेंदुर की धूलिका उड़ रही है दर्शन के पिपासु लोग सौंदर्य रस से परिपूर्ण होकर भी तृप्त नहीं हो रहे || २ || अरुण राठी की रश्मियाँ लेकर देखो कैसे यह नगर के पंथ पंथ का परिभ्रमण कर रही है || ३ || दीपक की पंक्तियाँ द्वार से संलग्न हो कर प्रतीक्षारत हैं तिली अथवा इस सुंदरी ने अबतक ज्योति जागृत नहीं की ||  अब तो गौधूलि बेला भी व्यतीत हो चली है, रात्रि का आगमन हो रहा है यह अब तक नहीं लौटी || 





Tuesday 29 May 2018

----- ॥ दोहा-पद 10॥ -----

        ----- || राग-भैरवी ||-----

ओ री मोरी सजनी तुअ नैहर न जइहो | 
न जइहो न जइहो तुअ नैहर न जइहो || १ || 


मैं सावन अरु तुम बन मेहा  नेहु घन रस बरखइयो | 
मैं पावस तुम घोर घटा री  घेरि गगन गहरइयो || २ || 

मैं सागर सहुँ तुम सुर गंगा हरिदय बहि बहि अइयो |  
पेम के एहि संगम तीरथ ए तीरथ नहि बिसरइयो  || ३  || 

देइब चीठी फेरिहु दीठी जोहि बिरहि घन दइयो | 
कमनिअ कंचन कमन कनीठी मोर कनि कने पइयो || ४  || 

कनक कली कर कानन करिके मोहि न कनखि लखइयो |
कंगन कलिइन लेइ बलइयाँ  मोर कंठन खनकइयो || ५ ||

नैन झरोखे पलक पट देइ हिय गिह पिय पौढ़इयों | 
रैन अँजोरे धरै अँजुरी प्रीत करि जोत जगइयो || ६  ||

Sunday 27 May 2018

----- ॥ दोहा-द्वादश 4 ॥ -----

भगवन के ए सबहि पंथ भगवन के संसार | 
जहँ कहँ दुःख होइ तहँ लग करुना केर निहार || १ || 
भावार्थ : - यह संसार ईश्वर का है यहाँ हमारा कुछ भी नहीं है, सभी ग्रन्थ-पंथ हमें ईश्वर तक पहुँचाने के लिए हैं, उस तक पहुंचना तभी संभव है जब हमारी करुणा -दृष्टि की पहुँच न केवल मनुष्य अपितु प्रत्येक जीव के कष्ट तक हो | 

गगन बिसाल कि सिंधु हो धरति हो कि पाताल | 
आरत पुकारि सुनिहु जौ होई तरि पद ताल || २ || 
भावार्थ : - वह धरती में हो अथवा पाताल में हो, सिंधु में हो अथवा विशाल गगन में ही क्यों न हो | ईश्वर तक पहुंचना तभी संभव है जब हम चरण तल के नीचे स्थित जीव की भी आर्त पुकार को सुनें | 

रीति प्रीति सद चरित सों जोइ ग्यानद ग्रन्थ | 
होवनिहार चरन हेतु रचत सोइ सद पंथ || ३ || 
भावार्थ : - रीति प्रीति के सह शील व् चरित्र का गठन करते हुवे जो ग्रन्थ ज्ञान दायक होते हैं वह आने वाली पीढ़ी के संचालन हेतु सन्मार्ग का निर्माण करते हैं | 

बाती बरै सार बरै बरै दीप के अंग | 
रैन उजास सब जर मुए कीर्ति धरै पतंग || ४ || 
भावार्थ : -- बाती जली तेल जला दीपक के अंग प्रत्यंग जल गए, रात्रि को उज्ज्वलित कर सभी जल कर मृत्यु को प्राप्त हुवे किन्तु नाम पतंगे का हुवा |  


अर्थात : - 'श्रम कहीं और होता है, यश कहीं और |' 

बैद मरे रोगी मरे मरे न जी के रोग | 
मार मरी न मरनि मरी मर मर गए सब लोग || ५ || 
भावार्थ : - चिकित्सक मर गए रोगी मर गए किन्तु रोग नहीं मरा | काल नहीं मरा मृत्यु नहीं मरी, लोग मरते गए | 

धनहि सेती प्रीति कियो प्रीतम दियो दुराए | 
बीति रीति बिसराए जग अजहुँ ए रीति चलाए || ६ || 
भावार्थ : - धन से अथाह प्रीति की किन्तु प्रीति के आधार स्वरूप प्रीतम को दूर कर दिया | पुरानी उत्तम रीतियां का चलन नहीं रहा लोगों में अब वही 'चमड़ी जाए पर दमड़ी न जाए' वाली रीति प्रचलित है | 

गेह दुआरि त्याज के  करिआ एक के तीन | 
बैसी भीतर नागिनी काम बजावै बीन || ७ || 
भावार्थ : - घर द्वार को त्याग कर सदैव एक का तीन करने में लगे रहे | अंतर्मन में कुत्सित भावों रूपी दुष्टता का निवास हो गया काम बीन बजाकर उसे जब-तब नचाता रहा |  

अति अधुनातन की रीति बिन प्रीतम की प्रीति  | 
अंतर बोल न पाइये कस को गावै गीत || ८ || 
भावार्थ : -अत्याधुनिक काल में प्रीतम विहीन प्रीति का चलन है | न इसमें बोल प्राप्य  है न अंतरे, अब इस काल का कोई गीत गाए भी  तो कैसे गाए | 

सीतौ सीते दुःख मिले तापन तापै दुख्ख | 
सावन सूखे सुख मिले काल बँधे दुःख सुख्ख || ९ || 
भावार्थ : - शीत ऋतु में शीतलता दुःख देती है तापसऋतु  में ताप दुःख देता है |  वर्षा ऋतु में सूखे से सुख मिलता है निष्कर्ष यह निकलता है कि प्रकृति जनित अनुभूतियाँ काल के अधीन है किसी काल में कोई कारक सुखद होता है  वही कारक कालपरिवर्तन पर दुखद हो जाता है | 



धर्मिन बादी पाहिला आगिल भौतिक बाद | 
झरबेरी जमुकिया न त खावै सोइ स्वाद || १० || 
भावार्थ : - मनुष्य का प्रागकाल या पूर्वकाल प्रकृतिवादी था भवितव्य काल भौतिक वादी होता चला गया, काल में केवल मात्र इतना ही परिवर्तन हुवा है अन्यथा जामुन और बेरी का स्वाद वही है जो पाषाणकाल में था अर्थात मनुष्य अब भी वनचारी प्रवृतियों से युक्त है, उसका अंतर्जगत वर्तमान में भी असभ्यता को प्राप्त है भौतिक वादिता ने केवल उसके बाह्यजगत को व्यवस्थित किया है | 

गिरही का तो रागना विरही का बैराग | 
दोउ एकै ठाउँ रहे त सुबरन पे सोहाग || ११ ||  
भावार्थ : - गृहस्थ का अनुराग और वैरागी का वैराग्य सदैव उत्तम व् कल्याणकारी होता है | जब ये दोनों एक स्थान पर प्राप्त हों तब वह सोने पर सुहागा के सदृश्य अति उत्तम व् अतिकल्याणकारी होते हैं | 

काम भरोसे होइ के  भूमि बिया दे बोए | 
फूल फल तब मिलिया जब राम भरोसे होए || १२ || 
भावार्थ : - कर्म के भरोसे होकर प्रथमतः भूमि में बीज वपन कर दिया | कर्म सहित भगवान के भरोसे ही उसे जल प्राप्त होगा और हमें फल, फूल, ईंधन,छाया, औषधि की प्राप्ति होगी  |  










Friday 25 May 2018

----- ॥ दोहा-पद 9॥ -----

होरी पतंगि  उरि कहँ जाहु, 
तुहरि प्रिया एहि कहि कर दियो पुनि रार करन पिय आहु || १ || 
छितिजिहि  पारि हियपिय पिहरियो  छितिज परस न बहुराहु 
पैसिहु गह प्रीति पूरित सब रीति री प्रियातिथि तहँ पाहु || २ || 
भेंटिहि जननी तोहि उर लाइ जलज नयन भरी बाहु | 
त मोर हरिदय कर कहनि कहहु  जनि जनित सहित सब काहु || ३ || 
कर गहि जौ  तोहि भाई भउजाइँ सलिल सनेह बरखाहु  
जोरि पानि जुग ए बिनती करिहौ  बाबुल मोहि लए लाहु || ४ || 

पतंगी = चिट्ठी,पत्रिका, पत्ती 

भावार्थ : - अरी पतंगी तुम कहाँ उडी जा रही हो ? पतंगी कहती है : - तुम्हारी प्रिय ने यह कहकर मुझे वायु के हाथ में दिया है  कि प्रियतम पुनश्च झगड़ने आ रहे हैं | ह्रदय को प्रिय पीहर क्षितिज के पार है तुम क्षितिज को स्पर्श कर लौट न आना | क्षित के पार जाना और पीहर के गृह में प्रवेश करना वहां प्रीति से परिपूर्ण रीतियों से भरे अतिथि सत्कार का सुख प्राप्त करना | जननी से भेंट करना वह तुम्हें अश्रु पूरित नेत्रों से अँकवार कर जब  अपने ह्रदय से लगाएगी तब तुम जननी व् जनक सहित सभी कुटुंबजनों को मेरे ह्रदय की व्यथा कहना | भाई भौजाई जब तुम्हें हाथों में ग्रहण करेंगे तब तुम सलिल स्नेह की वर्षा कर हाथ जोड़ कर उनसे विनती करना और कहना भैया मुझे ले आओ | 

Wednesday 23 May 2018

----- ॥ दोहा-पद 8॥ -----

खोल के पुरट-पट घन स्याम रंग दिखराए रे, 
हाय हरियारा सावन झुम के नियराए रे..,

रूप हरे धूप भरे इंद्रधनुष कहुँ चंग दै, 
गरज-गरज घोर घनी काली घटा छाए रे.., 

गौर गगन ग्वाल कर लेइ जल तरंग माल,
थिरकत जमुना के तट स्याम उर मिलाए रे..,


बिरुझाइ लट बेनि बट करधनी तट घट किये,
होरी पनघट पे गोरि नैन पंथ लाए रे..,

बैरन सहुँ बैर पड़े डास डँसे बिरहन घन, 
पिय के पेमदूत बन बूँद-बूँद बरखाए रे.., 

बाबुल मोरे मोहे नैहर लीजो बुलाए.....
  

कहुँ = को या कहीं 
चंग = खेंचना , लटकाना 
गौर गगन ग्वाल = उज्जवल आकाश रूपी ग्वाल, मित्र  
कर = हाथ 
उर = हृदय 

Tuesday 22 May 2018

----- ॥ दोहा-पद 7॥ -----

खोल के पुरट-पट घन स्याम रँग दिखाए है, 
होरी हाथ जोरि मोहे सबहि ढंग मनाए है.., 

पाए पाति पवन संग नभ बढ़ि चढ़ि पतंग, 
कासि थोरि थोरि डोरि अपने सँग मिलाए है..,


सपन नव दए के नैन रैन चरन भए बिहंग, 
भोरी चोरि चोरि रंग में भंग मिलाए है.., 



प्रीतम हरि लाल सरि करि ताल धरि रँग-बिरंग 
हो री होरी होरी बिन रे मोहे अंग लगाए है 

पुरट-पट = सुनहरा घूँघट, बिजली का घूँघट 




खोल के चश्मे-जद यूँ शाम रंग दिखाए, 
दस्ते-सफ़हे पे शफ़क़ टूट के बिखरी..,  

----- ॥ दोहा-पद 6॥ -----

बाबूजी मोहे नैहर लीजो बुलाए, 

नैन घटा घन बरसन लागै घिर घिर ज्यों सावन आए, 
पेम बिबस ठयऊ सनेहु रस जबु दोइ पलक जुड़ाए.., 

भेजि दियो करि ह्रदय कठोरे  काहु रे देस पराए, 
बैनन की ए बूंदि बिदौरि छन छन पग धुनि सुनाए..,


मैं तोरि बगियन केरि कलियन फुरि चुनि पुनि दए बिहाए,
ए री पवन ये मोरि चिठिया बाबुल कर दियो जाए..,


पिय नगरी महुँ सब कहुँ मंगल चारिहुँ पुर भए कुसलाए, 
सुक सारिका अहइँ सबु कैसे पिंजर जिन रखिअ पढ़ाए.....

Monday 21 May 2018

----- ॥ दोहा-पद 5॥ -----

जौ बाति कहउँ मैं साँचि
हेरि मुख भीत फनिस सी, घरि घरि एहि रसना नाचि,
बाँचि सबहि जग कर कहनि अरि हरि कथा न बाँचि..,
सुनु प्रसंगु एहि कल कीर्तन छाँड़ि मन रंजन बहु राँचि,
पढ़ि सब पढ़नि पढ़ि न हरिप्रिया कर आखरि पै पाँचि..,
जगवनि सबु रस कंठ करि बरु भगवनि भू दे कांचि,
जग बिरुझ भरिअ कुलाँचे जिमि हिरनी मारि कुलाँचि.....
बाहिर पुनि लीन्ही हरिदय मोरे अंतर करि जाँचि..,
साँचि असाँचे बिंग बैन बैनत भयउ नाराचि..,
कहत झूठे बैन जगत अरु जग ते में साँचि.....

अब तो नज़रे उस हर्फ़े-दुआ को पढ़े है,
 ले जाए कोई ये पैग़ाम बराए-दर.....

----- ॥ दोहा-पद 4॥ -----,

लागे मोही तुहरी दुनिया बिरानी,
नैनन के मोती बहि भए पानी पानी..,


ओ रे पिया ए रतन अमोलक, हाय ए मोल न जानी,
लागे मोही तुहरी दुनिया बिरानी,
नैनन के मोती बहि बहि भए पानी पानी..,

निसदिन करि ए कहि बतिया, गह गह गयउ बखानी
लागे मोही तुहरी दुनिया बिरानी
नैनन के मोती बहि बहि भए पानी पानी


कासे कहें कहँ जा सुनावैं, ए हमरी राम कहानी,
लागे मोही तुहरी दुनिया बिरानी,
नैनन के मोती बहि बहि भए पानी पानी..,

हम सहुँ कहुँ परोसहु बैरि जनिहि न राम कि बानी,
लागे मोही तुहरी दुनिया बिरानी,
नैनन के मोती बहि बहि भए पानी पानी..,

अजहुँ त परबत परतस लागे, हिय करि पीर पिरानी,
लागे मोही तुहरी दुनिया बिरानी,
नैनन के मोती बहि बहि भए पानी पानी.....







----- ॥ दोहा-पद 3॥ -----,

जगत-जगत बिरतै रे रतिया 
अम्बरु अंत लग जग जागे, जागत जरत जोति बरतिया | 
दिसै कमन बहु कुटिल करमचँद, कहत जगत कहि सुनी बतिया ||

करमन कर लेखा पढ़त फिरै, पढ़ी सकै चिठिया न पतिया | 
बैनन्हि के बिँग बैनाउरि कसि कसि छाँड़ बिँधे उत्खतिया   ||  

जो ये बस्ती भई बैरागि तो जा पड़े को परबतिया | 
बिरुझत बिदूखत बैरु करेउ भूतेसु के रे बरतिया || 

भक्तिकाल 

सँवरे सँवरे मोरे सँवरिए चितइ नहि देउ मूरतिया | 

बिरज उजारी दए झिरकारी  भयउब भूरि दुरगतिया || 

जोति बरतिया = ज्योति वर्तिका 
कुटिल करमचँद = कुटिल कर्मों से युक्त 
बिंग = व्यंग 
बैनाउरि = बाणावली 
बिदूखत = दोषारोपण करना 

बिरज उजारी = ब्रज को उजाड़ने वाली, वर्जना और जलाने वाली
झिरकारी=फटकार 

Sunday 20 May 2018

----- ॥ दोहा-पद 2॥ -----

जगत-जगत बिरती रे रतिया,  
बिरतै रतिया रे जगज उठे,
बिरताइ रतिया रे जगज उठे, 

अरुन उदयो अँजोरा सुधयो तज सैय्या सूरज उठे |                     हाँ तज सैय्या सूरज उठे ..
बिराज पुनि रथ उतरे छितिज पथ, परस चरन सिरु रज उठे ||    हाँss परस चरन सिरु रज उठे.. 
सरस सरोजर जोरे पानि सिस नाई पद पंकज उठे |                   सिस नाई पद पंकज उठे.. 
देय ताल मृदुल मंदिरु मंदिरु ढोल मजीरु मुरज उठे ||                  ढोल मजीरु मूरज उठे ..

सुर मालि पुर मधुर मनोहर संख नूपुर सहुँ बज उठे |                  हाँ संख नूपुर सहुँ बज उठे ..
सहस किरन बिनिन्दत गरुअत कलसी सिखर कर ध्वज उठे ||   कलसी सिखर कर ध्वज उठे ..
करत आरती सकल भारती भरि भेस भूषन सज उठे |                भरि भेस भूषन सज उठे.. 
बसहि बासि जिमि चहुँ कोत बासत कोटि कोटि मलयज उठे ||    हाँ कोटि कोटि मलयज उठे..  

अगज-जगज जगत भए सब जीव जगत के जाग |  
हरिअरी हरिदय निकेत जाग उठे अनुराग || 

अरुन उदयो = भोर हुई 
अँजोरा = उजाला
रज = कण, पराग कण 
पाणि = हाथ 
मजीरु मुरज = मंजीर मृदंग,
मलयज = चन्दन 
हरिअरी = धीरे धीरे 

Saturday 19 May 2018

----- || राग बैरागी भैरवी || -----

----- || राग बैरागी भैरवी || -----

जगलग ज्योत जगाओ रे, 
चहुँपुर निबिर अंधियार भयो अब रैनी चरन बहुराओ.., 

पंथ कुपंथ मोहि न बूझे, चलेउ कहाँ अजहुँ न सूझे, 
रबि सारथी नियराओ.., 

धरिअ करतल प्रभा प्रसंगा उतरो हे देव रथ संगा.., 
दिसि-बिदिसि अरुनाओ..... 


दिसि -बिदिसि = दिशा व्  दिशाओं के कोण 

Friday 18 May 2018

----- ॥ दोहा-द्वादश 3 ॥ -----

समय संगत चलिहौ रे समय जगत का बाहि | 
समउ रहत सब साध है समय बिरत कछु नाहि || १ || 
भावार्थ : - समय जगत का वाहन है एतएव समय के साथ ही चलना चाहिए | समय रहते ही सभी कार्य सिद्ध होते हैं समय व्यतीत होने पर पश्चाताप के अतिरिक्त कुछ भी शेष नहीं रहता |                                                                      

काल गगन तरि दरसिया मेघाबरि कर झुंड | 
गिरि बूँद सो होम भई  तपन देव के कुंड || २ || 
भावार्थ : - बीते कल गगन तल पर घोर घटाओं का झुण्ड लक्षित हुवा,बुँदे भी गिरि, किन्तु वह सूर्य देव के यज्ञ कुंड में स्वाह हो गई, ठंडक थी सो जाती रही और वातावरण में ताप यथावत है | 

जाने कहाँ कदम चले छूटी सच्ची राह | 
रिश्ते नाते तोड़ती धन- दौलत की चाह || ३ || 

समंदर और किश्तियाँ साहिल और तूफ़ाँ  | 
मौजाँ मौजाँ माहिला बादे कश बादबाँ || ४ || 
बादे कश = हवा से खैंचा हुवा 
बादबाँ = पोत का पाल 
माहिला = मल्लाह 

मेह बसावै नीलनभ नेह बसावै नैन | 
देह बसावै आतमा गेह बसावै बैन  || ५ || 
भावार्थ : - मेघों को नीला आकाश बसाता है | आकाश से रहित मेघ छीन-भिन्न रहते है, नयन स्नेह को बसाते हैं नयन से वियुक्त नेह अदृश्य रहता है | आत्मा को देह बसाती है अन्यथा वह भटकती रहती है वाणी घर को बसाती है वाणी की कटुता घर को उजाड़ देती है |    

नाम बड़ाई सबहि किए तासु सधै सब काम  | 
नाम के संग होइ सो  पहुंचे अपने धाम || ६ || 
भावार्थ : - नाम पहचान का प्रतीक है संसार में नाम की सभी प्रशंसा करते आए हैं | नाम जाति अथवा धर्म को संसूचित करता है जैसे : -आम नाम है और दशहरी उसकी जाति है | यदि किसी का नाम ज्ञात हो तो फिर उसे उसके धाम या मुक्ति धाम पहुंचाना सरल होता है एतएव नाम भी सोच समझ कर रखना चाहिए | 


जहाँ अर्थ परमार्थ हुँत जहाँ दान कल्यान | 
देवनहार भगत तहाँ लेनहार भगवान || ७ || 
भावार्थ : - जहाँ अर्थ स्वार्थ हेतु न होकर परमार्थ हेतु हो, दान मान हेतु न होकर कल्याण हेतु हो वहां भगवान भिक्षुक व् भक्त दाता हो जाता है |  

लोक ब्यौहार कर हुँत नियताचारहि नीति | 
प्रथानुकूल नेमधर्म कर परिपालन रीति || ८ || 
भावार्थ : - लोक-व्यवहार के हेतु नियत किए गए उत्तम आचार-विचार नीति है तथा इनका दृढ़ता पूर्वक परिपालन ही नैतिकता है और परम्परागत नियम-धर्म का परिपालन ही रीति है | 

रहे जौ ठाट बाट ते कि रहे ठट्टा टाट | 
कबहुँ न होत भली सुख साधन की बाट || ९ || 
भावार्थ : - संपन्न हेतु हो अथवा विपन्न हेतु, सुख सुविधाओं की बन्दर बाँट कभी कल्याणकारी नहीं होती | 

कहँ त यहु जीबात्मना कहँ जग कर परिमान | 
बहुरि सो मति मूरख जौ भरे भूरि अभिमान || १० || 
भावार्थ : - कहाँ यह अतिशय सुक्ष्म मानव शरीर और कहाँ संसार का परिमाण, वह बुद्धि फिर मूर्ख बुद्धि है जो अहंभाव से परिपूर्ण है | 


कहँ मानस कर खेलना कहँ अगास को अंत | 
एक सस परस समुझत सो आपनु आप महंत || ११ || 

भावार्थ : - कहाँ तो आकाश का अंत, और ज्ञान -विज्ञान के प्रसंग कहाँ मनुष्य की यह उछल-कूद | एकमात्र चन्द्रमा को स्पर्श करके ईश्वर के अस्तित्व को अस्वीकार्य कर वह स्वयं को ही स्वयंभू समझने लगा  | 

बछुवन भूखन देख के गौ मा करे पुकार | 

मानस मोरे अमृत के करो ना तिरस्कार || १२ || 




Wednesday 16 May 2018

----- || रखताँ + दोहा-पद 1॥ -----


मेरे सरापे को जेहन में जगह दो,
के मुस्कराने की कोई तो वज़ह दो..,

वो मरमरीं चाँद जो शब् को न मयस्सर,
उसे हमराज करो और दामन में गिरह दो..,

ख़म को खोल गेसू-ए-दराज़ को संवार के,
लबे-कनार को सुर्खियाँ नज़रों को सियह दो..,

ज़हीनत के ज़मील-तन पे सीरत के हैं ज़ेवर,
दस्ते-दहल को हिना के रंग की निगह दो..,

हर रब्ते-मंद जाँ ऱगे-जाँ से हो नज़दीक,
रवाज़ी शामो-सहन की वो रस्मी सुबह दो..,

मुबारकें शफ़ाअतें सलामतें हो दम-ब-दम,
हम-क़दम को रुख़सते-रहल की रह दो.....

                   ----- || राग-दरबार || -----

       मङ्गलम् भगवान विष्णु मङ्गलम् गरूड्ध्वज: | 
        मङ्गलम् पुण्डरिकाक्ष्: मङ्गलाय तनोहरि: || 

दीप मनोहर दुआरी लगे चौंकी अधरावत चौंक पुरो |
हे बरति हरदी तैल चढ़े अबु दीप रूप सुकुँअरहु बरो ||
पिय प्रेम हंस के मनमानस रे हंसिनि हंसक चरन धरो |
रे सोहागिनि करहु आरती तुम मौली मस्तक तिलक करो ||


चलिअ दुलहिनि राज मराल गति हे बर माल तुम कंठ उतरो ||
हरिन अहिबेलि मंडपु दै मंगल द्रव्य सोहि कलस भरो ||
जनम जनम दृढ़ साँठि करे हे दम्पति सूत तुम्ह गाँठि परो |
भई हे बर सुभ लगन करि बेला परिनद्ध पानि गहन करो |
अगनि देउ भए तुहरे साखी लेइ सौंह सातौं बचन भरो ||


बर मुँदरी गह दान दियो हे सुभग सैन्दूर माँगु अवतरो |
जीवन संगनि के पानि गहे हे बर सातहुँ फेरे भँवरो ||
हे गनेसाय महाकाय तुम्ह भर्मन पंथ के बिघन हरो  |
बरखा काल के घन माल से हे नभ उपवन के सुमन झरो ||

पट गठ बंधन बाँध कै देइ हाथ में हाथ |
ओरे बोले बाबुला जाउ पिया के साथ ||


शामो-शम्मे-सहर के शबिस्ताने रह गए..,
जिंदगी रुखसत हुईं आशियाने रह गए.....

भावार्थ : - मन को हारने वाले दीप स्वरूप कुअँर द्वार पर पहुँच गए हैं  चौंक पुरा कर उसपर चौकी रखो | हे बाती ! हल्दी व् तैल्य से परिपूरित इस दीप रूपी सुकुमार का वरण करो || १ || रे हंसिनी ! तुम्हारे इन  प्रियतम रूपी प्रेमहंस मन रूपी मानसरोवर में बिछिया से विभूषित चरण रखो  | सुहागिनों ! तुम कुंअर की आरती करते हुवे उसके मौलिमस्तक पर तिलक का शुभ चिन्ह अंकित करो | 
                 दुल्हन राजमराल की गति से चल पड़ी है एतएव हे वरमाल्य तुम वर के कंठ में अवतरित होओ | मार्केट रत्न सी हरी पान की पत्तियों की बेलों से लग्न-मंडप को सुसज्जित कर मंगल  द्रव्य से कलश भरो || हे दम्पति सूत्र ! तुम  इस भाँती ग्रंथि ग्रहण करो कि वर-वधु का बंधन  जन्म-जन्म तक सुदृढ़ रहे | हे वर ! शुभ मुहूर्त का समय हो गया तुम परिणद्ध होकर कन्या का दान ग्रहण करो | अग्निदेव तुम्हारे साक्षी हैं एतएव उनकी शपथ लेकर सात वचन भरो | 
                   वर ने मुद्रिका से सिंदूर अर्पित कर दिया एतएव हे सौभाग्य रूपी सिंदूर तुम अब वधु के केश प्रसारणी में अवतरित हो जाओ | जीवनसंगिनी के हाथ को ग्रहण किए हे वर ! अब तुम सप्त-पदी रीति का निर्वहन करते हुवे अग्नि की सात बार परिक्रमा करो | हे गणेशाय | हे महाकाय ! तुम भ्रमण पंथ के सभी विध्नों का हरण करो | हे नभ के उपवन के सुमन तुम वर्षा ऋतू की मेघमालाओं के जैसे वरवधू पर वर्षो || 

आँचल से ग्रंथि बाँध कर वर के हाथ में वधु का हाथ दे बाबुल बोले : - अब तुम अपने प्राणपति के साथ प्रस्थान करो | 

Wednesday 2 May 2018

----- ॥ दोहा-द्वादश 2 ॥ -----

जो जग धर जग हेतु कर लेन जोग सो नाम | 
जो जग जीवन जोइया करन जोग सो काम || १ || 
भावार्थ : - जो इस जगत के आधार स्वरूप है, जो जगत की उत्पत्ति के कारण व् कारक है उसी का नाम लेने योग्य हैं | जो इस जगत का तथा इस जगत में जीवन का संरक्षण करते है वह कार्य कृतकार्य कहलाते हैं  एतएव वही कार्य करने योग्य हैं | 



बैनन बैनन एकै जो  ह्रदय माहि समाए | 
एक घाव भरियाए रहे दूज रहे  हरियाए || २ || 
भावार्थ : - बैन यद्यपि शब्द एक है किन्तु इनका अर्थ दो है, 'बैन'बाण को भी कहते हैं और वाणी को भी कहते हैं यदि ये ह्रदय में उतर जाए तो एक बैन के दिया घाव कदाचित भर भी जाता है किन्तु दूजे बैन  का दिया घाव कभी नहीं भरता अर्थात बाण का दिया घाव कदाचित भर जाता है किन्तु वाणी का दिया घाव कभी नहीं भरता |   

यमक अलंकार = इस अलंकार में एक शब्द की वारंवार आवृति होती है किन्तु उसके अर्थ सार्थक व् भिन्न भिन्न होते हैं | 

जैसे : - कनक कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकाए | 

             या खावै बौराइ गए वा खावै बौराए || 
भावार्थ : - यहाँ एक कनक का अर्थ सोना या धन सम्पति है और एक कनक का अर्थ धतूरा है | कवी कहते हैं कि : - कनक कनक की मादकता एक से बढ़कर एक है दोनों को खाकर पागल ही होना है ऐसे पागल या तो घर से भाग जाते हैं या देश से, इसलिए किसी का कुछ भी मत खाओ | 

काम सधे जब एकै तैं करो न और उपाए | 
अनभल रजता एक भलो कहा करिब बहुताए || ३ ||  

भावार्थ : जब एक से काम चल रहा हो तब अन्यान्य उपाय नहीं करना चाहिए | शासन करता एक दुष्ट भी बहुंत होता हैं, जब सारी जनता ही दुष्ट,भ्रष्टाचारी व् अनाचारी हो तब उसका शासन तंत्र किस काम का |