Monday 24 December 2018

----- ॥ दोहा-द्वादश १५ ॥ -----

बहिरे बरग के डर ते डरपत मन हम्हार |
एहि डर निडर होतब रे भाजत देस द्वार || १ || 
भावार्थ : -  देश से बाहर के समुदाय का भय हम भारत वासियों को बहुंत भयभीत करता हैं क्योंकि उनका यह भय इस देश को विभाजित करके ही निर्भीक होता है |

को करतब बलिदान को सेवा सुश्रता कोइ |
साँची तब कहिलाइ जब परमार्थ हुँत होइ || २ ||
भावार्थ : - कोई कर्तव्य कोई बलिदान अथवा कोई सेवा शुश्रुता तभी सत्य कहलाती है जब वह निःस्वार्थ होकर परमार्थ हेतु हो स्वार्थ हेतु नहीं |

लीख ते भयउ लाख सखि निरखु ए खंजन खेल |
साखि साखि करु राखि सखि नैन नीँद परहेल || ३ ||
भावार्थ : - हे सखि ! इन प्रवासी पक्षियों को देखो ये कैसे अल्प से अति हो गए | नेत्रों से निद्रा को तिरष्कृत कर तुम अपने वृक्ष और उनकी शाखाओं की रक्षा करो |

सीत पानि करि सीत रुचि सीत काल सिहरात |
सीत बात असपरस के पात पात संपात || ४ ||
भावार्थ : - शीत काल में किरणों की शीतलता से चन्द्रमा भी कम्पन करने लगा | शीतल वायु का स्पर्श वृक्ष को कम्पित कर उसके पत्ते गिराने लगा


मन मोहु माया बस किए देही जति परिधान | 
चित कस ग्यान गहे जो करतल दिए नहि कान || ५ || 
भावार्थ :- मन सांसारिक विषयों वशीभूत हो देह यति वल्कल के |  जब कान अपरिरुद्ध होकर अनर्गल प्रलाप  श्रवण करने में व्यस्त हो तब चित्त ज्ञान कैसे ग्रहण करे |

साँच धर्म की आत्मा दया धर्म की देह |
तप धर्म का हरिदय है दान धर्म का गेह || ६ ||
भावार्थ : - सत्य धर्म की आत्मा है दया  धर्म की देह है तपस्या धर्म का ह्रदय है दान उसका गृह है |

पाठ पराया पढ़त मन मानस भयो अधीन | 
देस पराया जीमता अपुना दीन मलीन || ७ || 
भावार्थ : - पराई पट्टी पढ़ के यह देश मानसिक दास हो चला है भिन्न देश के धर्मावलम्बी इस देश का भरपूर उपभोग कर रहे और देशवासी दरिद्रता को प्राप्त हैं |

कतहुँ मुस्लिमस्ताँ बसै कतहुँ फिरंगी बाद | 
अहले हिन्दुस्ताँ तिरी कौन सुने फ़रियाद || ८ || 
भावार्थ : - कहीं मुस्लिम्स्तान बसा है तो कहीं इंग्लैंडिया बसा है प्यारे भारत यहाँ तेरी दुहाई, तेरी याचिका सुनने वाला कोई नहीं है | 

नेम नियामक पहिले कि पहिले धर्म निकाय | 
जनमानस के राज कहु कवन पंथ अपुनाए || ९ || 
भावार्थ : -  किसी विवादित विषय में एक लोकतांत्रिक शासन प्रबंधन की कार्य प्रणाली किसे प्राथमिकता दे - नियम विधान निर्मित कर शासन करने वाली संस्था को अथवा न्यायपालिका को ?

नेम नियामक नाम का करिआ नेम अभाउ | 
बहुरि कहाँ ते आएगा कहु त निरनय न्याउ || १० || 
भावार्थ : - " जहाँ नियमन करने वाली संस्था नियमों का अभाव करती हो वहां न्याय व् निर्णय का अकाल होता है " जब नियमन करने वाले नियामक नाममात्र होकर नियामादेश का अभाव कर दे तब न्याय व् निर्णय आएगा कहाँ से ? तो '' प्रथमतः नियम निर्मित होते है, उसके आधार पर न्याय व् निर्णय होता है....."

उदाहरणार्थ : - 'अ'विवाहेत्तर सम्बन्ध का अभ्यस्त है उसके पडोसी  'ब' को इससे आपत्ति है दोनों एक सद्चरित्र लोगों के देश में निवास करते हैं |  'अ' आपत्तिकर्ता के विरुद्ध न्यायालय में याचिका प्रस्तुत करता है
कि 'ब' मेरे निज जीवन में व्यवधान उत्पन्न न करे | न्यायालय न्याय निर्णय कैसे दे नियम तो है ही नहीं और न्यायालय 'ब' को बोलेगा सारा विश्व तो चरित्र हीन है तुमको आपत्ति क्यों है चुपचाप अपने घर में क्यों नहीं रहते |  देश काल व् परिस्थिति को दृष्टिगत करते हुवे प्रथमतः कार्यपालिका नियम निबंधित करे कि यह देश चरित्रवानों का है कोई निवासी चरित्रहीनता का व्यवहार न करे यदि करेगा तो दंड का भागी होगा.....

जन जन निज मत देइ के जिन्हनि दियो चुनाए | 
सोई पहिले आपुना कृत करतब निबहाए || ११ || 
भावार्थ : - फिर जनमानस ने जिसका चयन किया है सर्वप्रथम वह अपने कृतकर्तव्यों का निर्वहन करे.....

क्योंकि लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनमानस द्वारा न्यायापालिका के अन्यथा कार्यपालिका का चयन इस हेतु  किया जाता है कि वह उसके देश काल व् परिस्थिति के अनुसार नियम निर्मित करे तत्पश्चात उन नियमों के आधार पर न्यायापालिका न्याय करे व् निर्णय दे..... आदेश नहीं.....

 न्याय संगत बितर्कन बिधि सम्मत परमान । 
साखी दिरिस अवमति दिए नेति जोग अवज्ञान ॥ ३२१४॥ 

भावार्थ : -- न्याय संगत तर्क, विधि- सम्मत साक्ष्य, साक्षाद्दृश्य को तिरोहित कर दिया गया निर्णय अवज्ञा के योग्य होता है.....


''चार बीबी चालीस बच्चे'' ''ये बिना बीबी चार सौ बच्चे.....

''ऐसे संबंधों से व्युत्पन्न संतति का उत्तरदायी कौन होगा.....


पुरुख नारि बिहीन जने संतति जब सतचार | 
पच्छिम तेरी चलनि की  महिमा अपरम्पार || १२  || 
भावार्थ : -अरे पाश्चात्य संस्कृति तेरी महिमा तो सबसे  अपरम्पार है तुम्हारे यहाँ बिना बीबी के चार सौ बच्चे जनम ले रहे है तुमसे तो ''चार बीबी चालीस बच्चे'' इस पार हैं |






Saturday 15 December 2018

----- ॥ दोहा-द्वादश १४ ॥ -----,

जबहि भीते चोर बसे, पहराइत के राख |
बहुरि सासत राज रजत तहाँ पराई साख || १ ||
भावार्थ : - प्रहरियों के प्रहरी बनकर जब गृह के भीतर ही चोर बसे हों, तब विदेशी अथवा विदेशी प्रवासी के वंशज उस गृह का उपभोग करते हुवे उसपर शासन करते हैं |

जोइ बिटप परपंथि हुँत होत उदारू चेत | 
साख बियोजित होइ सो उपरे मूर समेत || २ || 
भावार्थ : -   पंथ पर अवस्थित जो वृक्ष डाकू, लुटेरों के प्रति उदार ह्रदय होता है वह एक दिन अपनी शाखाएं वियोजित कर मूल सहित उखड जाता है |

पंथ = धर्म
वृक्ष = अनुयायी
परिपंथी = डाकू, लुटेरे

दीन हीन मलीन हुँते रखिता चेत उदार |
साख साख बिरधाए सो बिटप गहे बिस्तार || ३ || 
भावार्थ : - लुटेरों के प्रति उदारवादी न होकर दरिद्र, दुर्दशाग्रस्त, विकलता से भरे हुवे के प्रति उदार वृक्ष अपनी शाखाओं को संवर्द्धित कर विस्तार को प्राप्त होता है |

जूह भीत अभिमन्यु सों बैदि धर्म बिपरीत | 
पैसन पथ परिरुद्ध है, निकासि पथ असिमीत || ४-क  || 
----- || गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर || -----
भावार्थ : -- गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर के अनुसार : - अभिमन्यु द्वारा प्रविष्ट व्यूह से वैदिक धर्म विपरीत है इस समुदाय में प्रवेश द्वार अवरूद्ध  है और निर्गत द्वार अनेकों हैं....."

क्योंकि : - 
बैदिक धरम बिटप सूर सार रूप भगवान | 
ग्यान सिंचित जल है उर्बरा है बिग्यान || ४-ख || 
भावार्थ : - क्योंकि वैदिक धर्म समुदाय एक ऐसा विटप है जिसके सार में सूर्य स्वरूप भगवान हैं यह ज्ञान जल से सिक्त  व् विज्ञान की उर्वरा से परिपुष्ट हुवा  है | इसका विज्ञान आनुवांशिक अभियांत्रिकी का पर्याय है |

साधौ जब हुए जाएँगा बिधिबिद बिधि ते बाम |
जहाँ बिराजै राम समुझि सोइ राम के धाम || ५ ||
भावार्थ : - सज्जनों जब न्यायकर्ता न्याय के विपरीत व्यवहार करने लगे  तब जहाँ राम विराजेंउसे ही राम का धाम समझ लेना |

प्रगस बड़ो पहुमि नहि नहि प्रभु ते बड़ी प्रभुताइ | 
भगत सनेहे भगति कू  बंचक बंचकताइ  || ६ || 
भावार्थ : -  प्राकट्य स्थान से ईश्वर्य का प्राकट्य महत्वपूर्ण है ईश्वर के सम्मुख ईश्वर का सांसारिक वैभव तुच्छ है | भक्त को भक्ति से अनुरक्ति होती है प्रपंचों से नहींऔर  राम का नाम लेकर जगत को ठगने वाले ठगों को ठगी से अनुरक्ति होती है राम से नहीं |

समयँ सबते बली तासु बली न को जग माहि | 
समयँ न कोउ बाँधि सकै समयँ बाँधि सब काहि || ७ || 
भावार्थ : - समय सबसे बलवान है समय से बलवान इस संसार में कोई नहीं है | समय को कोई बाँध नहीं सकता समय द्वारा सभी विबन्धित हैं |

खाना पीना पहिरना साधे साध अगाध | 
एकै स्वारथ साधना कहा न दूजी साध || ८ || 
भावार्थ : -  खाना पीना पहनना और नाना प्रकार के सुख साधनों का संकलन करना अर्थात स्वार्थ सिद्धि में लगे रहना   क्या जीवन का यही एक मात्र लक्ष्य है |

भीतर के संसार एक बाहिर के संसार | 
जे कर्म के अधार है जे तो भावाधार || ९ || 
भावार्थ : - मानव जीवन के दो जगत होते हैं एक बाह्य जगत एक अंतर्जगत | बाह्यजगत  किए गए कर्मों के द्वारा और अंतर्जगत विचार आचार संस्कार आदि मनोभावों के द्वारा व्यवस्थित होता है |

जीवन साधन साधना साधे बाहिर गेह | 
अंतर मन करि भाव सों सधे भीतरी देह || १० || 
भावार्थ : - भोजन वसन वासन वाहन आदि जीवन के साधनों की सिद्धियां मनुष्य के बाह्य जगत को साध्य करती है  आचार, विचार, प्रेम, भक्ति आदि अंतर्भावों से अंतर्जगत साध्य होता है |

साधन माहि रमाए रहँ पेम भगति बिसराए | 
बाहिर भवन बसाए सो भीत भवन उजराए || ११ || 
भावार्थ : - जो प्रेम भक्ति आदि मनोभावों की अवहेलना कर केवल जीवन के साधनों को सिद्ध करने में संलग्न रहता हो उसका बाह्य भवन  अवश्य व्यवस्थित रहता है किन्तु अंतर्भवन उजड़ा रहता है |

देह चहे बासन बसन उदर चहे खद्यान |
पेम भाव पीतम चहे भगति चहे भगवान || १२ ||
भावार्थ : - देह  हेतु बासाबास, उदर हेतु भोजन आवश्यक है | प्रेम हेतु प्रीतम आवश्यक है भक्ति के लिए भगवान भी आवश्यक हैं |

बहिरे बरग के डर ते डरपत मन हम्हार |
एहि डर निडर होतब रे भाजत देस द्वार || १ ||
भावार्थ : -  देश से बाहर के समुदाय का भय हम भारत वासियों को बहुंत भयभीत करता हैं क्योंकि उनका यह भय इस देश को विभाजित करके ही निर्भीक होता है |

को करतब बलिदान को सेवा सुश्रता कोइ |
साँची तब कहिलाइ जब परमार्थ हुँत होइ || २ ||
भावार्थ : - कोई कर्तव्य कोई बलिदान अथवा कोई सेवा शुश्रुता तभी सत्य कहलाती है जब वह निःस्वार्थ होकर परमार्थ हेतु हो |

Thursday 6 December 2018

----- ॥पद्म-पद ३१॥ -----,

 ----- || राग-      || -----
नीर भरे भए नैन बदरिया..,
चरन धरत पितु मातु दुअरिआ..,
अलक झरी करि अश्रु भर लाई बरखत भई पलक बदरिया..,
बूँदि बूंदि गह भीजत आँचर ज्यौं पधरेउ पाँउ पँवरिआ..,
घरि घरि बिरमावत भँवर घरी  कंकरिआ सहुँ भरी डगरिआ..,
नदिया सी बहति चलि आई बिछुरत पिय कि प्यारि नगरिया..,
 दरस परस के पयस प्यासे तट तट भयऊ घट नैहरिआ..,
 घट घट पनघट आनि समाई सनेह सम्पद गही अँजुरिआ....


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गगण में घण साँवरो बिराज्यौ
 गरज गरज गह गह घनकारौ बादलियो घन बाज्यौ
कारौ काजलियो सों साज्यौ 

----- ॥ दोहा-द्वादश १३ ॥ -----

अजहुँ तो हम्म दरसिआ जग मरता चलि जाए |
एक दिन ऐसा आएगा मरते हम दरसाए  || १  ||
भावार्थ : - अभी हमें संसार मृत्यु को प्राप्त होते दर्शित हो रहा है एक दिन ऐसा भी आएगा जब संसार को हम मृतक दर्शित होंगे |

सार यह है कि : - जीवन का अहंकार कदापि नहीं करना चाहिए.....

भाड़ मचाए भीड़ संग चले भेड़ की चाल |
जो बैरी भए आपनो वाको को रखवाल || २ ||
भावार्थ : - उपद्रव मचाती या धक्कमधक्का करती भीड़ के साथ भेड़ के जैसे अंधानुकरण कर जो स्वतोविरोधी होते हुवे जो स्वयं से वैर करता हो उसकी रक्षा भला कौन कर सकता है |

आँच दिये कुंदन भयो होतब कंचन साँच |
जोइ बिसमाइ गयो सो होत असाँचा काँच || ३ ||
भावार्थ : -  उत्कृष्ट मनुष्य जीवन के आतप्त को सह कर अत्युत्कृष्टता को प्राप्य होता है | जो ऐसे आतप्त को सहन नहीं करता वह अतिनिकृष्टता की श्रेणी को प्राप्त हो जाता है |

सत्ता साधन हेतु जे करिअ न कहा कुकर्म | 
कापर पटतर आपुना बदलें नाम रु धर्म || ४ || 
भावार्थ : - सत्ता साधने के लिए ये नेता क्या कुकर्म नहीं करते नाम व् धर्म को तो ये कपड़ों के जैसे बदलते हैं | 

कतहु गड़बड़ झोला रे कतहुँ त गड्डम गोलि |
लोक तंत्र में बोलिये जनमानस की बोलि || ५ ||
भावार्थ : - कहीं गड़बड़ है कहीं घपला है कहीं घोटाला है कहीं गोली चल रही है | भैया ये लोकतंत्र है यहाँ जन मानस की बोली बोलनी पड़ेगी |

नहि चलेगा गडम गोल नहीं चलेगी गोली |
लोकतंत्र में बोलिये जनमानस की बोलि || ६ ||
गडम गोल = घपला घोटाला

जोइ बसेरा आपना पराए करें निबास  | 
कहा करिएगा बासना कहा करिएगा बास  || ८ || 
भावार्थ : - हे देशवासियों ! जब अपने निवास में पराए समुदाय का वास हो जाए तो परिश्रम कर करके, रोजगार कर करके बाट-वाटिका बनाने, घर को सजाने और बर्तन भांडे जोड़ कर भोजन-वस्त्र की व्यवस्था करने से क्या लाभ उसको तो पराया भोगेगा ||

तनिक जीवति संग सकल साधन साज सँजोए | 
पहरे में रह आपहीं कुसल गेहसी सोए || ९ || 
भावार्थ : - बिंदु में जो सिंधु लिखे यत्किंचित में जो गृह के जीवन यापन के सह समस्त सुख साधनों का संकलन कर ले, और अपने गृह का रक्षा स्वयं करे वह कुशल गृहस्थी है |

मुखिया मुख सों चाहिये खान पान कहुँ ऐक |
पाले पौसे सकल अंग तुलसी कहे बिबेक ||
----- || गोस्वामी तुलसी दास || -----


भावार्थ : - तुलसी दास जी कहते हैं : - गृहप्रधान को मुख के समान होना चाहिए भोजन ग्रहण करने हेतु एक ही है किन्तु वह न्यूनाधिक के विवेक से गृह के भोजनन्न, ईंधन, वन-वाटिका, पालतू पशु, स्वास्थ, शिक्षा, सुखसाधन, रक्षा, पहुँच मार्ग, साज सज्जा, आदि सभी अंगो का यथोचित पालन पोषण करे |

अरहर केरी टाटरी अरु गुजराती राख | 
पहिरन खावण को नहीं अरु पहराइत लाख || १० || 
भावार्थ : - 'अरहर की टाटरी और गुजराती ताला' जब देशवासी झोपड़ियों में निवास करे और उसकी रक्षा के लिए बड़ा व्यय | असन हैं न वासना और उसकी रक्षा में लाखों का व्यय होता हो तो वह अपव्यय है |

टिप्पणी : - गृह की कब, कैसे व् कितनी रक्षा हो - अपनी कुशलता सिद्ध करने के लिए गृह प्रधान यह विवेक से निश्चित करे |

बासर ढासनी के ढका रजनी चहुँ दिसि चोर | (तुलसी दास )
कस गह पहरा राखिए लूट मची सब ओर || ११ ||

भावार्थ : - चोर तो पहले से थे, लुटेरे और ठग भी आ गए अब दिन को ठगों के धक्के खाने पड़ेंगे रात को चोरों से भय रहेगा चारों ओर लूट ही लूट मची है हे भगवान ! अब देश/घर की रक्षा कैसे होगी |

भीत भीत भिद भेद दै द्वारि चौपट खोल |
पहरी गगन में फिरते बैसे उड़न खटोल || १२ ||
भावार्थ : - भित्ति भित्ति को सेंध कर फिर अंतर भेद भी प्रेषित किया और द्वारों को भी चौपट खोल के  हमारे देश के प्रहरी को गगन की रक्षा हेतु उड़न खटोले दिए गए |  न्यायाधीश अथवा प्रतिपक्ष ने नहीं पूछा क्यों दिए गए.....? आकाश में अब तक कितने आक्रमण हुवे जल में कितने आक्रमण हुवे और थल पर कितने आक्रमण हुवे, कितनी घुसपैठ हुई झोल कहाँ है वायु में जल में कि थल में.....?








Friday 30 November 2018

----- ॥ दोहा-द्वादश १२ ॥ -----

जाके पूर्बज जनम भए जाहि देस के  मूल | 
जनमत सो तो होइआ सोइ साख के फूल || १ || 
भावार्थ : - "कोई व्यक्ति किसी राष्ट्र का मूल नागरिक है यदि उसके पूर्वजों की जन्म व् कर्म भूमि उक्त राष्ट्र की भूमि रही हो तथा उसका जन्म ऐसे पूर्वजों द्वारा उत्पन्न माता-पिता से हुवा हो |" 

स्पष्टीकरण : - यहाँ पूर्वज का आशय व्यक्ति के पूर्व की ज्ञातित पीढ़ियों में उत्पन्न व्यक्ति से है |  

जौ उलाँघत उपजत निज देस धर्म मरजाद | 
दूज हुँत मरजाद लिखे ताको संग विवाद || २ || 
भावार्थ : - अपने देश, अपनी कुल-जाति, अपने धर्म की मर्यादाओं के उल्लंघन का परिणाम जब दूसरों  के जाति-कुल देश-धर्म की मर्यादा लिखने का यत्न करता है तब उसके साथ विवाद होता है | लोग पूछते हैं तुम्हारी जाति क्या है ? धर्म क्या है ? फिर अपवाद स्वरूप कोई कबीर कहता है कि ''जाति न पूछो साधू की....''

जाति धरम जब कुल रहे रहैं हंस संकास | 
बिहूना होइ बगुल भए भाखन लागे माँस || ३ || 
भावार्थ :- जब जाति धर्म कुल की मर्यादाएं थीं तब हंस के समान रहे, जैसे ही मर्यादा भंग हुई बगुले हो गए और हिंसावादी होकर मांस-भक्षण करने लगे  |


अजहुँ सीस चढ़ि बैसिआ सोई अजाति बाद |
 निज मरजादा भूरि के औरन किएँ मरजाद  || ४ ||
भावार्थ :- अपनी मर्यादाओं का उल्लंघन कर दूसरों को मर्यादित करने का यत्न करते हुवे जिस वाद का प्रादुर्भाव हुवा वह अजातिवाद विद्यमान समय में शीश पर चढ़ा बैठा है |

जाति बरन अरु कुल धर्म नाउ नेम मरजाद | 
निर्बंधन जिन्ह चाहिए तासों करत बिबाद || ५ || 
भावार्थ :- जाति, वर्ण, कुल, धर्म नियम व् मर्यादाओं का दूसरा नाम है जिन्हें नियमों,मर्यादाओं, सीमाओं का विबंधन नहीं चाहिए उनका इनके साथ सदैव का विवाद रहा है और नियमों तथा सीमाओं की अबन्ध्यता अराष्ट्रवादिता की जननी है |

''राष्ट्रवादिता शब्दों से नहीं अपितु व्यवहार से प्रकट होती है.....''

नागरिकी अधिकार एक मौलिक एक अधिकार | 
येह  नागर कर दीजिए येह मूलि कर धार || ६ || 
भावार्थ : - भारत के इतिहास से शिक्षा लेते हुवे वर्तमान संविधानों को दो प्रकार के अधिकारों से युक्त होना चाहिए, एक मौलिक अधिकार दूसरा नागरिक अधिकार | मौलिक अधिकार तत्संबंधित राष्ट्र के मूल निवासियों को एवं नागरिक अधिकार मूल निवासियों सहित प्रवासी पीढ़ियों को प्रदत्त हो | 

शासन व् शासक चयन का अधिकार मौलिक अधिकार के अंतर्निहित हो..... 

सासन के अधिकार जहँ गहे देस के मूरि | 
जनमानस के सोइ सासन रहँ दासन ते दूरि || ७ || 
भावार्थ : -शासक व् शासन चयन जैसे मौलिक अधिकार जहाँ राष्ट्र के मूल नागरिक को ग्राह्य हों वह लोकतंत्र दासत्व के भय से मुक्त होता है |

सबहि देह मह जीउ है सबहि देह महँ प्रान | 
जिव हन्ता कहुँ  दंड हो काहु नही ए बिधान  || ८ || 
भावार्थ : - सभी देह श्वांस से युक्त है सभी देह प्राणमय हैं जीवन का अधिकार तो सभी को है | ईश्वर के शासन में जीव हत्या हेतु दंड का विधान है, मानव के शासन में इस अपराध हेतु दंड का विधान क्यों नहीं है |

बहुतक स्वाँग रचाई के पुनि भरे छद्म छ्ल भेस | 
नेता कहिते भारतिअ छाड़ों भारत देस || ९ || 
भावार्थ : - नाना भांति के स्वांग रचाकर छल कपट का वेश धरे सत्ता को प्राप्त नेता कहते हैं ''भारतीय भारत छोडो''

देहि जति परिधान दियो पहिरे पाँउ खड़ाउ | 
त्याजत तप रजत भयो सो तो रावन राउ || १० || 
भावार्थ : - देह में यतिवल्कल, चरणों में खड़ाऊ धारण किए सात्विकता यदि तामसी राजत्व को प्राप्त हो तो समझो वहां रावण राज है |


पथ पथ जाके राज में रचे कसाई गेह | 
कहौ कहा तिन होइगा राम नाम ते नेह || ११ || 
भावार्थ : - जिनके राज में पंथ पंथ पर कसाईघर अवस्थित हो कहिए भला उन्हें भगवद से प्रेम होगा क्या |

हिंसे न केहि जिउ कतहुँ सोए अहिंसा नीति |
अधिनायक तंत्र जहँ तहँ होत सबहि बिपरीति || १२-क ||
भावार्थ :- सभी जीवधारियों में ईश्वर की सत्ता है किसी भी जीव की हिंसा न करने की नीति ही अहिंसा नीति है | किन्तु जहाँ अधिनायक तंत्र भाग्य विधाता हो वहां समस्त नीतियां मूलतः सिद्धांतों के विपरीत हो जाती हैं |

 अधिनायक तंत्र = स्वेच्छा चारी शासन-प्रबंध, तानाशाही

दए अमि सुबरन नीपजे जुते खेह जौ बंस |
सो महपापि अधमी जो  ताहि हतें निरसंस || १२-ख ||

















Wednesday 28 November 2018

----- ॥ टिप्पणी १६ ॥ -----

>> और अब ये दासता की कलुषता जम्मू, कश्मीर यहाँ तक की अयोध्या में भी इस्लाम लिखने पर तुली है जो एक किरण की आशा थी वह भी निराशा में परिवर्तित होती जा रही है.....

>> गठबंधन.....वो भी ''बहनजी'' के साथ.....कोई इसके घर की बहन बेटियों को बचाओ.....
क्या प्रधान मंत्री बचाएंगे.....? लो एक जसोदा बेन ने पैले ही लुगाया बना कर छोड़ रखा है.....

>. वर्ण व्यवस्था वैदिक धर्म की व्यवस्था है ये अन्य के लिए कैसे हो सकती है.....?

>> और पाकिस्तान,अफगानिस्तान और भी देश हैं वे तुम्हारे क्या हैं .....? कभी कुरआन पढ़ी है कि नहीं.....३० खंड होते हैं कुरआन में.....सीपारा किसे कहते हैं.....?

>> कोई प्रधानमंत्री की उर्दू ठीक कर दे या हिंदी ठीक कर दे.....

>> हमारे यहाँ से काहे नहीं ले जाते.....यहाँ के प्रवासी जो अधिवासी बनकर मूल निवासी के अधिकार को प्राप्त हो गए हैं उन्होंने बहुंत सारी बना रखी हैं.....

मिरा माज़ी तंगे-हाल किए..,
खुद को मलिको-मालामाल किए..,
रहते है उस पार औ इस पार भी..,
मिरे दर पे वो सौ दीवाल किए.....
माज़ी = अतीत
सद्दे -रोई या सद्दे सिकंदर माना जाता है कि यह कांसे की दीवार सिकंदर ने तातार देश व् चीन के मध्य बनवाई थी ये दीवार वाली मानसिकता इस्लामवादी मानसिकता है लोकतंत्र में इसका कोई उपयोग नहीं है राज तंत्र में ये राजाओं की सुरक्षा करती थी.....

>> अर्थात अब धार्मिक अनुष्ठानों में हो रहे धन के अपव्यय और आडम्बरों को और अधिक बढ़ावा मिलेगा.....
     बुफे सिस्टम वाले भंडारे हो रहें हैं यहाँ पे

किसी की मरनी पे जाओ तो ऐसा आडम्बर की समझ नहीं आता वहां हंसना है या रोना है.....

>.> इन्हें भुगत तो हम भारतीय रहें हैं जो देश पर देश मिलने के पश्चात भी ये हमारे शेष के स्वामित्व, हमारी  आजीविका पर अधिकार किए बैठे हैं.....

>.> राजू : - हाँ ! यदि ये आरक्षण निजीसंस्थाओं में लागू हो गया तो उद्योगधंधे कैसे चलेंगे ? ऐसे वैसे चलेंगे तो टोटो पड़ोगो,
पड़ोगो तो भरपाई कौन करेगा प्रधानमंत्री का बापू.....?

>> राजू : -मास्टर जी मास्टर जी मेरे एक गधे मित्र को आरक्षण चाहिए किन्तु उसका घर १०५० फीट का है
मास्टर जी : - उसको बोल वो अपना घर ५० फीट तोड़ दे
राजू : -मास्टर जी किन्तु पंजिका में १०५० फीट ही है न
मास्टर जी : - बेच दे

>> राजू : - मास्टर जी मेरे योग्य मित्र की वार्षिक आय नौ लाख है और आठ वाले को आरक्षण....?
मास्टर जी : - उसको बोल पंखे से लटक जाए.....
राजू : - किन्तु मास्टर जी उसके घर में तो ए सी है
मास्टर जी : - मेरे पंखे से आ के लटक जाए.....

>> राजू : - मेरे को इन डिग्रीधारी नीम हकीमों से बचा लो.....ये मुझ जैसे योग्यों को पीछड़ा के दरिद्र रेखा के नीचे ला देंगे और पद में दलित करके मार देंगे.....

>> इन अधर्मियों का जाति धर्म क्या है ? इनसे तो पाषाण युग के मानव अधिक सभ्य थे.....

>> लोकतंत्र में एक मुखिया रूपी मुख को ही यह निर्णय करने का अधिकार प्रदत्त है कि उसके किसी अंग को कितने भोजन की आवश्यकता है मुखिया बनने की अभिलाषा रखने वाला दुखिया इसपर आपत्ति नहीं कर सकता..... उदा : - सम्मुख शत्रु है वीरता करने के लिए तब हाथ तो बोलेगा ही मुझे तोप चाहिए शत्रु के बल का अनुमान कर यहाँ मुखिया का विवेक इसका निर्णय करेगा कि वह उसे तोप दे अथवा लघु तुपक दे हाँ इस यत किंचित कृपणता से अंग भंग अथवा चोटिल हो जाए तब फिर विपक्ष दुखिया इसपर प्रश्न करने का अधिकारी है.....

>> चरित्रहीनों को देश में कोई चरित्रवान जा बसे तो उस देश में निवासित समुदाय यह सुप्रथा चलाए कि हमें ऐसे रहना चाहिए....कारण ऐसे रहने से देश की महिलाएं सुरक्षित रहेंगी.....
और देश का बचपन परिजनों की छाया में पलेगा इससे देश पर उसकी सुरक्षा का भार न्यूनतम होगा.....
>> 'चार बीबी चालीस बच्चे'' ''ये बिना बीबी चार सौ बच्चे.....

''ऐसे संबंधों से व्युत्पन्न संतति का उत्तरदायी कौन होगा.....


पुरुख नारि बिहीन जने संतति जब सतचार |
पच्छिम तेरी चलनि की महिमा अपरम्पार ||
भावार्थ : -अरे पाश्चात्य संस्कृति तेरी महिमा तो सबसे अपरम्पार है तुम्हारे यहाँ बिना बीबी के चार सौ बच्चे जनम ले रहे है तुमसे तो ''चार बीबी चालीस बच्चे'' इस पार हैं |



>> राज (सत्ता) नीति के लिए इस्लाम की एक मान्यता का दुरूपयोग न करें किन्तु इस हेतु हिन्दू धर्म की आस्था के केंद्र बिंदु का भरपूर दुरूपयोग करें..... सत्ताधारी दल का विचार है.....

>> नियमों के अभाव में देश अंधेर नगरी हो चला है.....

या देश के लोकतंत्र में सत्तावाद अथवा अधिकार वाद ( जो कार्यपालिका अथवा न्यायपालिका कहे उसे चुपचाप मान लो )का बोलबाला है

अधिकार वाद : - अब इस पद पर मेरा अधिकार है में जो कहूं वह मानना पडेगा.....



नियमों व् न्यायनिर्णयों से लोकमार्ग (लोकप्रचलित प्रथाएं धारणाएं,मान्यताएं )अवरुद्ध नहीं होना चाहिए |

अब दलगत लोकतंत्र व् तुगलकी शासन में कोई अंतर नहीं रहा....

>>  ईसवी संवत मानवीय क्रियाकलापों पर आधारित होकर यत्किंचित पृथ्वी के चाल की गणना करने में सक्षम है जबकि विक्रम संवत नक्षत्रों की गति पर आधरित होकर सम्पूर्ण आकाश गंगा की घूर्णन गति का भी आकलन करने में सक्षम है जिस दिन मानव शौर्य मंडल की परिधि के पार होगा ईसवी संवत असफल व् विक्रम सफल सिद्ध होगा.....

>> कोई जिए या मरे बस मुसलमान सुखी रहे क्या भारत-शासन इस हेतु है.....?

>> तीन पत्थर कैंच हुवे अब जो पड़े नक़ाब |
      उसपे भी दफ़ा मुकर्रर होगी क्या ज़नाब ||

>> गौमाता के नाम पर सिंहासन चढ़ने वाले इन प्रधानमंत्रियों को खटिया तो भुगतनी ही पड़ेगी.....

>> ऐसे भद्दे चित्रों वाली पत्रकारिता ! ये अवश्य  किसी झोला छाप पत्रकार की करतूत है.....

>> चोर चोर मौसेरे भाई | ता सोंही जनता उकताई || 

>>  को करतब बलिदान को सेवा सुश्रता कोइ |
साँची तब कहिलाइ जब परमार्थ हुँत होइ ||
भावार्थ : - कोई कर्तव्य कोई बलिदान अथवा कोई सेवा शुश्रुता तभी सत्य कहलाती है जब वह परमार्थ हेतु हो स्वार्थ हेतु हो तो वह ढोंग है |


>> हमारे पूर्वज ऋषिमुनियों ने भी पत्ते खा कर भारत को उदयित किया था अब विदेशियों की संतान उस पर शासन करने को तैयार हैं.....

>> हमारे पूर्वजों और गौवंश के परिश्रम जनित अन्न ने इस देश को परिपोषित किया अब विदेशी की संतान उसपर शासन करेंगी.....

>> हमरे पुरइन बन कुटि बसाए | पावत पत एहि देस निर्माए || 
गौ बंस श्रम जासु परिपोसे भए सो पराए बंस भरोसे || 
भावार्थ : -  हमारे पूर्वजों ने घने वनों  में कुटिया बसाकर  पत्तों का भोजन करते हुवे इस भारत देश को निर्मित किया  जिसे गौवंश के श्रम ने परिपोषित किया अब विदेशियों की संताने उसपर शासन करने हेतु उद्यत हैं  | 

>> बिद्या लाह होत नहि धन ते | बिद्यामनि लहे अध्ययन ते ||
भावार्थ :- विद्या धन से प्राप्त नहीं होती | विद्याधन की प्राप्ति अध्ययन से ही सम्भव है ||

>> भारत भूमि में मुसलमानों और अंग्रेजों ने अपने बच्चों के बच्चों के बच्चों के बच्चों को जन्मा उसके पैसे भी खाए और उसका रक्त भी पिया..... 

>> को नृप होए हमहि का लाहा | लाह लहे मन करिअब काहा || 

>> क्या किसी के पालतू की ह्त्या अपराध नहीं होना चाहिए ..?

और जब वह पालतू पूज्यनीय भी हो तो वह अपराध जघन्य नहीं होना चाहिए.....? सभ्यता कहती है कि होना चाहिए.....कोई तुम्हारे कुत्ते को मार दे तो कितना दुःख होगा ये देश हमारे घर के समान है इस गौवंश ने हमें पाला है पोषा है कोई इसकी ह्त्या करेगा तो घर के सदस्य की ह्त्या जितना ही दुःख होगा..... हम केंद्र से पालतू पशु अधिनियम की मांग करते हैं

एक बारी पूर्व प्रधानमंत्री के कुत्ते को कुत्ता बोल के देखे वो स्वयं भूँकते हुवे काट खाने को दौड़ेंगे |
राष्ट्रपति तो अपने घोड़ों को छूने भी नहीं देते और तुम उस गौ की ह्त्या कर रहे हो जिसे हम माता कहते हैं..... चूँकि वह माता गरीब की है इसहेतु उसके लिए कोई सुरक्षा नहीं है.....

>> शिक्षा के लिए धन की नहीं अध्ययन की आवश्यकता होती है


>>  सहस्त्र वर्ष से अधिक अवधि तक इन मुसलमानों की टट्टियाँ उठाई हैं भारत ने 
                    और अब तक उठा रहा है.....
>>  गांधी के महात्मा होने वाले प्रश्न पर : - "कलंदर संगमरमर के मकान में नहीं मिलता....."
                                                 ----- || अज्ञात || ---

>>  कितने सड़े सड़े पत्रकार है.....बांस आती है इनके लिखे हुवे में.....अच्छे वाले मिल नहीं रहे या तुम उन्हें अच्छा पैसा नहीं देते.....

>> ऐ प्रधानमंत्री तुमको भीड़ पर गोलियां चलवाने का रोग है क्या ? है तो शीघ्र उपचार कर लो अन्यथा यही भीड़ वापस से चाय की केतली थमा देगी.....फिर फोकटिया दसलखटकिया परिधान स्वपन में भी नहीं दिखेगा.....

>> परिवर्तन वही उत्तम है जो विश्व के लिए कल्याणकारी हो..... 

>> क्या गौमाँस भक्षण करने वाले अध्यक्ष का दल बनाएगा मंदिर.....? 

>> भारतीय संस्कृति की प्रतीक यह महिलाएं अभारतीय व् असंस्कृत लोगों का चयन करने जा रही है..... 

>> धर्म संकर से व्युत्पन्न संतान को अपनी मौलिकता ढूंढने के लिए जाने क्या क्या पापड़ बेलने पड़ते हैं..... 

>> संकरता का परिणाम अंतत: दुखद ही होता है एतएव नौयुवान पीढ़ी इस दुःख से बचे.....
और अपना धर्म अपनी जाति अपनी भारतीयता को अपने लिए न सही भारत के लिए बचा कर रखें.....

>> संतोष सुख का मूल है.....

>> अरे मूरख मीडिया/नेता यहाँ घर देश और उसकी अस्मिता पर शह पड़ी हुई है उसे बचाओ, पीछे विकास और रोजगार के प्यादे दौड़ना.....

>> यदि कोई चीनी जर्मनी इटालियन दो दिन में भारत की नागरिकता लेकर कहेगा कि मेरा धर्म मेरी जाति-गोत्र तिरंगा है मुझे प्रधानमन्त्री बना दो..... आप बना दोगे.....?

>> बिना वीजा का पड़ोस : - अर्थात घुसपैठ के लिए अब देश का द्वार चौपट कर दिया जाएगा.....


----- ॥पद्म-पद ३० ॥ -----,

----- || राग-भैरवी || -----
काहे कीज्यो बाबुल मोहे पराई रे |
कहहु कहा छन भर कहुँ तोहे मोरी सुरति नाहि आई रे || १ ||
प्रान दान दए मोहि जियायो काहे परदेस पठाई रे |

पोस्यो बहु बरस लगे बिछुरत लागि न बारि |
पिय के गाँव पठाए के  पल महि दियो बिसारि || २ || 

चारि गलीं दुइ चौंहटीं अजहुँ छितिज लगी दूर दुराई रे |
निकट बसत कबहुँ न मिलि आयो अह एहि तोरी निठुराई रे || ३ ||

हम्हरेहि हुँते लहुरी भई का तुहरी गह अँगनाई रे |
बैस पंखि गहि पवन खटोरे उड़िअ गगन अतुराई रे || ४ ||

गह्यो पियबर पानि जूँ सीस दियो सिंदूर | 
गाँव पराया देइ के कियो नैन ते दूर || ५ || 

दहरी द्वार पट पारि करत जइहउ करतल कसि धाई रे ||
बरखत नैन बिन सावन कहियो घन काल घटा गहराई रे || ६ ||

पवन पँखुरि पाइ के री पतिआ पितु के देस |
करतल गहि दए गलबहीँ  एहि दिज्यो संदेस  || ७ ||

पवन पाँख गहि गगन बीथिका मम पितु गेह तुम्ह जाई रे |
लिखिअ ए सनेसा कह्यो दियो  भरि कंठहियो लपटाई रे || ८ ||

कंठ लपटाइ के जिन्ह रख्यो जी ते लाइ  ||
ओ रे मोरा बाबुला ओहे लिजो बुलाइ || ९ ||







Tuesday 27 November 2018

----- ॥ दोहा-द्वादश ११ ॥ -----,

जाति धरम बिनसाए जो बिलगावत निज देस |
सनै सनै सेष सहुँ सो होत जात अवसेष || १ || 
भावार्थ : - जो अपना धर्मदत्त परिचय अपनी जाति अपना वर्ण को नष्ट करता है वह अपने देश से वियुक्त होकर शनै शनै शेष से अवशेष मात्र रह जाता है |

धर्म संग जो आपुना जाति बरन कुल खोए |
निज परचय बिनसाइ के बिनहि देस कर होए || २ ||
भावार्थ : - धर्म के साथ जो अपनी जाति अपना कुल अपना वर्ण नष्ट करता है वह अपना परिचय विनष्ट कर देश से विहीन हो जाता है |

जाति संकरी होइ जौ धर्म न लागै बेर | 
जगत फिरौ पुनि हेरते मिले न अपना हेर || ३ || 
भावार्थ : - सर्वप्रथम जातिय संकरता से बचें क्योंकि जाति-संकर होने के पश्चात धर्म-संकर होने में देर नहीं लगती | ऐसे संकरित तथा ऐसे संकरता से व्युत्पन्न संतति फिर जब संसार में अपनी मौलिकता अपनी पहचान ढूंढने निकलती है तब उसे वह कहीं नहीं मिलती |

लोहा लोहा सों  मिले मारे घन ते चोट |
लोहा सुबरन सों  मिले कहिलावै पुनि खोट || ४  ||
भावार्थ : - लोहा लोहा का प्रसंग करे तब वह घन में परिणित होकर उत्कृष्टता को प्राप्त होता है और  स्वर्ण पर चोट कर उसे आभूषण का स्वरूप देता है | वही लोहा यदि स्वर्ण का प्रसंग करता है तब वह अपने स्वाभाविक गुणों से रहित होकर निकृष्टता को प्राप्त होता है |

अपना पूला छाँड़ जौ उयउ पराया पूल | 
साख बिहूना होइ के बिनसत सो निज मूल || ५ ||
भावार्थ : -अपने समुदाय से वियोजित होकर जो कोई पराए समुदाय में सम्मिलित होता है, वह अपने पूर्वजों से रहित होते हुवे अपनी मौलिकता नष्ट कर राष्ट्रविहीन हो जाता है  |

अपना मूल नसाइए न छाँड़िए अपनी साख |
जे तो बहुरि न मेलिआ जतन कीजिये लाख || ६ ||
भावार्थ : - अपनी शाखाऐं त्याग कर अपनी मौलिकता नष्ट मत कीजिए क्योकि यह आपका वह अस्तित्व है जो यदि नष्ट हो जाए तो लाख यत्न करने पर भी पुनश्च प्राप्त नहीं होता |

 भाव संगत होतब जब भगवद भगति बिराट |
भगवनन्हि बसात भया दिब्य भवन तब टाट || ७ ||
भावार्थ : - भगवद भाव के संगत जब शक्ति का न होकर भक्ति का विराट प्रदर्शन होता है तब भगवान को विराजित किए टाट की कुटिया भी दिव्य भवन दर्शित होने लगती हैं |

भगवद गाथा बाँच कै भरिआ रे कर कोष | 
दोष गोइआ आपुना धरिआ जुग पर दोष || ८ || 
भावार्थ : - संग्रह साधू संतो का स्वभाव नहीं है | अपना दोष गुप्त रख काल पर दोषारोपित कर जो भगवद गाथा के वाचन द्वारा धन कोष का संकलन करते हैं वह संत पाखंडी होते हैं | 

अबर इष्ट के जनम भुइँ औरन के अस्थान |
साँचे मुसलमान कबहुँ पढ़ते नहि कुरआन || ९ ||
भावार्थ : - सच्चे मुसलमान अपने इष्ट की जन्मस्थली के विपरीत मुख करके किसी दूसरे के स्थान में उसके इष्ट देव की जन्मभूमि पर कभी भी कुरआन नहीं पढ़ते |

न इतिहास न बर्तमान न ग्यान न बिग्यान |
सोइ मान जग होइगा जो हमरा अनुमान || १० ||
भावार्थ : - बहुंत से लोगों को यह मत है कि : - न इतिहास-वर्तमान मान्य होगा न ज्ञान-विज्ञान मान्य होगा, विश्व में वही मान्य होगा जो हमारा अनुमानित विचार है ||

जातिहीन अग्यानि बनती करे बिगारि |
जातिजुगत ग्यानबान बिगरी करे सुधारि || ११ ||
भावार्थ : - एक जातिविहीन अज्ञानी बनी को भी बिगाड़ देता है और एक जातियुक्त ज्ञानी उस बिगड़ी को भी सुधारने में सक्षम होता है |


"जन्म से कभी राष्ट्रीयता प्राप्त नहीं होती नागरिकता अवश्य प्राप्त होती है....."
जिनकी सल्तनते थीं जहाँ की रूसतम ख़ेज़ | 
पैदाइसी हिँदूस्तानि फिर होते वो अँगरेज || १२ || 
भावार्थ : - यदि जन्म से राष्ट्रीयता प्राप्त होती है तो जिनके साम्राज्य का सूर्य कभी अस्त नहीं होता था जिनकी चार-चार पांच-पांच पीढिआँ भारत में जन्मी वह भी अंग्रेज भी भारतीय थे | 

जाके दल समुदाय मह बहिनी लेइ बिहाइ | 
सो तो नाहि काहू के होते जवाइ भाइ || 
भावार्थ : - जिनके दल जिनके समुदाय में बहनों से भी विवाह रचा लिया जाता हो वह किसी के जमाई भाई नहीं होते |  






भय सहुँ कि लोभ लाह सहुँ जब  निरनय होत प्रभाउ | 
होत जात भरोस हीन सो प्रबंधित न्याउ || 
भावार्थ :-  "जिसके न्याय-निर्णय किसी व्यक्ति, संस्था,दल के भय से अथवा किसी अनुचित लाभ के लोभ से प्रभावित हों वह न्यायिक व्यवस्था अविश्वसनीय होती चली जाती है | "






















Saturday 24 November 2018

----- ॥पद्म-पद २९ ॥ -----

----- || राग-रागेश्री  || -----

बैन दुसह पिया हम ना सहेंगे
दरस-परस बिनु पेम पयस बिनु मीन सरिस तलफेंगे || १ ||
पंखी पपीही पटतर पिय पिय पलछिन प्रति ररिहेंगे ||
जानत दारुढ़ दुसह दहन बरु बिरहा अगन दहेंगे ||  २ ||
छाँड़ देस गह गहस तिहारे नैहर गह जा रहेँगे ||
रहेंगे अजहुँ तुम सहुँ दूरी पद पितु पंथ गहेंगे || ३ ||
बासर चैन न रैन सैन नहि नैनन नींद लहेँगे ||
चहेंगे तुम्हरे हरिदय देस तुमकहुँ नाहि चहेंगे || ४ ||
----------------------------------------------------

Friday 23 November 2018

----- ॥पद्म-पद २८ ॥ -----,

----- || राग- सारंग ||-----
पिय हमहि ए कलि कलह न भावै |
निर्जर नैनि भई निर्झरनी झरझर नीर बहावै ||१ ||
पलक पहारी कहत कपोलक असुँअन ढर ढर आवै ||
तुम्हरे गह घरी घरी आनि हम्ह सोंहि बिरुझावै || २ ||
करिअ कर सब कृत करतब काजु दोषु धरिअ बिसरावै ||
हरिदय पावक बूझ चहे तव पेम पवन जौं पावै || ३ ||
भेदिनि बैरन परम बैर करि हठि घृत देइ दहावै ||
कुटिल कोदंड खैंच खैंचि के बियंग बैन चलावै  || ४ ||
मरमु भेद घन चोटि करिअ बहु बहु खरि खोटि सुनावै ||
जौ मुख आवै सो कहि निस दिन गरज गरज गरियावै || ५ ||
आपुनि गोई अरु कहि हमरी आगत कहत बतावै  ||
लषन सदगुन गनिहै न मोरे गनि गनि औगुन गावै || ६  ||
करुबर कहनाई कहि कहि के अनकहि कहन कहावै ||
पल छन पहर पिहर के आँगन सुमिरत मन बिरमावै || ७ ||

बिरुझावै = उलझना
आगत = गृहागत = अतिथि
गृह भेदिनी = क्लेष कर्ता
गरियावै = अनुचित वचन कहना
बिरमाना = बहलाना 

Thursday 22 November 2018

----- ॥पद्म-पद २७ ॥ -----,

----- || राग- केदार || -----
बुए बिआ पिय पेम अँकूरे
जो दिन तुम्हरे संग बिरुझे अजहुँ सो दिन गयउ रे भूरे || १ ||
सांझ भोर करि उड़ि उड़ि जावै पलपल पल छन पंख अपूरे ||
जो दुःख सों सुख मुख बिरुझायो अजहुँ त अखियन सों भए दूरे || २ ||
जो सुख सों दुःख मुख मलिनायो रे अजहुँ त सो सुख भए धूरे ||
हरिदय देस नैनन फुर बारि बिरवा प्रतीति फूर प्रफूरे || ३ ||
 डोरि देइ पिय पलक हिंडोरे पुलकित प्रीति डारि पर झूरे || 
हमरे बिन तुम आधे अधबर तुहरे बिन हम आध अधूरे || ४ ||
कहत  डरपत मन रे साजना बैरि बिरहा बहुर न बहूरे ||
सुनहु पिया बर प्रीति ए साँची कहँ सौं लई तुहरे सहूँरे || ५ ||


Sunday 18 November 2018

----- ॥ दोहा-द्वादश १० ॥ -----,

जोग चरन दलीत भया बैठा सीस अजोग |
झूठे निजोग करत जो सांचे करत बिजोग || १ ||
भावार्थ :- अब योग्यता पददलित हो गई और अयोग्य शीर्ष पर विराजित हो गए हैं अवगुण गुप्त रहें इस हेतु वह सत्य को वियोजित करते हुवे असत्य का नियोजन करते हैं |

दिसा हीन दुर्दसा जग दिसा दसा दरसाए |
अजहुँ तो दुश्चारिता नारी धरम बताए || २ ||
भावार्थ :-- वर्तमान समय में दिशाहीनता व् दुर्दशा जगत की दशा व् दिग्दर्शक हो चली है | दुश्चरित्रता नारी-धर्म की शिक्षा दे रही है |

काँकरि बन बिकसाए के करत जगत समसान |
प्रगत के सन्दरभ माहि पाछिन के अनुमान || ३ ||
भावार्थ : - प्रगति के सन्दर्भ में पाश्चात्य संस्कृति की यही अवधारणा हैं कि कंकड़ पत्थरों के जंगल विकसित कर पृथ्वी को निर्जीव श्मशान में परिवर्तित कर दो |


एहि सासन दुरचारिता  भ्रष्ट चरन के पोष ||
दाता निज मत दाए के धरिहु न तापर दोष || ४ ||
भावार्थ : - न केवल भारत अपितु विद्यमान की वैश्विक शासन व्यवस्था दुश्चारित्र्ता व् भ्रष्ट आचरण की पोषक है | यदि कोई मतदाता निज मत से इसे अपनी सम्मति प्रदान करता है तब उसे इसपर दोषारोपण का अधिकार भी नहीं होता  |

गुरु दीपक गुरुहि चंदा  गुरु अगास का सूर |
अंतर गुरु प्रगास गहे  होत अन्धेरा दूर || ५ ||
भावार्थ : - गुरु दीपक स्वरूप होते हैं गुरु चन्द्रमा स्वरूप होते हैं गुरु आकाश के सूर्य समदृश्य होते हैं | गुरु के ज्ञान प्रकाश ग्रहण कर अंतरतम अन्धकार से विमुक्त हो जाता है |


रट्टू सुआ रटत रहे राम राम हे राम |
राज पाट पुनि पाए के रसनी दियो बिश्राम || ६ ||
भावार्थ : - रट्टू तोता के समान राम राम हे राम ! रट कर इस देस में राजपाट प्राप्त हुवा और राज पाट प्राप्त करने के पश्चात उस रटन का त्याग कर इस्लाम इस्लाम रटा गया ||

बसुधैव कुटुम्बकं  के अहइँ अर्थ सो नाए |
को बिरान गेह भीते अपने नेम चलाए || ७ ||
भावार्थ : - 'वसुधैव कौटुम्बकं' इस वेदवाक्य का यह अर्थ कदापि नहीं है कि कोई दुसरा आपके गृह में बलपूर्वक प्रवेश कर उसपर आधिपत्य स्थापित करे, उसे खंड-खंड करे, और चार खण्डों में एकमात्र प्राप्य खंड में भी स्वयं के नियम लागू कर आपके अपने वंदन स्थल को प्राप्त करने की चेष्टा करे |


वसुधैव कुटुंबकम के अर्थ अहहिं पुनि येह |
निज निज गेह बसबासत रहँ सब सहित सनेह || ८ ||
भावार्थ : - 'वसुधैव कौटुम्बकं'इस वेदवाक्य का यह अर्थ है ' पृथ्वी एक कुटुंब के समान है' उसमें भारत एक गृह है और इसका भाव यह है कि अपने अपने गृह/देश में निवासित रहते हुवे कुटुंब के समान मधुरता पूर्वक रहें |


दीप बहुरि सो दीप जो उजयारत चहुँ कोत |
मीत बहुरि सो मीत जो कठिन समउ सहुँ होत || ९ ||
भावार्थ : - दीपक फिर वही दीपक है जो अपने प्रकाश से चारों दिशाओं को प्रकाशित करे | मित्र फिर वही मित्र है जो विपरीत परिस्थितियों में भी तुम्हारे साथ रहे |

पहनी रहनी एक रहै सोई संत सुभाए |
पहनी रहनी बिलग किए साधु संत सो नाए || १० ||
भावार्थ : - रहनी और पहनी एक रहे साधू संत का यही स्वभाव है | जिनकी रहनी विलग और पहनी विलग होती है वह साधुसंत न होकर पाखंडी होते हैं |

दए बिन परिचय आपुना माँगे जो मत दान |
दाता तासौं पूछिता का तुहरी पहचान || ११ ||

भावार्थ : - अपना परिचय दिए बिना कोई प्रत्याशी जब मत दान की अभिलाषा कर दाता से मत की मांग करता है तब दाता उससे पूछता है तुम हो कौन ? कहाँ से आए हो.....?

जातपाति कुल धर्म जो मंतर ते मिलि जाए |
होतब जग सब मानसा पसु न को कहलाए || १२ ||
भावार्थ : - यदि मन्त्रों से ही जाति-वर्ण कुल धर्म प्राप्त हो जाते तो संसार में सभी मनुष्य जाति के होते पशु  कोई नहीं कहलाता |

मनुष्योचित धर्म करम नहीं बरन कुल जात |
पसु तेउ गै बिरते सो महा क्रूर कहलात ||
भावार्थ : - जो मनुष्योचित धर्म कर्म (जियो और जीने दो ) का पालन नहीं करते जिसकीजाति-वर्ण कुल धर्म  भी नहीं ( जो उसे इस नियम के पालन हेतु बाध्य करती है) हो, वह मनुष्य पशु से भी इतर महा क्रूर की उपाधि को प्राप्त होते है |






Thursday 15 November 2018

----- ॥पद्म-पद २६ ॥ -----,

   ----- || राग-भैरवी || -----

सोहत सिंदूरि चंदा जूँ रैन गगन काल पे..,
लाल लाल चमके रे बिंदिआ तुहरे भाल पे..,

कंगन कलाई कर पियतम संग डोलते..,
पाँव परे नूपुर सों छनन छनन बोलते..,
छत छत फिरत काहे  दीप गहे थाल पे..,
जब लाल लाल चमके रे बिंदिया तुहरे भाल पे..,

चरत डगरी रोकि रोकि बूझत ए बैन कहे.., 
बिरुझे मोरे नैन सहुँ काहे तुहरे नैन कहे ..,
देइ के पट पाटली भुज सेखर बिसाल पे..,
लाल लाल चमके रे बिंदिया तुहरे भाल पे..,

गुम्फित छदम मुक्ता हीर मनि बल के रे..,
करत छल छंद बहु छन छब सी झलके रे.., 
रिझियो ना भीति केरी मनियारि जाल पे.., 


लाल लाल चमके रे बिंदिया तुहरे भाल पे.....

Wednesday 14 November 2018

----- ॥ टिप्पणी १५ ॥ -----,


>> अरे मूरख मीडिया/नेता यहाँ घर पर देश पर, उसकी अस्मिता शह पड़ी हुई है उसे बचाओ, पीछे विकास और रोजगार के प्यादे दौड़ना.....

>> यदि कोई चीनी जर्मनी इटालियन दो दिन में भारत की नागरिकता लेकर कहेगा कि मेरा धर्म मेरी जाति-गोत्र तिरंगा है मुझे प्रधानमन्त्री बना दो..... आप बना दोगे.....?

>> जिनके हाथों के लोहामयी हल पर
       चमकते प्रस्वेद कणों के बलपर
        दसों दिशाएं ज्योतिर होती थी
         वह किसान कहो कौन थे.....

यह देश सोने की चिड़िया कहलाया

>> यदि ये भारत भूमि हमारे पूर्वजों की जन्म व् कर्म भूमि है तो हम भारतीय है..

>> सत्ता लौलुपी रथ की चाल चले.., 
        लक्ष्य इनके समक्ष कुछ और था.., 
         पक्ष कुछ और था तो विपक्ष कुछ और था.., 
          सत्ता मिलते दोनों एक हुवे.., 
           अब इनका लक्ष्य कुछ और था..... 

>> उद्योगजगत की दासी पत्रकारिता कहती है 'भीड़ बनाएगी क्या मंदिर ?' ये भीड़ भक्तों की है यदि भक्त मंदिर नहीं बनाएंगे तो क्या गौमांस भक्षण करने वाले अध्यक्ष का चुनावी दल मंदिर बनाएगा.....?

>> इंसानी तरक्क़ी में जिंदगी फ़ना हो गई..,
        रह गए चंद महलो-दीवारें बेजान.....

>> सिद्ध कीजिए कि भारत की वैदिक या ब्राह्मणवादी पितृ सत्त्तात्मक व्यवस्था दोषपूर्ण हैं और पाश्चात्यवादी मातृसत्तामक व्यवस्था एक उत्तम सामाजिक व्यवस्था है.....

राजू : - इनकी वाली में व्यवस्था में तो संतान को अपने पिता का नाम ही ज्ञात नहीं होता
 हमारे में माता-पिता के वंशजों के नाम का वंशवृक्ष निर्मित किया जाता है..,

इनकी वाली में केवल पुत्री को माता की सम्पति प्राप्त होती पुत्र को कुछ नहीं मिलता
हमारी वाली में पुत्र को माता-पिता दोनों की और पुत्री को सास-श्वसुर की सम्पति प्राप्त होती है.....


>> पितृ सत्तात्मक व्यवस्था  भारत की अपनी अबाध्य आतंरिक सामाजिक व्यवस्था है यह कोई वैश्विक व्यवस्था नहीं है इसमें अन्यान्य का हस्तक्षेप निंदनीय है.....



>>  अभिनेता भारतीय सामाजिक व्यवस्था को दूषित करने में लगे हैं और नेता उसे विकृत करने में लगे हैं, यदि ऐसा ही चलता रहा तो भारतीयता शेष से अवशेष मात्र रह जाएगी.....



>> जिन्हें स्वयं के अतिरिक्त कुछ दिखाई नहीं देता.., ऐसे लोग अब हमारे देश की दशा व् दिशा के प्रदर्शक बने हुवे हैं.....
बहिरा बैसा कान दे गूंगा राग सुनाए |
अँधा पथ प्रबोधिआ कुचरित चरित बताए ||

>> आस्था के नाम पर चुनावी दल अपना उल्लू सीधा करते रहें क्या इसलिए हमें मतदान करना चाहिए.....?

>> साँच तप अरु दान दया जे कुल चारी मर्म |
    कहत गोसाईं तुलसी होतब सोई धर्म ||
भावार्थ : - गोस्वामी तुलसी दास जी कहते हैं सत्य,तप, दया और दान इन चार मर्म ही धर्म है |

>> जो परस्वामित्व के विकारों को सुधार कर उन्हें यथावत नहीं करते उनको दासत्व स्वीकार्य होता   है..यदि भारत वास्तव में स्वतन्त्र हुवा था तो यह कार्य अंग्रेजों के भारत छोड़ने के पश्चात ही हो जाना चाहिए था.....

>> खेद का विषय है कि सत्तर वर्ष व्यतीत होने के पश्चात भी गांधी-नेहरू से किसी विपक्ष नहीं पूछा कि भारत विभाजन का उद्देश्य क्या था.....

>> सत्तर वर्ष व्यतीत हो गए किन्तु गांधी-नेहरू से किसी विपक्ष ने प्रश्न किया कि यदि अभारतीय मुसलमानों को ही राज देना था तो अंग्रेज क्या बुरे थे.....

>> अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश बनने के पश्चात भी ये मुसलमान भारत की छाँती पर मूंग दलते रहे इन मुसलमानों के लिए इस देस के और कितने टुकड़े होंगे.....


  अभी तक जिन दलों ने इस देश पर शासन किया उन्होंने कांग्रेस के विचारों का ही अनुकरण किया एतएव उनके विचार भी कांग्रेस से पृथक नहीं है इस कांग्रेसी रावण का नाभि कुंड भारत का संविधान है इस देश को प्रतीक्षा है तो केवल एक राम की.....