Monday 12 June 2017

---- || दोहा-एकादश 3 || -----

सासक मिलना सरल है मिलना कठिन किसान |
रक्त सीँच जो आपुना उपजावै धन धान || १ || 

भावार्थ : -- आज शासक सरलता से मिलने लगे है किसान का मिलना कठिन हो गया है कारण कि किसान खेत को रक्त से सींच सींच कर अन्न उपजाता है इसलिए उच्च पदों को प्राप्त होकर सभी नेता-मंत्री बनना चाहते हैं किसान बनना कोई नहीं चाहता |

सासक हटे कछु न घटे जनमे पीछु पचास | 
करषक हटत केत घटत करत असन की आस || २ || 
भावार्थ : -- लोकतंत्र में शासक अथवा राजा के मरने से कुछ भी हानि नहीं होती मृत्यु पश्चात पचासों और शासक जन्म ले लेते हैं किन्तु किसान के मरने से बड़ी हानि होती है  दानों की प्रत्याशा में इसके साथ जाने कितने भूखे ही मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं | लोकतंत्र में चूँकि किसी पैदल को राजा बनना होता है  इसलिए पैदल की सर्वतस रक्षा करना उत्तम है |

अबिलम ताहि संग तजौ दूषत जेहि प्रसंग | 
करतल धरिया कोयरा करिया करिया रंग || ३ || 
भावार्थ : -- लोकतंत्र में शासक बने रहना है अथवा लोकतंत्र को बने रहना है तब दोषपूर्ण व्यक्ति को करतल पर रखे कोयले के जैसे तत्काल त्याग कर देना चाहिए अन्यथा उसका साथ स्वयं को भी कलुषित कर देता है ||

निर्बल की को सुनै नहि सबल लगावै कान | 
ऊँचे सुर जो बोलिया झट तै लेवेँ प्रान || ४ || 
भावार्थ : -- यहाँ निर्बल की कोई सुनवाई नहीं है सबल व् सशक्त की सभी सुनते हैं जिसने ऊँचे स्वर में बात की उसके प्राण हरण कर लिए जाते हैं |

बन मानुष मानुष भयो, करष भूमि करि खेत | 
बहुरि तहाँ बहुराएगा किया न तासों हेत || ५ || 
भावार्थ : --   कर्षण द्वारा भूमि को क्षेत्र में परिवर्तित करके ही मनुष्य वनमानुष से सभ्य हुवा | यदि उसने इसका तिरष्कार किया तब उजड्ड होते हुवे वह पुनश्च वनमानुष बनकर जहाँ से आया था वहीं पहुँच जाएगा  |

जलमन्न अरु सुभाषितं प्रगस रतन कुल तीन | 
भूमि केरे सबहि अर्थ ता बिनु अर्थ बिहीन || ६ || 
भावार्थ : -- 'अन्न, जल व् सुभाषित वचन'  ये तीन वास्तविक रत्न हैं | भौतिक जगत के जीवित पदार्थों में चूँकि अन्न व् जल का सर्वाधिक महत्व है अत: इनसे विहीनित होकर पृथ्वी के सभी धनसम्पति व्यर्थ सिद्ध होती हैं | 

मान भरे मुद्रित धन तू, बोल न ऊँचे बोल | 
सब जग सम्पद तोल लै जब लग तेरा मोल || ७ || 
भावार्थ : -- मुद्रा पर आधारित अर्थ व्यवस्था की दृढ़ता क्षणिक होती है | मुद्रा के अहंकार में कोई गर्व भरी अभिव्यक्ति न करें, जब तक यह मूल्य वान है इसकी क्रयशक्ति तब तक ही होती है |

मुद्रित धन ते भयउ हरे करौ न को अभिमान | 
प्रगस रतन जा कर धरे सोइ जगत धनवान || ८ || 
भावार्थ : -- जीवन को संचालित करने के लिए वास्तविक रत्न महति आवश्यक हैं उसे सुगमता पूर्वक संचालित के लिए अन्यान्य संसाधनों की आवश्यकता होती है मुद्रा स्वयं में साध्य न होकर इन संसाधनों को प्राप्त करने का साधन मात्र है;एतएव जो केवल मुद्राधारित अर्थ प्रबंधन से सुविधा सम्पन्न हैं उन्हें अपनी धनमत्ता का अभिमान नहीं करना चाहिए क्योंकि संसार में वही धनवान है जिसके पास जल, अन्न व् सुभाषित वचन है |

जोइ सजीवन रूप में साधन साधक सोइ | 
जिउ जगत निरजीउ करे सो तो बाधक होइ || ९ || 
भावार्थ : -- पृथ्वी में कुछ अद्भुद है तो वह जीवन है 'नतरु भगवन तेरा यहु पाहन का संसार' अन्यथा ब्रह्माण्ड पत्थरों का संसार के अतिरिक्त कुछ नहीं है | एतएव जो जीवन के संचालन में संजीवनी का कार्य करे वह संसाधन साधक हैं | जो प्राणि जगत को निष्प्राण करे वह साधन जीवन के संचालन में बाधा उत्पन्न करते हैं |

बाधक साध न कीजिये यह तो छ्दम बिकास | 
आपद को बुलाई के तासों होत बिनास || १० || 
भावार्थ : -- प्रकृति के संचालन में बाधा उत्पन्न करने वाले संसाधनों को साधन न करें इन साधनों द्वारा किया गया विकास छलावा है, यह आपदाओं को निमंत्रण देकर विनाश का कारण बनता है ||

तीनि प्रगस मुकुता मनिक रहेउ न जो सजोइ | 
नित कर जोरि मनाइये परे न आपद कोइ || ११ || 
भावार्थ : --  जिसने पृथ्वी के वास्तविक रत्नों को संकलन नहीं किया है, वह देश नित्य प्रार्थना करे उसपर कोई आपदा न आए ||



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