Thursday 1 October 2015

----- ।। उत्तर-काण्ड ४१ ।। -----

बृहस्पतिवार, ०१ अक्तूबर, २०१५                                                                    

ममहय हेरे हेर न पायो । कतहुँ तोहि कहु दरसन दायो ॥ 
काज कुसल बहु हेरक मोरे । गयऊ मग मग मिलिहि न सोरे ॥ 
देवर्षि ! सर्वत्र शोध लिया किन्तु मेरे अश्व की कहीं थाह न मिली | क्या वह आपको कहीं दर्शित हुवा है ? यद्यपि मेरे गुप्तचर कार्यकुशल हैं उन्होंने पथ पथ का अनुसंधान किया किन्तु उसका भेद नहीं मिला | 

नारद बीना बादन साथा । गाँवहि रूचि रूचि भगवन गाथा ॥ 
राम राम जप कहँ सुनु राऊ । अहँ  नगर यह देउपुर नाऊ ॥ 
नारद जी वीणा वादन के संगत अत्यंत भक्तिपूर्वक भगवद्गाथा का गायन करने लगे, तदनन्तर राम नाप का जप करते हुवे उन्होंने कहा सुनिए महाराज ! इस नगर का  नाम देवपुर है |  

तहँ जग बिदित बीर मनि राजा । बैभव बिभूति संग बिराजा ॥ 
तासु तनय बिहरन बन आइहि । हिंसत हय सहुँ बिचरत पाइहि ॥ 
यहाँ जगद्विख्यात राजा वीरमणि पृथ्वी की समस्त वैभव विभूति के साथ राज करते हैं | उनका तनुज वन विहार हेतु आया है जो हिनहिनाते अश्व के साथ विचरण करते दर्शित हुवा है | 

हरन हेतु सो गहे किरन कर । समर करन लिए गयौ निज नगर ॥ 
नयन धरे रन पथ महराजू । अजहुँ राउरहु समर समाजू ॥ 
हरण के उद्देश्य से कदाचित उसने ही अश्व की किरणे ग्रही हैं और (मस्तक पर आबद्ध पत्रिका पढ़कर ) संग्रामकरण हेतु वह अपने नगर को प्रस्थित हुवा है देवपुर के महाराज वीरमणि युद्ध के लिए प्रतीक्षारत हैं अब आप भी संग्राम हेतु कटिबद्ध हो जाएं | 

गह बल भारी देइँ हँकारी बर भट समर ब्यसनी । 

ब्यूहित जूह सहित समूह सों  सैन सब भाँति बनी ॥  
अतिकाय अनिक  करिहि गर्जन धनबन घन सम  गाजिहैँ । 
होइ धमाधम नग बन सो जुझावनि बाजनि बाजिहैं ॥ 
 वीरमणि का व्यूह से युक्त सैन्य टुकड़ियां सभी सामग्रियों से सुसज्जित है  संग्राम प्रिय, परम श्रेष्ठ योद्धा भारी दलबल के संगत ललकारने रहे हैं | भारीभरकम सैन्य पंक्ति आकाश में मेघों के समान गर्जना कर रही है  | उनके द्वारा युद्ध के शंखनाद से वन पर्वत प्रतिध्वनित हो रहे है | 

कवलन काल पुकारिया समर बिरध बलबीर । 
राजन धनुधर रनन सर कास लियो कटि तीर ॥ 

संग्राम वीरों को काल ग्रास हेतु पुकार रहा है राजा ने भी धनुष धारण कर संग्रामकरण हेतु अपने कटितट पर बाण कस लिए हैं | 

शुक्रवार,०२ अक्तूबर, २०१५                                                                                    

अतएव जोग जुझावन साजू । पूरनतस तुम रहौ समाजू ॥ 
रहिहउ अस्थित भू सहुँ जूहा । रचइत सुरुचित सैन ब्यूहा ॥ 
एतएव सभी योग्य योद्धाओं से सुसज्जित होकर आप भी संग्राम हेतु पूर्णतः तैयार रहे और अपने सैन्य समूह की सुरुचित व्यूह रचना कर रणभूमि पर  दलबल के साथ स्थित  रहें  | 

ब्यूहित जूह रहए अभंगा । प्रबसि होए न केहि के संगा ॥ 
बाहु बली बहु बहु बुधवंता । अहहीं एकसम प्रतिसामंता ॥ 
सैन्य व्यूह अभंग हो उसमें किसी के द्वारा प्रविष्टि न हो  | बाहु बलियों व् बुद्धिवंत की बहुलता से युक्त प्रतिपक्ष भी आपके समतुल्य है | 

नाहु बाहु जस सिंधु अपारा । अंतहीन जल सम बल घारा ॥ 
तापर बहु बाँकुर अवरूढ़े । पार न भयउ गयउ सो बूढ़े ॥ 
राजा वीरमणि की भुजाएं सिंधु  के समान हैं जिसमें बल का अंतहीन जल समाहित है | उक्त सिंधु में बहुतक वीर उतरे किन्तु उसे पार करने में असमर्थ वह सभी अवगाहित हो गए | 

एहि हुँत तासहु सुनु मम भाई । परिहि जुझावन अति कठिनाई ॥ 
तद्यपि तुम सत धर्म अचारी । होहि जयति जय श्री तुम्हारी ॥ 
इस हेतु हे मेरे भाई ! वीरमणि से आपको संघर्ष करना अत्यंत कठिन होगा तथापि  विजय श्री आपकी ही होगी कारण कि आप सद्धर्म आचारी हैं | 

जगभर में अस बीर न होई । सके जीत भगवन  जो कोई ॥ 
भगवन के अस करत बखाना ।नारद भयउ  अंतरधियाना ॥ 
जगत में ऐसा कोई वीर नहीं जो भगवान श्रीराम पर विजय प्राप्त कर सके | इसप्रकार  भगवान श्रीराम का व्याख्यान करते हुवे महर्षि नारद अंतर्ध्यान हो गए | 

 दुहु दल के संग्राम भए देवासुर संकास । 
ताहि बिलोकन देवगन हरष ठहरि आगास ॥ 
दोनों पक्षों का  भयंकर संग्राम देव व् असुर के समान होने लगा |इस कौतुहल के दर्शन हेतु देवगण आकाश में स्थित  हो गए | 

शनिवार, ०३ अक्तूबर, २०१५                                                                                

इहाँ अतिबलि बीर मनि राई । रिपुवार नाउ अनिप बुलाई ॥ 
हनन ढिंढोरु आयसु दाए । चेतन नागरी नगर पठाए ॥ 
इधर अत्यंत बलवान राजा वीरमणि ने रिपुवर नामक  सेनापति को बुलाकर उसे नागरिकों को युद्ध के शंखनाद की सुचना देने एवं उन्हें सचेत करने  की आज्ञा देकर नगर में भेजा  | 

बीथि बीथि जब हनि ढिंढोरा । करिए गुँजार नगर चहुँ ओरा ॥ 
घोषत जो कछु बचन कहेऊ । तासु गदन एहि भाँति रहेऊ ॥ 
वीथि वीथि  में जब डंके पर चोट पड़ने लगी तब वह नगर के चारों ओर प्रतिध्वनित होने लगा, युद्धोंद्घोषणा  में जो कुछ कहा गया उसका विवरण इस प्रकार था : -   

गहे बिकट जुव भट समुदाई । कहि न सकै सो दल बिपुलाई ॥ 
जूह बांध बहु जोग निजोगे । बधि हय लहन जुझावन जोगे ॥ 
विकट युवा सैन्य समूह से युक्त शत्रु दल की विपुलता अनिर्वचनीय है उनकी सैन्य संरचना में  नियोजित सैनिकों का  योग अत्यधिक है  जो विबन्धित अश्व को प्राप्त करने हेतु संघर्ष के सर्वथा योग्य हैं | 

रघुकुल भूषण राजन जाके । सैनाधिप लघु भ्राता ताके ॥ 
अहहि नगर जो को बलि जोधा । समाजु सो सब भिरन  बिरोधा ॥ 
रघुकुल के विभूषण उनके राजा हैं उनके लघुभ्राता ही सेनापति हैं | नगर में कोई बलवंत योद्धा है वह शत्रु से भिड़ंत हेतु उसके विरोध के लिए तैयार रहे | 

वादित श्रोता गन मध्य  भयऊ  अस निर्वाद । 
कर सूचि निपातहि महि करहि सोए निह्नाद ॥ 
इस प्रकार उद्घोषणा कर  श्रोता गण के मध्य उद्घोषक के निर्वाक होते ही वहां ऐसी शांति छा गई कि हाथ से सूचि यदि भूमि पर गिरे तो वह भी शब्द करने लगे | 

रविवार, ०४ अक्तूबर २०१५                                                                                          

जेहि केहि बलबन अभिमाना । परम बली जो आपन जाना ॥ 
राजायसु लाँघिहि जो कोई । सो नृप सुत भ्राता किन होई ॥ 
( फिर उद्घोषक ने कहा )  स्वयं को परमबलि जानकर अपनी  वीरता के अहंकार में जो कोई राजाज्ञा का उल्लंघन करेंगे वह राजपुत्र अथवा भ्राता ही क्यों न हों   : - 

दोषारोपित राज बिद्रोही । सो सब निर्बुधि  बध जुग होंही ॥ 
पुरजन मति जब कछु नहि  लेखे ।  नयन जुहार एक एकहि देखे ॥ 
 वह सब देशविद्रोही के दोष से आरोपित किया जाएगा और उन निर्बुद्धियों को वध के योग्य संज्ञापित किए जाएगा | नगरजनों की बुद्धि में जब कुछ भी पाले नहीं पड़ा तब वह प्रतीक्षापूरित नेत्रों से एकदूसरे की ओर विलोकने लगे  | 

बहुरि बहुरि रन भेरि हनाईं । निगदित गदन गयउ दुहराईं ॥ 
सुनौ बीर अस सुनि अतुराई । रहें करक निज करतब ताईं ॥ 
 रण उद्घोषणा का डंका वारंवार बजाकर उपरोक्त कथनों को दोहराया गया : - सुनो वीर ! ऐसा श्रवण कर तुम अपनी कर्तव्य के प्रति निष्ठावान होकर युद्ध हेतु आतुर रहो | 

यह राजग्या लाँघे  न कोए  । आयसु पालन बिलम नहि होए ॥ 
नरबर नृप कर भट बलबाना । घोषित बचन सुने जब काना ॥ 
इस राजाज्ञा का कोई भी उल्लंघन न करे और राजादेश के पालन में विलम्ब न हो | नरश्रेष्ठ  वीरमणि के बलवान योद्धाओं ने जब उद्घोषित वचन सुने 

कर धनुधर कटि सर सजी काया कवच सुहाहिं । 
मन महुँ भरे रन रंजन, गवने भूपति पाहि ॥ 
तब हाथों में धनुष और करधन में वाणों को सुसज्जित कर देह को उन्होंने रक्षाकवच से सुशोभित किया मन को युद्ध उत्कंठा से आपूरित कर वह राजा वीरमणि के पास गए | 

सोमवार, ०५ अक्तूबर, २०१५                                                                                  

मान समर मह परब समाना । आए बीर भट भरि भरि बाना ॥ 
उरस  उदधि भए हरष तरंगा । उमग उमग उम परस उतंगा ॥ 
संग्राम को महापर्व के समान मानकर वह सभी वीर योद्धा बाणों से आपूरित  होकर आए | हृदय के सिंधु में हर्ष की तरंगे उठने लगी वह उमड़ उमड़ कर आकाश को स्पर्श करने हेतु उत्तोलित होने लगी | 

करे अँदोरि भीड़ अति भारी । राजिहि रज रज राज दुआरी ॥ 
तुरग तूल तुर रथ संचारा । आए बेगि पुनि राज कुमारा ॥ 
वहां उमड़ी भारी भीड़ कोलाहल करने लगी ,  उनके चरण चाप से राजद्वार पर धूल के कण विराजित हो चले,  मन के जैसे तीव्रगामी रथ का संचारण करते शीघ्र ही राजकुमार भी वहां उपस्थित हुवे | 

कला कलित कलाप के पूला । गह रत्ना भूषन बहु मूला ॥ 
कर धर खडग कवच कर गाता । सुभाङ्गद नाऊ लघु भ्राता ॥ 
सुभाङ्गद नामक उनके लघुभ्रात भी शरीर पर कलामयी कृति किए मुक्ता समूह व् बहुमूल्य रत्नाभूषणमय कवच व् हस्त में खड्ग धारण किए : - 

करे पयान प्रान परहेला । कीन्हि अतुरि रन परब समेला ॥ 
बीर सिंह भूपति के भाई । आजुध बिद्या महुँ कुसलाई ॥ 
अपने प्राणों की अवहेलना करते हुवे रणोत्सव में सम्मिलित होने के लिए आतुरतापूर्वक रणभूमि की ओर प्रस्थित हुवे | राजा वीरमणि के भ्राता थे वीरसिंह जो आयुधविद्या में अत्यंत कुशाग्र थे | 

अस्त्र सस्त्र सो सबहि बिधाना । लच्छ सिद्धि कर गहै ग्याना ॥ 
राजग्या अनुहारत सोई । राज दुआरी राजित होई ॥ 
वे सब भांति के शस्त्रास्त्र के संचालन कुशल थे लक्ष्य सिद्धि का उन्हें विशेष ज्ञान था | वह भी राजाज्ञा का अनुपालन करते हुवे राजद्वार पर उपस्थित हुवे | 

महाराज के राज में दए आयसु अस होइ । 
बिपरीत मति होत ताहि लाँघ सकै नहि कोइ ॥ 
महाराज के राज्य में दिया गया आदेश इस प्रकार से था कि विपरीत बुद्धि होकर कोई उसका उल्लंघन नहीं कर सकता था | 

मंगलवार, ०६ अक्तूबर २०१५                                                                        

भूपति केरि बहिनि कर तनुभौ । आन सोउ हेले रन उत्सौ॥ 
पुरजन हो चह परिजन कोई । अदुति बिक्रम बल बीर सँजोई ॥ 
महाराज की भगिनी का पुत्र भी उस रणोत्सव का प्रतिभागी बनने हेतु उपस्थित हुवा | पुरजन हो चाहे कोई परिजन सभी वीर अद्वितीय  पराक्रम व् बल से युक्त थे | 

चतुरंगिनि बर कटकु बनाईं । गयउ अनिप नृप पाहि जनाईं ॥ 
सबहि भाँति गह साज समाजा । तदन्नतर  चढ़ि ध्वजी अधिराजा ॥ 
सेनापति रिपुवार ने सेना के चारों अंगों को भलीभांति सुसज्जित किया और महाराज के पास जाकर इसकी सुचना दी  सभी प्रकार की सैन्य सामग्रियों से सुसज्जित होकर  तदनन्तर महराजधिराज वीरमणि  रथ पर आरूढ़ हुवे | 

ऐसेउ को आयुध न होहीं  । जुगावनि  जोइ राउ न जोहीं ॥ 
रचित मनोहर मनि बहु रंगा । चरिहि चरन जिमि गगन बिहंगा ॥ 
ऐसा कोई आयुध नहीं था जो राजा के सैन्य योग में संकलित न हो | बहुरंगी मनोहारी मणियों से रचित ( रथ के ) चरण ऐसे चल पड़े जैसे वह गगन में उड़ते विहंग हों | 

कहे सरन रहुँ ऊँचहि ऊंचे । रहउँ तहाँ जहँ रज न पहूँचे ॥ 
बाजिहि मधु मधुर मंजीरा । पुरयो सप्तक सुर दुहु  तीरा ॥ 
वीथिका से यह कहते हुवे  कि  मैं  उतंग ही चलूँगा और वहां जा रहूंगा जहाँ मुझतक धूल का कोई कण भी न पहुंचे | मंजीरे मधुर मधुर स्वर में निह्नादित हो उठे, दोनों ही पक्ष सप्त स्वर की ध्वनि करने लगे | 

बजावनहार बजावहि बाजनि बहु चहुँ फेरि । 
दसहु  दिसा गुँजारत पुनि उठी रन भेरि ॥ 
वादक बहुतक वाद्ययंत्रों के सांगत रणभूमि परिक्रमा कर वादन करने लगे तदनन्तर दसों दिशाओं में  रणभेरी गूँज उठी  | 

बुधवार,०७ अक्तूबर, २०१५                                                                                

गहन रूप बाजत रन डंका । चले कटकु सन अगनित  बंका ॥ 
हेल मेल पथ चरनन धरायो  । धूसर घन सों गगन अटायो ॥ 
रण डंका गंभीर ध्वनि कर रहे थे,  असंख्य रणवीर सेना के साथ प्रस्थित हुवे  वह एक चरण ताल के साथ पथ पर चल रहे थे उनकी इस चाल से उतिष्ठ धूलिका रूपी घन से  गगन व्याप्त हो गया हो | 

सबहि कतहुँ घन घन रव होई । कहैं एकहि एक सुनै न कोई ॥ 
उरस हरष मन जुगत उछाहा । नियरत रनाङ्गन नरनाहा ॥ 
सभी ओर अति गम्भीर ध्वनि गूँज रही थी कोई एक दूसरे को वार्ता कहता तो वह उसे सुनाई नहीं देती  | रणांगण के निकट आते ही नरश्रेष्ठ वीरमणि का हृदय हर्ष व् मन उत्साह से पूरित हो गया | 

जिन सों कतहूँ  सस्त्रि  न अंगा । सिद्ध हस्त अस रथी प्रसंगा ॥ 
जनपालक कर सैन समूची ।गर्जत घन  रन भूमि पहूँची ॥ 
जिनके जैसे शस्त्र शास्त्री व् सैन्य विभाग कहीं नहीं है ऐसे सिद्धहस्त रथियों के साथ देवपुर के उक्त नरेश की समूची सेना घनघोर गर्जना करते हुवे रणभूमि पहुंची | 

धुर ऊपर घन धूर गहायो । नीच गहन  कोलाहल छायो ॥ 
राउ अनी आगम जब देखे । सत्रुहन सुमति सोंह कहि लेखे ॥ 
ऊपर धूल के बादल और नीचे गहन कोलाहल व्याप्त हो गया था राजा की सेना के आगमन पर दृष्टिपात कर शत्रुध्न ने सुमति से कहा : - 

गहे जोइ मोरे बर बाहू । आएँ लिए निज सैन सो नाहू ॥ 
'मंत्रिवर !' जिसने मेरे श्रेष्ठ अश्व को विबन्धित किया  है वह बलवान राजा वीरमणि अपनी अनी को ले आए है |  

गहे हस्त समरोद्यत बँधे माथ कर पाँति । 
ता सोहि मुठ भेटौँ मैं कहौ सुबुध किमि भाँति ॥ 
हस्त में अश्व के मस्तक पर बंधी पत्रिका ग्रहण किए ये संग्राम हेतु उद्यत हैं | कहिए इनके साथ में किस भाँती भिड़ंत करूँ | 

बृहस्पतिवार, ०८ अक्तूबर, २०१५                                                                      

हमरे पहिं भट को को होइहि । जोगु समर जुझावन जोइहि ॥ 
बुधिबल सकिअ रिपु संग जयना ।जोग जोख करिहौ अस चयना ॥ 
हमारे पास कौन कौन से योद्धा हैं जो इस महासंग्राम के योग्य हैं  | जो बुद्धवंत हो और शत्रु पर विजय प्राप्त करने में समर्थ हो,  ऐसे योग्य वीरों का भलीभांति परिक्षण कर तदोपरांत उसका चयन करो | 

चुनत तुरति अनुसासन दीजौ । सुनहु सखा अब बिलम न कीजौ ॥ 
बोलि सुमति हे मम गोसाईं । अस तो सबहि गहे कुसलाईं ॥ 
हे सखे ! अब और अधिक विलम्ब न करो |चयन  पश्चात तत्काल ही उन्हें युद्ध की आज्ञा दो |   तब सुमति बोले : - 'स्वामी ! ऐसे तो सभी वीर रण कौशलता से युक्त हैं | 

पुष्कल महा बीर मैं बीरा । जोग जुधान रतन में हीरा ॥ 
आयुध बिद्या महुँ बिद्बाना । घात करन में परम सुजाना ॥ 
उनमें पुष्कल वीरों के भी वीर हैं वह रत्नों में हीरा है और शत्रु से लोहा लेने के सुयोग्य हैं | आयुध विद्या में विद्वान व् शत्रु पर आघात करने में तो वह परम प्रवीण हैं | 

नील रतन सम  अबरु ग्याता । सस्त्रीबर बहु कुसलाता ॥ 
महामहिम  के जो मन भाईं । समर बीर सो करिहि लड़ाई ॥ 
उनके समकक्ष एक आयुधज्ञाता नील रत्न भी हैं वह महान शस्त्रविद व् अत्यधिक कुशल है | अब महामहिम को जो रुचिकर लगे वह समरवीर शत्रुदल से लोहा लेगा  | 

महाराज बीर मनि अरु गंगाधर सहुँ  होहिं । 
नाथ बयरु तुम कीजियो अगुसर ताही सोहि ॥ 
प्रतिपक्ष में हमारे समक्ष  महाराज वीरमणि और गंगाधर,हैं हे नाथ ! उनके साथ आप स्वयं अग्रसर होकर  युद्ध करें तो उत्तम होगा 

शुक्रवार, ०९  अक्तूबर, २०१५                                                                                      

सो महिपाल काल सम बीरा । अमित बिक्रम  अति अति रनधीरा ॥ 
अहहीं चतुर तुम्हारिहि नाईं । द्वंद युद्ध भा एकु  उपाई ॥ 
वह महिपाल काल के समान वीर है असीमित पराक्रम से युक्त वह महा महा रणधीर हैं | और उनमें आपके जैसा ही रणचातुर्य है उनसे सामना करने का एक ही उपाय है वह है द्वंदयुद्ध | 

भिरत समर सो भूपत तुम्हहि । जितिहहु तामें किछु संसय नहि ॥ 
अबरु उचित तुअ जनि मन जैसे । करिहौ हित कृत करतब तैसे ॥ 
भिड़ंत करते हुवे  उन नरपाल  पर आपको  ही विजय प्राप्त होगी  इसमें किंचित भी संदेह नहीं है | महाराज! और जैसा आपका मन  उचित समझे आप वैसा ही हितकारी कर्तव्य करें | 

तुम्ह स्वयमहु परम सुजाना । खेत करन गह सबहि ग्याना ॥ 
सुनत बचन एहि सुमिरत रामा । प्रतिद्वंद्वी कर दल दामा ॥ 
आप तो स्वयं ही परम विद्वान एवं संग्राम की सभी कलाओं  में सिद्ध हैं | सुमति के ऐसे  वचन श्रवण कर प्रतिद्वंदी दल का दमन करने वाले शत्रुध्न ने भगवान श्रीराम का स्मरण किया 

रन जुझावन संकलप लेई । भिरन बीर अनुसासन देईं ॥ 
प्रतिपालत कहि निज नरनाहा । समरु कुसल उर भरे उछाहा ॥ 
रण में संघर्ष का संकल्प लिया और अपने वीर योद्धाओं को रणारम्भ का आदेश दिया | अपने राजा के आदेश का प्रतिपालन करते हुवे उन संग्राम कौशल्य योद्धाओं का ह्रदय उत्साह से भर गया | 

अनी अगन आयसु पवन भट भट भए  चिङ्गारि । 
धू धू करत ताप धरत , समर भूमि पद धारि ॥ 
फिर सेना ज्वाला हुई आदेश पवन हुवा और सभी सैनिक ज्वलन कणिकाओं के सदृश्य हो गए वह धू धू कर शत्रुपक्ष को संताप देते समर भूमि में प्रविष्ट हुई | 

शनिवार, १० अक्तूबर, २०१५                                                                               

कटि सर षंड कोदंड हाथा । भयउ गोचर सबहि एक साथा ॥ 
सुभट नयन उठि लखे दिवाकर । छाँड़ निषंग चढ़े जीवा सर ॥ 
करधन में बाण समूह, हस्त में कोदंड लिए वह सभी एक संगत  दृष्टिगोचर हो रहे थे | सूर्य दर्शन हेतु उधर वीर योद्धाओं के नेत्र उठे इधर बाण तूणीर को छोड़ प्रत्यंचा पर आरोहित हो चले  | 

चले आतुर झूँड के झूँडा । लगिहि चरन उर सिर भुजदंडा ॥ 
प्रदल खलभल केहि नहि लाखा । भयऊ पल महि बिकल बिपाखा ॥ 
झुण्ड के झुण्ड सैनिक द्रुतगति से चल पड़े, चलते हुवे  उनके चरण ह्रदय को व् हाथ मस्तक को स्पर्श कर रहे थे |  बाणों ने भला बुरा किसी को नहीं देखा उनके प्रहार से विपक्ष क्षण में ही व्याकुल हो गया | 

छन महुँ  बहुतक बीर बिदारे । त्रासित हा हा हेति पुकारे ॥ 
सुने जब निज सेन संहारा । मनिरथ राजित राज कुमारा ॥ 
पलक झपकते ही उन्होंने अनेकानेक  वीरों को विदीर्ण कर दिया प्रतिपक्ष त्रसित हो त्राहि-त्राहि कर उठा | अपनी सेना संहार की सूचना प्राप्त कर राजकुमार रुक्मांगद मणिमय रथ में विराजित होकर 

दुति सम गति गत आयउ आगे । ताके कर सर सरसर भागे ॥ 
चले गगन जिमि पुच्छल पूला । होए  दुनहु दल तूलमतूला ॥ 
विद्युत् की सी गति से सेना के सम्मुख अग्रसर हुवा उसके  हाथ से सरसराते हुवे बाण आकाश में ऐसे चले जैसे पुच्छल (तारे )का समूह चला आ रहा हो  | 

चढ़े घात निपात नेक सुभट ब्याकुल होए । 
त्राहि त्राहि गुहार करे हा हा करि सब कोए ॥ 
फिर तो अनेकानेक वीर योद्धा उन बाणों के घात चढ़कर उद्दिग्न हो उठे | हा हा करते वह सब रक्षा की गुहार  करने लगे | 

रवि /सोम , ११ /१२  अक्तूबर, २०१५                                                                                 

बल जस सम्पद माहि समाना ।रुक्माङ्गद निज जोरि जाना ॥ 
पचार सत्रुहन भरत कुमारा । समर हेतु घन गरज पुकारा  ॥ 
रुक्मांगद ने बल, यश व् सम्पति में समानता धारण करने वाले शत्रुध्न व् भरत कुमार पुष्कल को अपना प्रतिद्वंद्वी संज्ञान कर उन्हें संग्राम हेतु घोर गर्जना द्वारा ललकारते हुवे कहा : - 

कोटि कोटि भट कटक बिडारे । न जान केतक गयऊ मारे ॥ 
निर्बल घात करिहौ प्रहारा । धिग धिग धिग पौरुष तुम्हारा ॥ 
 'तुम्हारी सेना  ने करोड़ों करोड़ों सैनिकों को हताहत कर दिया, न जाने कितने ही का वध कर दिया | निर्बल पर घात लगाकर  प्रहार करते हो ? धिक्कार है तुम्हारे पौरुष पर ! 

तासु मरन कछु लाह न होहीं । बीर रतन करु रन मम सोहीं ॥ 
सूर बीर बीरहि सहुँ सोहा । बिपरीत चरन बीर न होहा ॥ 
उनकी वीरगति से तुम्हें कुछ लाभ नहीं होगा वीररत्न !  मुझसे युद्ध करो ! शूरवीर वीरों से ही युद्ध करते शोभा देते हैं इससे विपरीत आचरण करने वाले वीर नहीं होते | 

सुनि रुक्माङ्गद के पचारा । सूरबीर पुष्कल हँस पारा ॥ 
छाँड़ बेगि पुनि सर संघाती । राजकुँअर करि  भेदिहि छाँती ॥ 
 राजकुमार रुक्मांगद की ललकार सुनकर शूरवीर पुष्कल हंस पड़े | तत्पश्चात अविलम्ब  तीक्ष्ण बाणों का प्रहार कर और राजकुमार के हृदय भवन का भेदन कर दिया | 

मर्म अघात परत भूमि उठत बहुरि अतुराए । 
 धरि भू चरन सरासन रसन खैचत श्रवन लगाए ॥ 
मर्म पर आघात होने से वह भूमि पर गिर पड़ा फिर तत्काल ही उतिष्ठित होकर उन्होंने चरण स्थित किए और  सरासन से प्रत्यंचा खैंचते हुवे कानों से संयुक्त कर लिया | 

मंगलवार, १३ अक्तूबर २०१५                                                                                   

भयउ ज्वाल कोप सो भारी । बदन अंगीरि नयन अँगारी ॥ 
करक दरस दस सायक बाढ़े । आत सहुँ रिपु घात पर चाढ़े ॥ 
अत्यधिक कोप ने ज्वाला का रूप धारण कर लिया जिससे उसका मुख मानो अंगीठी व् नेत्र अंगारे हो चले थे | कठोर दृष्टि करते दस सायक आगे बढे शत्रु के समीप आते ही वह घात पर चढ़ गए | 

धकरत पुष्कल उरस दुआरी । धँसे भीत पट देइ उहारी ॥ 
करिहि एकहि एक कोप अपारा । दोउ ह्दय चहि जय अधिकारा ॥ 
पुष्कल के ह्रदय द्वार को ठेलते हुवे उसे पटल से अनावृत कर वह बाण उनके अंतस में समाहित हो गए |  एकदूसरे के अपार कोप के भागी बने हुवे दोनों ही विजयश्री के हृदय पर अधिकार प्राप्त करने को अभिलाषित थे | 

देत बहोरि घात पर घाता । रुकमाङ्गद कहे अस बाता ॥ 
समर बीर प्रचंड बल तोरे । देखू अमित पराक्रम मोरे ॥ 
तदनन्तर आघात पर आघात करते रुक्मांगद ने यह वचन कहे : - 'संग्रामवीर ! तुम्हारा बल प्रचंड है, अब मेरा असीमित पराक्रम के दर्शन करो | 

राजित रथ रहिहौं रसि कासा । अजहुँ तोर रथ उरिहि अगासा ॥ 
अस कहत कछु मंत्र उचारेसि  । बहुरि भँवरकास्त्र  देइ मारेसि ॥ 
रश्मियाँ कर्षित किये मैं अपने रथ पर ही विराजित रहूँगा, अब तुम्हारा रथ आकाश में उड्डयित होगा | ऐसा कहते उसने कुछ मन्त्र उच्चारण किए फिर भ्रामकास्त्र नामक अस्त्र से प्रहार किया | 

हतत रथ दृढ चरन घुरमायो  । एक जोजन पुर दूर गिरायो ॥ 
सारथिहि लाइ जुगत थिरावा  । तदपि पहुमि माहि चिक्करावा ॥ 
उस प्रहार से रथ क्षतिग्रस्त हो गया, उसके सुदृढ़ चरण घूर्णन करने लगे एवं वह एक योजन दूर जा गिरा | सारथी ने बहुंत युक्तिपूर्वक रथ को स्थिर किया तथापि वह पृथ्वी पर घूर्णन करता ही रहा |  

सँभारत रथ भरत तनय किए थिर केहि बिधान । 
गिरत परत पुनि लेइ गत  पूरबबत अस्थान ॥ 
रथ को संयत करते भरत तनय उसे किसी भाँती स्थिर करने में सफल रहे | ततपश्चात गिरते-पड़ते वह उसे पूर्ववत स्थान पर ले गए | 

बुधवार, १४ अक्तूबर २०१५                                                                                  

 सस्त्रास्त्र के सकल ग्याता । छोभत बहुरि कहब एहि बाता ॥ 
कुँअरु ए महि तव जोग न होहीं । चाहिब सुरप सभा बसि तोही ॥ 
शस्त्रास्त्रों के सम्पूर्ण ज्ञाता ने फिर क्षुब्ध होते हुवे यह वचन कहे : - राजकुमार ! ये रण भूमि तुम्हारे योग्य नहीं है तुम्हें  तो इंद्र की सभा का सदस्य होना चाहिए | 

एहि हुँत इहँ ते होत निकासा । देउलोक अब करहउ बासा ॥ 
प्रकोपत बहु कोप के साथा । बहुरि कठिन कर धनु धर हाथा ॥ 
इसलिए अब यहाँ से निष्कासन कर देवलोक में निवास करो | इस प्रकार अतिशय कोप प्रकोप करते फिर पुष्कल ने एक कार्मुक हस्तगत किया | 

उपार पथ रथ गगन उड़ायक । छाँड़त रसन तेहि मह सायक ॥ 
धावत तेजस धुर महुँ धाँसा । छतत धुरी रथ  चला अगासा ॥ 
और पथ से रथ के चरण उखाड़कर उसे आकाश में उड़ाने  हेतु सक्षम महासायक को प्रत्यंचा से मुक्त किया | वह सायक तीव्रता पूर्वक दौड़ते रथ के चरण की धुरी में जा धँसा | धुरी के क्षतिग्रस्त होने से फिर वह रथ आकाश की ओर चल पड़ा | 

गहत घात  रथ भयउ नभोका । गयउ उड़त लाँघत सब लोका ॥ 
पैठत महिरु मण्डलु माला । डपटत  लपटि प्रचंड ज्वाला ॥ 
इस प्रकार गहन आघात पड़ने वह रथ नभचर के सदृश्य हो गया और सभी लोकों उलाँघते वह उड्डयन करता हुवा  सौर मंडल की परिधि में प्रविष्ट हो गया | वहां की प्रचंड ज्वाला ने सरपट दौड़ते हुवे उसे अपने वश में कर लिया  | 

ज्वाल माल महकाल सम बहु बिकराल सरूप धरे । 

फुंकरत जिमि ब्याल बेताल बहु बहु शृगाल सब्द करे ॥ 
हय सारथि सहित जारत सकल भए बहुतहि भयावहे । 
बिलोकत उडुगन कहँ बिकट दहँ स्यंदन त गगन दहे ॥ 
ज्वाला की लपटें जैसे साक्षात महा काल थी  अत्यधिक विकट रूप धारण कर फिर वह ऐसे फुफकारने लगी जैसे बहुंत से सर्प सिंह आदि हिंसक जंतु शब्द कर रहे हों |  हस्ती व् सारथी सहित समूचे रथ को दग्ध करते हुवे वह अतिशय भयावह प्रतीत हो रही थी | इस दहनकांड को दर्श कर  नक्षत्र  भी कह उठे  कि रथ के इस दाह ने तो मानो आकाश को ही दग्ध कर दिया है  | 

दहत सोहि दिनमान , कुँअरहु संतापित भयौ । 
परि साँसत मैं प्रान त त्रासत त्राहि त्राहि किए ॥ 
सूर्य की ज्वालकिरण द्वारा विदग्ध राजकुमार के प्राण कंठ में आ गए फिर  वह त्रसित  होकर त्राहि-त्राहि करने लगा  | 


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