Monday 1 June 2015

----- ॥ उत्तर-काण्ड ३२ ॥ -----

शुक्रवार ०१ मई, २०१५                                                                                                     

दरसै चहुँ दिसि काल सरुपा । अन गन उत्कट दनुज कुरूपा ॥ 
नंग धडंग छाम छित केसा । बिडालित नयन बदन कलेसा ॥ 
चारों दिशाओं में काल स्वरूप उग्र दंष्ट्र के सह अनगिनत भयंकर दैत्य दिखाई देने लगे । वे सभी छित्रित केश लिए नंग-धडंग अवस्था में थे उनकी लोचन विडाल के सरिस व् उनके  बोल पीड़ा देने वाला था ॥ 

को मुख हीं बिपुल मुख काहू । बिनु पद कर को बिनु पद बाहू ॥ 
बिपुल नयन को नयन बिहीना । रहेउ एकु एकु दरसिहि तीना ॥ 
कोई तो मुख हीन  कोई बहुमुखी था कोई चरण व् हस्त से रहित कोई चरण व् भुजाओं से रहित था ।  कोई नयन  से रहित कोई बहुंत से नयन लिए था,  वे  सभी एक के तीन दिखाई दे रहे थे ॥ 

तेहि समउ रघुबर के बाँकुर । ब्याकुल मनस  भयउ भयातुर ॥ 
छल छादन ऐसेउ भयाने । भरमत एकु सों एकु भय माने ॥ 
उस समय रघुवीर के रन बांकुर व्याकुल मनस से भयभीत हो उठे ।  कपट-जाल  ने ऐसा भय व्युत्पन्न किया कि भ्रमवश वे एक दूसरे को ही शत्रु मान परस्पर शत्रुता कर बैठते ॥ 

 बरषि धूरि कीन्हेसि अँधियारा ।सूझ न आपन  हाथ पसारा ॥ 
भट लोचन माया अस देखे । सब कर मरण बना एहि  लेखे ॥ 
बरसती हुई धूल द्वारा व्याप्त अन्धकार से वहां हाथों -हाथ नहीं सूझ रहा था |  ऐसी माया देख सभी ने सोचा कि यह माया हमारे मृत्यु का कारण बनेगी | 

समुझत भा उत्पात महाने । दीठ पीठ सब निज हित जाने ॥  
तबहि मूठि रथ रस्मी धारे । तेजस सत्रुहन आन पधारे ॥ 
कोई  भयंकर उत्पात हुवा है यह समझ कर सभी ने  वहां से भागने में ही सबने अपना हित जाना । तभी मुष्टिका में रथ की रश्मी कसे  महायशस्वी शत्रुध्न का आगमन हुवा ॥ 

प्रथम नाउ भगवान,बिनत  नयन सुमिरन करे । 
धनुर बन संधान, पुनि रन भू निरखत चरे ॥ 

सर्वप्रथम उन्होंने विनयित नयन से भगवान श्रीराम का स्मरण किया । तत्पश्चात  धनुष में बाण का संधान करते हुवे समस्त रण भूमि का निरिक्षण करते चले ॥ 

अमित तेज बर बिक्रम सँजोऊ । तिन तूल तेजस्बी न  कोऊ ।| 
कराल रूप राकसी माया ।  भवबत काँपत अनि अतिकाया  ॥ 
शत्रुध्न अमित तेज व्  अतिशय पराक्रम से युक्त थे उस रणभूमि में उनके समतुल्य तेजस्वी कोई नहीं था | राक्षस की माया ने विकराल रूप धारण कर ली थी विशालांगी सेना को भयवश कांपते देख-

सत्रुहन  मोहनास्त्र चलाईं । महाभिमानि गई बिनसाई ॥ 
करक नयन पुनि गगन निहारे । लखत  असुर सर गनि बौछारें ।| 
शत्रुध्न ने मोहनास्त्र का उपयोग किया परिणाम स्वरूप वह महा अभिमानी माया का नाश कर दिया  | कड़कती दृष्टि से आकाश को निहारते वहां  स्थित असुर का लक्ष्य कर  बाणों का प्रहार करने लगे | 

चरत चपल ऐसेउ चकासे । प्रभा हीन सब दिसा प्रभासे ॥ 
नभस केतन तमस लिए घेरी । हक्कारत हत हेर निबेरी ॥ 
चपलता पूर्वक चलते वे ऐसे प्रकाशित हुवे कि उनके प्रकाश से प्रभाहीन दिशाऐं भी प्रभाषित हो उठीं | सूर्य को को घेरे अँधेरे को ललकारते हुवे को काटकर निवृत्त किया  | 

हीर मनि मुख सुबरनिम पाँखी ।लाखहि बान जान पुर लाखीं ॥ 
काल फनिस जनु चले सपच्छा । भीत अस्थित दनुज कर लच्छा ॥ 
 हीर मणि शिखिमुख व्  स्वर्णिम पुंग से शोभित उन लाखों बाण ने विमान की ओर दृष्टि की, फिर वह पखों वाले कालसर्प के समान चलते हुवे यान के अंतर स्थित दानव का लक्ष्य किया | 

लगत जान पख काटि निबारे । किए खन खंडित महि महु डारे ॥ 
छितरित जान बिलोकत ऐसे। पच्छ हीन मंदर गिरि जैसे । 
यान पर लगते ही सर्वप्रथम उन्होंने उसके पंख काटे फिर उसे खंड-खंड कर पृथिवी पर गिरा दिया | छितरित यान ऐसे दर्शित हो रहा था जैसे पक्षहीन होकर कोई पर्वत गिर गया हो | 


बिमान नसेउ जान तब राकस भयउ रिसान । 
सत्रुहनहहि भाव अनुहर  करे बान संधान ॥ 
विमान को नष्ट जानकर राक्षस अत्यंत क्रुद्ध हो गया और  शत्रुध्न के स्वभावानुकूल बाणों का संधान किया | 

शनिवार ०२ मई २०१५                                                                                           

कालरूप धर गहि सर राका । रहे बिकट सम सलक सलाका ॥
भरे मुठी धनु  गन कसि  राखिहि । सीध बँधे रामानुज लाखिहि ॥
काल का रूप धारण किए राक्षस ने मकड़ी जैसी विकट शलाका वाले बाणों से युक्त धनुष को अपनी मुष्टिका में कसकर पकड़ा व् सीध-साध कर रामानुज का लक्ष्य किया | 

भर बहु घमन गरज किए ऐसे । काल  गहन घन गरजत जैसे ॥
सत्रुहन भुजहु बहुल बल जोगे । बाजजु बाजबास्त्र  प्रजोगे ॥
साथ ही  ऐसी अहंकारपूरित गर्जना की जैसे घने काले बादल गर्जना कर रहे हों | शत्रुध्न की भुजाएं भी बड़ी बलशाली थीं उन बाणों के प्रतिरोध में उन्होंने शक्तिशाली वायव्यास्त्र का प्रयोग किया | 

वाजयु = शक्तिशाली

द्युतिगति गत बियत ब्यापे । दनुज कटक  तन थर थर कांपे ॥
प्रपत तमक जब तीख तड़ाका  ।  जहँ तहँ बिथुर चले सब राका ॥
वह अस्त्र विद्युत् गति से गगन में व्याप्त हो गया, उसे  देख दानव की सेना थर-थर कांपने लगी | गगन से गिरते हुवे जब उसने आवेश से   तीक्ष्ण प्रहार किया, तब राक्षसी सेना जहाँ-तहाँ बिखर गई  | 

सन्मुख होइ न सके ते अवसर । धावै सरपट चरन सीस धर ॥
लगे गात आजुध बिकराला । खात अघात  भूत बेताला ॥
उस समय उस अस्त्र के समक्ष कोई भी टीक न सका,अंतत: सभी सिर पर पैर रखकर  भाग खड़े हुवे | उस विकराल आयुध के शरीर पर अत्यधिक आघात से व्योमचारी भूत-वेताल --

नयन नासिका मुख करन सीस केस बिथुराए ।
वियतगत पतत बाय सम निपतत देइ दिखाए ॥ 
 मस्तक के केश सर्वांग मुख पर छितराए आकाश से पृथ्वी पर गिरते दिखाई देने लगे | 

रविवार ०३ मई २०१५                                                                                                  

बिलोकत अजुध बिकट कराला । दुर्बादत सो दनुज ब्याला ॥
पासुपत नाउ अस्त्र प्रजोगे । धनु  मुख  जीवा जोग बिजोगे ॥
उस विकराल आयुध को देख दानव पति दुर्वादन करने लगा और प्रतिशोध में उसने पाशुपत नाम का अस्त्र का प्रयोग किया धनुष के मुख-  जिह्वा के संयोग से वियोजित होकर वह अस्त्र -

नभ चढ़ि त बरखि बिपुल अँगारी । रघुबर बीर बिधुंसन कारी ॥
चपर चरत  चहुँ कोत ब्यापे  । ताप दहत दिग कुंजर कांपे ॥
आकाश में आरूढ़ हो गया और रघुवर के वीरों का विध्वंश करने वाले विपुल अंगारों की वर्षा होने लगी  | चपलता पूर्वक चलते वह अंगारे चारों ओर आच्छादित होने लगे तब उसके ताप दहन से दिग्गज तक काँप उठे | 

सत्रुहन तेहि ब्यापत लेखे ।निज दिग कुंजर काँपत देखे ॥
धरत अस्त्र एक नाउ नरायन । छाँड़त तुरवत करे निवारन ॥
इस आच्छादन से अपने दिग्गजों को कांपते देख शत्रुध्न ने  नारायण नाम का अस्त्र धारण किया और उसे छोड़कर उन्हें उन अंगारों से  तत्काल ही निवृत्त कर दिया | 

जरती  ज्वाल कनिका जोई । सकल अजुध छन सीतल होई ॥
भयउ गगन अस बहुरि बिलीना । होत बिलीन मीर जस मीना ॥
जलती चिंगारी से युक्त वह सभी आयुध क्षणभर में शीतल हो कर गगन में ऐसे विलीन हो गए जैसे समुद्र में मीन विलीन होती है | 

भरे बदन अति रोष बिद्युन्माली निरख एहि ।
एकु त्रिसूल  कर कोष ,हतन सत्रुहन ठान धरे ॥ 
रोष से ज्वालामुखी हुवे विद्युन्माली ने जब यह दृश्य देखा तब शत्रुध्न को हताहत करने का निश्चय कर अपने कर कोष्ठ में एक त्रिशूल लिया | 

मंगलवार, ०५ मई २०१५                                                                                                  

गहे हाथ त्रइ सूल बिसेखे । निसिचर जब नियरावत देखे ।|
लिए एक सर अध चंदू अकारे । काटि सूल सत्रुहन महि डारे ॥
विशेष त्रिशूल हस्तगत किए निशाचर को निकट आते देख शत्रुध्न ने एक अर्धचन्द्राकार बाण लिया और  उसे काट कर भूमि में गिरा दिया | 

कुण्डल कलित कल कानन सहिता । हरि कीर्तन सन श्रवन रहिता ॥
हरि दरसन बिनु लोचन संगे ।रुण्ड  संग  किए मुंड बिभंगे ।|
तत्पश्चात कुण्डलों से सुशोभित किन्तु हरि कीर्तन से श्रुति विहीन सुन्दर कानों व् हरि दर्शन से रहित लोचन सहित निशिचर के शीश को भी धड़ से पृथक कर दिया | 

 देखि भ्रात अस भंजित गीवाँ । बढ़े करत उग्र छोभ अतीवा ॥
गरज घोर कर यहु कहि आवा । अस बांकुर मैं बहुंत खिलावा ॥
भ्राता की ऐसी भंजित ग्रीवा को देख महाप्रतापी उग्रद्रंष्ट्र अत्यंत क्षोभ करते हुवे आगे बढ़ा  और घोर गर्जना कर यह कहते निकट आया कि ऐसे युद्धवीर मैने बहुंत देखे हैं | 

कसत धमूका धमक जब  धाए  । सत्रुहन तब छुरपर सर चलाए ।।
लागिहि कंठ उरायउ  माथा । परे भुइ तन चरन  कर साथा ॥
वह मुष्टिका कसते वेगपूर्वक दौड़ा तब शत्रुध्न  क्षुरप्र नामक बाण छोड़ा, यह बाण यह बाण उसके कंठ में जा लगा और उसका मस्तक भी उड़ा दिया | 

बिलगित सिरु के साथ  दोउ देहि महि पर परे । 
राकस भयउ अनाथ दोनउ दल पत के मरे ॥ 
पृथक शीश के साथ दोनों भ्राताओं की देह भूमि पर गिर पड़ी दोनों दलपति का वध होते ही दानव दल अनाथ हो गए | 

बुधवार, ०६ मई २०१५                                                                                        

आए सम्मुख सबहि  जुग हाथा | डरपत धरि सत्रुहन पद माथा ॥
तासु बड़ेपन  बोले नहि नहि । कह अस पाँमर अरु अति डरपहि ॥
वे सभी करबद्ध होकर शत्रुध्न के सम्मुख उपस्थित हुवे और भयाकुल होकर उनके चरणों पर अपना मस्तक रख दिया शत्रुध्न के बड़प्पन ने जब नहीं नहीं कहा तब  वह दुष्ट दानव और अधिक भयभीत होकर कहने लगे --

बाहु बली कहँ तुहरे नाईं । हत मति हमरे पति चढ़ि आईं ॥
भरे घमन सिरु मति नहि आहू  । करुना करत हमहि छम दाहू ॥
आपके जैसा बाहुबली यहाँ कोई नहीं है हमारे दाल पति की बुद्धि भ्रष्ट हो गई थी उन्होंने आप पर आक्रमण किया | उनके मस्तक में बुद्धि के स्थान पर अहंकार भरा हुवा था, अब आप करुणा करते हुवे हमें क्षमा प्रदान करते हुवे -


सरनारपक  पर कृपा कीजो  । अभय दान प्रस्तर कर दीजो ॥
अस दनुज हय किरन कर लीन्हि । सादर चरन समर्पन कीन्हि ॥
शरणापन्न पर कृपा कीजिए और उदार स्वरूप अभय दान दीजिए | इस प्रकार निशाचरों ने मेधीय अश्व की रश्मि हस्तगत कर सत्रुध्न को सादर समर्पित कर दी  | 


श्रुतत दनुज के करून पुकारी । सत्रुहन के हरिदै भय भारी ॥
करुनाकर रघुबर के नाईं । रामानुज सबहि छमा  दाईं ॥ 

दनुजों की करूँ पुकार सुनकर शत्रुध्न का ह्रदय द्रवित हो गया और भगवान रघुवीर के समान करुणा करते हुवे रामानुज ने सभी को क्षमा दान दिया | 


मधुर मनोहर जय निनाद कर बिजित कलस अलंकृते ।
सबहि सेन दल बल बल मर्दल हनत कुनिका झंकृते ॥
 
मंद ताल दए मंजु मनोहर ढोलु मंजि मुरज उठे ।
चहुँपुर श्रुतिसुख भटन्हि मुख संख नूपुर सहुँ बज उठे ।। 
मधुरिम व् मनोहर जय निह्नाद के साथ विजय कलश से अलंकृत सभी सैन्य दल घुमघुम कर मुर्दल की संगत वीणा का गुंजन करने लगे | मंजुल मनोहर  मंजीरे व मृदंग मंद ताल देते हुवे उठे व् योद्धाओं के मुख पर विराजित शंख व् नूपुर का सांगत कर निह्नादित हो उठे | 


सर चाप कर सूल बिकट बर बीर बपुर्धर सोहहीं ।
घन अलक अछादन तड़ित नयन बदन छबि मन मोहहीं ॥ 
पीत परिकर उपबीत कटि पर रन आभूषन सज उठे । 
चरन ताल तै सुबरन -रजत नभ रंजत रज रज उठे ॥ 
युद्ध वीरों धनुष-बाण,त्रिशूलों आदि विकट आयुधों से सुशोभित थे | घनी अलकों से आच्छादित उनके विद्युति लोचन से युक्त मुख मंडल की छवि मनमोहक थी | यज्ञोपवीत से युक्त करधन पर पीतम वस्त्र खंड का घेरा व् शस्त्रास्त्र सुशोभित हो रहे थे | उनके चरण-ताल  धूल कण नभ को स्वर्ण-रजत वरन से विरंजित करते हुवे उठे | 

अह नय रवनय सब बीर बलय सुरमय जय घोष करे ।
पदाजि छाजे हय गज राजे साजे चातुरंग कोष करे ॥
अम्बारांत लग गरजिहि जिमि पावस घन गरज उठे |
सहस किरन  निन्दत गरुअत गज गामिन के ध्वज उठे । 
अहो ! सभी वीर परस्पर संयोजन कर अपने सेनानायक को  चारों ओर से घेर स्वरमय जयघोष करने लगे | हय, हस्ती से विराजित तथा पदचरों से सुसज्जित  भगवान की चातुरंगिणी सेना के सभी कोष्ठ सुशोभित हो रहे थे | अम्बर के अंत तक प्रतिध्वनित होते वह ऐसे गर्ज उठे जैसे पावस ऋतु के मेघ गर्ज उठे हों, इस गर्जना के साथ सहस्त्र- किरण सूर्यदेव को भी लज्जित करते हुवे उस गजगामिनी  के ध्वज गौरान्वित होकर उत्तोलित हो उठे |  

हरि हरि मुँगिया मनहरि मुतिया भरि कीर्ति श्री राम की । 
गूंथ गहरी सब कंठ घरी सुर दामहि सुख धाम की ॥
दुर्जय दनु प्रमय होत अभय अरुनोदय सूरज उठे ।
प्रसन्नचित पयासय लीन लय पल्लबित पंकज उठे ॥
सुख के धाम भगवान श्रीराम की कीर्ति रूपी हरी हरी मूंगों मनोहर मुक्ताओं की सुगठित स्वरमाला सभी के कंठों में स्थित थी | दुर्जय दानव के विध्वंश से भयहीन होते अरुण का उदय हुवा तो सूर्यदेव ऊंचाई को ओर बढ़ने लगे और जलाशय में लयलीन पंकज प्रफुल्लित हो उठे | 

किसलय कौसुम कर भरे, चढ़े  जान सुर  जूथ ।
गह गह धरापर बरखिहि हरसिहि बीर बरूथ ॥ 
विमान पर विराजित देवगण के हाथ से नवपल्ल्वित कुसुम आनंदविह्वल होकर धरा पर बरसने लगे जिससे वीरों के दल अत्यंत हर्षित हो उठे | 

मंद मंद सुख गंध ते  ओतप्रोत चहुँ कोत । 
कटक पल्लबाधार भए पल्लब पल्लब होत ॥ 
पुष्पवर्षा ने चारों दिशाओं को भीनि भीनि सुगंध से ओतप्रोत कर दिया  | भगवान की सेना पल्लव पल्लव होते हुवे पुष्प-शाखाओं सी प्रतीत होने लगी | 

पल्लवाधार = शाखा 

बृहस्पति / शुक्र , ०७ /०८ मई २०१५                                                                                   

अपहर्ता दनुज तैँ हय जब पाए । पुष्कल सहित सत्रुहन हरषाए ॥ 
दुर्जय बिद्युन्माली मारे । परम प्रबल दानउ दल हारे ।। 
अपहर्ता  दानव से अश्व की प्राप्ति के पश्चात पुष्कल सहित शत्रुध्न अत्यंत हर्षित हुवे | दुर्जय विद्युन्माली का विध्वंश हुवा और उसके परम प्रबल दानव दल की पराजय हुई | 

सुभमय बिजै केतु कर जोई  । जय जय रघुबर कहँ सब कोई ॥ 
यह समाचार बहु सुख दयऊ । सबहि मुनि निर्भय होइ गयऊ ।।
उस रण में रामानुज शत्रुध्न के समान कोई वीर नहीं था लोक कल्याणकारी  विजय की ध्वजा हस्तगत कर सभी ने फिर अयोध्यापति श्री रघुवीर की जयजय कार की | दानव का विध्वंश हुवा यह समाचार अति सुखदायक था सभी मुनिगण अब निर्भय हो गए | 

चले सत्रुहन सैन सह आगे । चलेउ भूपत रथ सन  लागे ॥
बहोरि जवन किरन  जब छाँड़े ।  उदकत पद उत्तरु दिसि बाढ़े ॥
शत्रुध्न सेना सहित आगे चले अन्यान्य भूपति भी रथ सहित उनके साथ चल पड़े | ततपश्चात जब तीव्रगामी अश्व की किरणे उन्मोचित की गईं तब उसके उदकते चरण उत्तर दिशा की ओर बढे  | 

मुकुत किरन  भए हर्श अपारा । चपर चरण चहुँ कोत  बिहारा ।
रहि रन भूषन जासु अधीना । रहे सबहि सो बीर प्रबीना ॥
मुक्त  रश्मियों के कारण वह अश्व अपार प्रसन्नता का अनुभव कर रहा था उसके चपल चरण चारों दिशाओं  में विचरण करने लगे |  शस्त्रास्त्र रूपी  युद्धाभूषण जिनके अधीनस्थ थे वे सभी वीर राजा रण कौशल में प्रवीण थे | 

सब पथ सजयो जब रथ रजयो गहे करष कर सारथी । 
लपटत परन चरनन्हि परयो निज सरबस जान रथी ॥
सर्वत बिचरत वियद गत तुरग  भामरत आयो तहाँ | 
क़हत अहि पत नर्बदा नद निरापद  बह आई जहाँ || 
जब वह रथों पर विराजित हुवे तब उनसे साधारण मार्ग भी राजमार्ग से शोभनीय हो चले थे |  सारथीयों ने जब राजविराजित रथों की रश्मियाँ खैंची तब वीरता से ओतप्रोत उन रथियों को अपना सर्वस्व मानकर मार्ग पर के पर्ण उनके चरणों से लिपट उन्हें प्रणाम करते | भगवान शेष जी कहते हैं : -- मुने ! सर्वत्र  विचरण करने के पश्चात  वह आकाशगामी तुरंग परिभ्रमण करता हुवा वहां आया जहाँ नर्वदा नदी निर्विध्न बहती आई थी || 

कंकन जलके पदुम पत तल के तरंगित माल पुरयो  । 
हरिअर चलके सुर कल कल के कानन्हि कलित करयो ॥
भई बसतिमय बसि अतिसय रिसि महरिसि के समाज से ।
नील रतन रस दए अस दरस जलाजल के ब्याज से ॥
जल बिंदुओं की सूक्ष्म घुंघरियों और तल पर के पद्म पत्रों को  पिरो कर कल कल का स्वर करती हुई जो मंद मंद चलकर अपनी तरंग मालाओं से वन उपवनों को विभूषित करती थी | ऋषि महर्षियों के भरेपूरे समाज की निवासित होने निर्जन देश में भी वस्तियों से युक्त हो चली थी | उस पावन नर्मदा नदी का पावन जल नील रत्नों के रस का आभास देता हुवा प्रतीत होता | 

चहु कोत ब्याकुल कंठ पयस दरस के आस ।
पयसिनी सहुँ होत प्रगस  दय पय हरे प्यास ॥
चारों दिशाएं व्याकुल कंठ से जब जल दर्शन की आस कर रहीं थी तब यह पयोष्णी साक्षात प्रकट हुईं तथा दिशा -दिशा को जल प्रदान कर इसने उनकी पिपासा का हरण किया | 

चितबत चित्र सब  नयन उरेहे  । एकु पुरनइ कुटि दरसन देहे ॥ 
रहे पलासित परनाधारे ।उहरित लोचन  परन  उहारे ॥ 
चित्रालेखित नेत्रों से सभी उसे निहार ही रहे थे कि तभी उन्हें एक पर्ण-कुटी दर्शित हुई | वह कुटी पलास के पर्णों से आच्छादित थी तथा उसके अवनत झरोंखों में पर्णों की ही ओहारी थी | 

सरन सरन सरसिज सरसौंहे । सरस मयूखि सरिन्मुख मोहैं ॥ 
सींकत जल सीकर जब परसे । हलबत तपरत पत पत हरसे ॥ 
उसकी पगडंडियों पर पद्म पनप रहे थे | सरसता की कांति से युक्त नदी के मुखाग्र पर स्थित वह अत्यंत मनमोहक प्रतीत हो रही था | नर्मदा की सिक्त जल बिंदुएं जब उसे स्पर्श करती तब पलास की उस  कुटिया के तपोमय पर्ण हलचल करते हुवे  हर्षित हो उठते | 

चातुर भद्रक परम ग्यानी । सत्रुहन दरस नील रस पानी ॥ 
जिग्या  ने पय  प्यास जगाए । नय कुसलय सुमति समुख जताए ॥ 
धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के ज्ञान में प्रवीण शत्रुध्न को जब नर्वदा के उस नील रस पानी के दर्शन हुवे तब उनमें जिज्ञा के पियूष की प्यास जागृत हुई, इस प्यास को नीति कुशल सुमति के सम्मुख प्रकट कर वह बोले - 

महानुभाव बिलोकत जोई । परन गह सो  केहि के होई ॥ 
कहत सुमति  जौ कुटि दरसायो । तहँ एकु मुनिबर ओक बसायो ।।
'महानुभाव ! यह जो पर्ण-गृह दर्शित हो रहा है वह किसका है ? सुमति ने कहा -- 'महाराज ! यह जो कुटिया दर्शित हो रही है वह एक मुनिवर का निवासित आश्रम है | 

जप तप संजम  नेम रत सो सेअहिं परलोक । 
प्रभु पदानुरत जग बिरत, भूर सबहि सुख सोक ।। 
वह मुनि जप,तप,संयम ,नियम में तल्लीन होकर परलोक का सेवन करते हैं | भगवान श्रीरामचन्द्र के चरणों में अनुरक्त होकर सुख व् शोक को विस्मृत कर ये संसार से विरक्त हो गए हैं | 

शनिवार, ०९ मई २०१५                                                                                          

बिरति बिबेक बिनय बिग्याना ।बोध जथारथ बेद  पुराना ॥ 
तापर मन मद मान न कोऊ । तेहि सम ग्यानद एकु दोऊ ॥ 
वैराग्य, विवेक, विनय, विज्ञान सहित वेदों एवं पुराणों का यथार्थ ज्ञान होने पर भी उनके मन में तनिक भी मान अथवा मद नहीं है, इनके समान ज्ञानी कोई एक दो ही होंगे | 

जे जी जो को पाप जनावा । तिनके दरसन करत  दुरावा  ॥ 
जे चितबन् दरपन मलियानी। मुनिबर के छबि मलिन  नसानी ।|
यदि मन में कोई पाप उत्पन्न हो गया हो तो इनके दर्शन मात्र से वह मुक्त  हो जाता  | यदि चित्त रूपी दर्पण मलिन हो गया हो इन मुनिवर की छवि समस्त मलिनता को नष्ट कर देती है | 

मुनि के अरण्यक सुभ नाऊ ।  तीरथ ए तासु तपस प्रभाऊ ॥
एहि हुँत प्रथम चरन सिरु नाहू । निज संसय तिन ताहि बुझाहू ।|
इन मुनिश्री का शुभ नाम आरण्यक है यह स्थली इनके तप के प्रभाव से ही तीर्थ हुई है | इस लिए आप सर्वप्रथम उनके चरणों में प्रणाम कर ततपश्चात उनसे अपने संशय के निवारण हेतु प्रश्न कीजिए | 

सोए मुनिस्वर रघुबर ही के । तुहरै सम अनुचर सिय पी के  ॥
कमल नयन के पदारबिंदा ।रसिक 
रूप रसत  मकरन्दा ॥
यह मुनीश्वर भी आप ही के समदृश्य सियापति रामचंद्र जी के अनुचर हैं | ये भी भ्रमर स्वरूप उन कमल नयन श्रीहरि के पदार्विन्द के मकरंद का पान किया करते हैं | 


बौमिट बपुरधर बन घर किए अस  तप घन  घोर । 
रयनि के रोर न जाने भोर न जाने भोर ॥
इन्होने ऐसी घनघोर तपस्या की जिससे इनका  वन ही इनका निवास हो गया था तथा  इनकी देह वाल्मीकिय हो गई थी | 

सोमवार, ११ मई,२०१५                                                                                                                    

सुमति रसन बर बरन सुहाने| धर्म जुगत एही बचन बखाने ॥
बहोरि सत्रुहन पलक न होरे । करे संग में  अनुचर थोरे ॥
सुमति की रसना ने इस शोभामयी वर्णन को वरण कर ये धर्मयुक्त वचन कहे तब शत्रुध्न क्षण मात्र को भी नहीं ठहरे,  कतिपय अनुचरों को साथ ले -


बिनीत भाव उर नयन निहोरे । चले पयादहि दुहु कर जोरे ॥
सकल जन  प्रबिसत  तपो धामा । बिनत नयन तिन करे प्रनामा ॥
 विनयित भाव पूरित हृदय  व् याचना पूरित नेत्रों सहित करबद्ध मुद्रा में पयाद ही मुनि के दर्शन हेतु  चल पड़े  | मुनिवर के तपोधाम  में प्रविष्ट होकर सभी आगंतुकों ने अवनत लोचन से उन्हें प्रणाम अर्पित किया | 



रघुबर अनि निज सम्मुख पाईं । मुनि हतप्रभ मुख पूछ बुझाईं ॥
भयऊ कहाँ सँजोग तिहारे । कहउ  इहाँ  कैसेउ पधारे ॥ 
श्री रामचन्द्र जी की सेना को अपने सम्मुख देख मुनि ने हतप्रभ मुख से प्रश्न किया - 'आप लोग कहाँ एकत्र हुवे हैं ? कहिए आपका यहाँ कैसे आगमन हुवा ? 

मुनिबर  नयन प्रसन जब देखे ।  भरे निज बचन  भाउ बिसेखे ॥ 
बागबिदग्ध सुमति नत सीसा । होत बिनय बत कहे  मुनीसा ।। 
मुनिवर को प्रसन्नचित्त देख अपने वचनों को विशेष भाव से ओतप्रोत कर वाग्विदग्ध सुमति नत मस्तक होते हुवे मुनि मनीषी से विनयवत बोले-

अधुना सकलित जोउ सब प्रभु मख बीड उठाए । 
हय  रच्छनरत यहां हम आपनि दरसन आए ॥ 
'इस समय भगवान श्रीराम चन्द्र जी ने अश्वमेधीय यज्ञ के अनुष्ठान का संकल्प लिया है । एतेव त्यागे गए मेधीय अश्व की रक्षा करते हम यहाँ आपके दर्शन हेतु उपस्थित हुवे हैं | '

बुधवार, १३ मई,२०१५                                                                                            

सँजोइल सब सँकलप सँजोई । नाना मख करि लाहन होई ॥ 
अस सत्कृत अल्पहि पुन दावैं ।  करता छनु भंगुर फल पावैं ॥ 
संकल्पित सामग्रियों को संगृहीत कर भांति भांति के यज्ञों का अनुष्ठापन से कोई लाभ होने वाला नहीं है | ऐसा सत्कृत अल्प मात्रा में ही पुण्य प्रदान करता है ऐसे पुण्य का फल यज्ञकर्त्ता के लिए क्षणभंगुर सिद्ध होता है | 

रमानाथ रघुबीर हमारे । वैभव पद के देवनहारे ।। 
तिन्ह तजत अन्यानै पूजे । ता समतूल मूरख न दूजे ॥ 
हमारे रमानाथ रघुवीर तो ऐश्वर्य पद के दाता हैं जो उनका त्याग कर अन्यान्य की चरणवंदना करता हो उस जैसा फिर कोई मूर्ख नहीं है -

जो भगवन के चरन  त्यागे ।  जागादि प्रपंच माहि लागे ॥ 
जे ब्रत बिरथा धरत कलेसा । प्रभु अद्वैत अगुन हृदयेसा ॥ 
जो भगवान के चरणों को त्याग कर यज्ञादि प्रपंच में लगा हो जो व्रत आदि के द्वारा  व्यर्थ में क्लेशित रहता हो |  प्रभु तो अद्वैत हैं निर्गुण रूप में वह  हृदयों के अभीष्ट ईश हैं | 

एकु रघुबर के सुमिरन सोही  । परबत पाप  राइ सम होंही ॥ 
सकाम  पुरुख हो कि निहकामा । चिंतहि चितहि सदा श्री रामा ॥ 
 एक भगवान श्रीरामचन्द्र के स्मरण मात्र से ही पर्वत जैसे पाप राई के समतुल्य हो जाते हैं | सकाम पुरुष हो अथवा निष्काम पुरुष वह सदा श्रीराम का चिंतन व् मनन किया करते हैं |  

सीस चरन धरि मन नुरति मुख प्रभु नाउ  धराए । 
हरिदै बसति बसाए के  सकल पाप दूराए ॥
 प्रभु के चरणों में नतमस्तक होकर मन में अनुरक्ति व् मुख पर उनके  नाम का आधार कर उन्हें हृदय की वसति में निवासित करने से सभी पाप उन्मोचित हो जाते हैं  | 

 बृहस्पतिवार, १४ मई, २०१५                                                                                          
एकु समय मैं ग्यान  पिपासू । महा तत्त्व पयस अभिलासू  ।। 
तीरथ तीरथ डेरा डेरा । सद ग्यानदा भरमत हेरा । 
एक समय की बात है, मैं ज्ञान की पिपासा लिए महा तत्त्व के पयस की अभिलाषा करता हुवा तीर्थ-तीर्थ भ्रमण करता रहा |  वहां आश्रम-आश्रम में सद ज्ञानोपदेशक का अनुसंधान करता रहा किन्तु मुझे किसी ने तत्व का उपदेश नहीं दिया | 

ते अवसर पुनि मोहि एकु दिवस । मुनिबर लोमस मिलिहि भागबस ।। 
तीरथ सेवन हेतु मुनिराए । सुरग लोक ते तरत तहँ आए ।। 
उसी समय फिर एक दिन भाग्यवश मुझे लोमश मुनि मिल गए | वह मुनीश्वर तीर्थ सेवन हेतु स्वर्ग लोक से उतर कर आए थे | 

तासु चरन मैं करत प्रनामा । परच देत कहेउँ निज नामा ॥ 
रहे जिगासु मोर मन माहीं । पूछा तिन तैं कह गोसाईं ॥ 
उनके चरणों में प्रणाम अर्पित करके नाम प्रकट कर मैने अपना परिचय दिया | मेरे मन में जिज्ञासा थी उनसे प्रश्न करते हुवे मैने कहा -- 'स्वामिन ! -

यह अद्भुद मानस तन गहिहउँ । भवसिंधु पार गति मैं चहिहउँ  ॥ 
मन मानस यहु जगी पिपासा । ग्यान पायस तुहरे पासा ॥ 
मुझे यह अद्भुद मनुष्य देह प्राप्त हुई है मेरी  इस संसार सिंधु से पारगम्य होने की अभिलाषा है | मेरे मन मानस में  पिपासा जागृत हुई है ज्ञान पायस आपके पास है | 

तुम उदक बाह मैं उद बाही ।तुम ग्यानदा अरु मैं गाही ॥ 
मोरे कहे बचन दए काना । बहोरि बोले मुनि  बिद्बाना ॥ 
आप जलधर है में जलपात्र हूँ आप ज्ञानद हैं में ज्ञानार्थी हूँ | मेरे निवेदित वचनों पर ध्यान केंद्रित फिर वह विद्वान मुनिवर बोले - 
मोर कहि बत भाव सहित सुनिहौ धरे ध्यान । 
जोग  जाग जम ब्रत नियम,अरु एक साधन दान ।।
अब मेरे इन कथनों को एकाग्रचित्त होकर सुनो | योग, यज्ञ, व्रत, संयम, नियम और एक साधन दान | 


शुक्रवार, १५ मई, २०१५                                                                                    

पार गमन  भव साधन नाना  । मैं संछेप सरूप बखाना ॥ 
साधन साधकता जो जाने । चढ़त जान सो सुरग पयाने ॥ 
इस भव सिंधु से पारगम्य के तो अनेक साधन हैं किन्तु मैने संक्षेप स्वरूप उपरोक्त का व्याख्यान किया | जो इन साधनों की साधना से भिज्ञ होता वह दिव्य विमान में आरोहित होकर स्वर्ग को प्रस्थान करता है | 

एकु अबरु रहस्य जानत अहिहउँ ।सो गुपुत सार तव सहुँ कहिहउँ ॥ 
सबहि पाप जो देइ  नसावै  । भव सिंधु सो पार लए जावै । 
एक अन्य रहस्य भी मुझे ज्ञात है उस गोपनीय तत्त्व को  तुम्हारे सम्मुख प्रकट करता हूँ | वह तत्त्व  सभी दोषों को नष्ट कर भव सिंधु से पार उतारने वाला है | 

भगवन पद रति भगति न जानिहु  । तिन्हनि ते उपदेस न दानिहु ॥ 
दंभि सदा मद मूरख लोगे  । कहु त कहँ उपदेस के जोगे ।। 
जो भगवद पद की भक्ति व् अनुरक्ति से अनभिज्ञ हैं ऐसे श्रद्धाहीन पुरुषों को ये उपदेश नहीं देना चाहिए | जो सदा के दम्भी है ऐसे मदोन्मत मुर्ख लोग हैं कहिए तो वो कहीं उपदेश के योग्य होते हैं ? 

करे जो भगति संग द्वेसा । अस  साटक हुँत नहि उपदेसा ॥ 
तन पट सुचित कपट  मन माही । तिन्ह सहुँ  ए उपदेसहु  नाही ॥ 
जो भक्ति के साथ विद्वेष करते हैं  ऐसे नराधमियों  के लिए भी उपदेश नहीं होते | जिनकी देह पर पवित्र वस्त्र खंड होते हैं किन्तु मन-मानस में कपट की मलिनता  होती हो उनके सम्मुख भी यह उपदेश नहीं कहना चाहिए | 

चारारि के वसति रहित बसे जोइ उर साँति ।
अस भगत एहि  गूढ़ सार बरन कहौ सब भाँति ।।
चार प्रकार के शत्रु अर्थात काम, क्रोध, लोभ, मोह की वसति से अन्यथा जिसके ह्रदय में शान्ति का वास हो ऐसे भक्त के सम्मुख  इस गोपनीय तत्त्व को सभी प्रकार से वर्णन करना चाहिए | 

No comments:

Post a Comment