Monday 16 March 2015

----- ॥ उत्तर-काण्ड २९ ॥ -----

सोमवार  १६ मार्च, २०१५                                                                                                  

जासु संग हमरे पुन  जागिहि । अह सो बंसज भा बड़ भागी  ॥ 
करखत पितु जन  कहत पुकारिहि  ।गउ सेबा करतब कुल तारिहि  ॥ 
जिनके साथ हमारे भी पुण्य फलदायी होंगे अहो !हमारा यह  वंशज अत्यंत भाग्यशाली है | कष्ट भोगते पूर्वज भी यह कहने लगेंगे की गौ सेवा जैसे पुनीत कार्य से यह वंशज अब हमारे कुल का उद्धार करेगा | 

भयऊ एकु इतिहास पुराने । एही बिश्यन महँ कहहि सयाने ॥ 
उदाहरित यहु  प्रमुख प्रसंगे । भए जो मिथिला पति के संगे ॥ 
इस विषय में एक पुराना इतिहास है जिसे सुबुध जन इस प्रमुख प्रसंग का दृष्टांत देते हुवे कहते हैं जो मिथिला नरेश राजा जनक के साथ घटित हुवा था | 

एक बार के भयऊ ए बाता । जनक जोग सो तज निज गाता ॥ 
तेहि अवसरु मुख सोहि आना ।कंकनिक कलित एकु बेमाना ॥ 
एक बार की बात है, राजा जनक ने योगमाया से अपने शरीर का परित्याग कर दिया | उस समय उनके सम्मुख क्षुद्र घंटिकाओं से विभूषित एक विमान आया | 

तुरतै तेजस देहि सँजोइहि । धरमधुरज बैमान अरोइहि ॥ 
सेबक मन बहु बिसमय भयऊ ।तजइत तन उठाइ लए गयऊ ॥ 
धर्म की धुरी स्वरूप उस राजा ने दिव्य देह धारण कर  विमान पर तत्काल आरूढ़ हो गए | वहां उपस्थित सेवकों के मन में अतिशय विस्मय हुवा फिर वे राजा के  त्यागे हुवे शरीर को उठा कर ले गए | 

गमनत मिथिलापति जनक , जमपुरि मग निकसाए  । 
कोटिक कलुख चेतस तहँ,नारक भोगत पाए ॥
विमान पर गमन करते मिथिलापति राजा जनक धर्मराज की संयमनी पूरी के मार्ग से होते हुवे जा रहे थे | वहां उन्हें  करोडो दुष्ट व् पापचारी जीव नरक का कष्ट भोगते हुवे दिखाई दिए | 

मंगलवार ,१७ मार्च, २०१५                                                                                               

जनक देहि पौ परस पवाई ।बिकल  नारक बहुंत सुख पाईं ॥ 
धर्म धुरज चलेउ जब आगे ।भय बस सब चितकारन लागे ॥ 
राजा जनक की दिव्य देह की वायु  का स्पर्श प्राप्त करते ही व्याकुल नारकीय जीव को असीम सुख की अनुभूति हुई | धर्म धुर्य जनक जब आगे निकल गए तब वह भय वश चीत्कारने लगे | 

नारक मोचन चाह सँजोई । जनक बिछोहु चहहि न कोई ॥ 
द्रवित कंठ करि करून पुकारे । कहाँ चले हे नाथ हमारे ॥ 
उन्हें नरक से मुक्ति की अभिलाषा थी एतएव कोई भी जनक के वियोग की चाह किसी को नहीं थी | उनक द्रवित कंठ करूँ पुकार करने लगा कि हे नाथ ! हमें छोड़ कर आप कहाँ जा रहे हैं | 

 परस बिस्तारि तुहरे देही । हमहि सो बाहि बहुँत सनेही ॥ 
सुनत नारकिहि जीउ पुकारी । करुनाकर नृप मन भए भारी ॥ 
आपकी देह से विस्तारित वायु के  स्पर्श से हमें अपार सुख की अनुभूति हो रही है | नारकीय जीवों की पुकार सुनकर करुणाकर राजा मन करुणा से भारी हो गया  | 

उरस उदधि उदधर उमहायो । नयन पटल जल बूँद तिरायो  ॥ 
चेतस  मानस  सोच बिचारै । मोर बसाहि ए जीउ सुखारे ॥ 
ह्रदय समुद्र से  सहानुभूति के बादल उमड़ पड़े लोचन पटल पर जल बिंदु तैरने लगी | राजा जनक ने चैतन्य मस्तिष्क से यह सोच-विचार किया कि मेरे बसने से यदि यहाँ के जीव सुखी होते हैं तो ऐसा ही हो | 

अजहुँ सों एहि जम नगरी, होहिहि मोर निबास । 
जहँ को सुख साँस लहि सो  मम हुत सुरग सकास ॥ 
अब यम की यह नगर मेरा निवास होगा | जहाँ कोई सुख की स्वांस ले वह स्थान मेरे लिए मनोहर स्वर्ग के सदृश्य है |  

बुधवार, १८ मार्च, २०१५                                                                                         

बहुरि मिथिला नगर के केतु । दुखित नरक जीउ के सुख हेतु ॥ 
दया भाउ हरिदै परिपूरे । होरिहि जम दुआरि के धूरे ॥ 
तदनन्तर मिथिला नगर के केतु दुःखार्त नारकीय जीवों के सुख हेतु, ए यम द्वार पर ही ठहर गए उस समय उनका हृदय  दया भाव से परिपूर्ण था | 

तेहि समउ सो दुखद दुआरे । संजमनि के नाहु पधारे ॥ 
सत कृत करता पुरुख बिसेखे । मिथिलापति निज सौमुख देखे ॥
तभी उस दुखदायी यमद्वार पर यमलोक के राजा यमराज का पदार्पण हुवा | सत्कार्य करने वाले धर्मात्मा मिथिला नरेश को अपने सम्मुख देखा | 

ठाढ़ि रहे चढ़ उडन खटोले।  परे बिहँस अस करकस बोले ॥ 
सिरोमनि हे धरम धुरीन के । भए दयाकर दारिद दीन के ॥ 
जो विमान पर आरूढ़ होकर नरक के द्वार पर स्थित थे, उन्हें देखकर यमराज हंस पड़े और कर्कश वाणी में बोले --हे धर्म धुरीण के शिरोमणि ! दीन-दरिद्रों  पर दया करनेवाले राजन ! 

कहौ इहाँ तुअ कैसेउ आए । एहि अरगल तुम्हरे जुग नाए ॥ 
हतत हनत अघ करत  अपारा । अहइँ तेहि हुँत नरक दुआरा ॥ 
कहिये  यहाँ आपका कैसे आगमन हुवा ? यह द्वार आपके योग्य नहीं है | ये नारकीय द्वार जीवों की ह्त्या व उनपर अत्याचार के द्वारा अतिशय  पाप  करने वाले महापापियों के लिए है | 

सुरग दुआरि जुहारि किए धर्मी तुहरे सोहि । 
इहँ के अगन्तु सोए जो, जीव जगत के द्रोही ॥ 
स्वर्ग की ड्योढ़ी आप जैसे धर्मात्माओं की प्रतीक्षा करती है यहाँ जीव जगत के विद्रोहियों का ही आगमन होता है | 

बृहस्पतिवार,१९ मार्च, २०१५                                                                                     

साधु समाजु न जाकर लेखा । धर्म पुरुख पथ चरत न देखा  ॥ 
जो हत चेतस भए हिंसालू । एहि सदन तेहिं हुँत भुआलू ।। 
साधुओं का समाज जिसकी समझ से परे हैं जिन्होंने महापुरुषों के मार्ग का अनुशरण नहीं किया | जो विवेकहीनता से हिंसालु प्रवृति के हों हे राजन ! यह लोक केवल उनके लिए ही है| 
  कर्पूरंक कलंक लगावहि ।पर्धन लूट खसोटत खावहि ॥ 
 कुल बती पति पद रति बत सती ।गह निकास देँ निबेरत गती ॥ 
जो उज्जवल चरित्र को कलंकित करते हैं पराए धन का हरण कर उसका उपभोग करते हैं | जो कुलवंती तथा अपने पति के चरणों में ही अनुरक्ति रखने वाली सती को गृह से निर्वासित  कर उसका त्याग कर देता हैं | 

भोग के बस्तु जिन हुँत नारी  । आए इहाँ सो पापाचारी ॥ 
अति आचरन करिहि जो पामर । आए चरत  पापाधम एहि घर ॥ 
नारी जिनके लिए उपभोग की वस्तु मात्र है वह पापचारी इस लोक में आते हैं | जो मूढ़चित्त अनुचित आचरण कर दुर्व्यवहार या दुराचार करते हैं वह पापाधमी भी इस यमराष्ट्र में आते हैं | 

कालस कृत धन लालस पासा । पापमितु हितु  देइ जो झाँसा ॥ 
उदर परायन देइ न दाने ।अस पापधि परेउ इहँ आने ॥ 
उज्जवल धन को कलुषित कर उसे अपने अधीन करने वाले, लालच के वशीभूत अपने  परम मित्रों से भी कपट करने वाले कुमित्र,  

मोरे दंड पाँस कंठनि कर ।पाइहि पामर पीर भयंकर ॥ 
बितथाभिनिबेसि मूढ़ि मानस ।दम्भि बिद्वेष उपहास बिबस ॥ 
मेरे दंड पाश को अपने कंठ में ग्रहण कर वे अधमी भयंकर यातनाएं भोगते हैं | मिथ्या भाषण की प्रवृत्ति वाले मूर्ख मनुष्य, दम्भ, विद्वेष तथा उपहास वश -

मनसा बाचा कर्मना, सुमरै नहि श्री राम । 
काया सों मद मोहना काया   केर प्रनाम ॥
जो मन वचन व् कर्म से अपने इष्ट देव का स्मरण नहीं करते काया  काया के मद में मोहित रहकर केवल माया को ही प्रणाम करते हैं | 

शुक्र/शनि ,२०/२१ मार्च,२०१५                                                                                                 

तेहि पापक बाँध ले आवा । बहोरि मैं भलि भाँति पकावां ॥ 
जेहि  नारकी पीर निबेरे । सुमिर नित नाउ रमा पति केरे ॥ 
ऐसे पापियों को में बाँध कर लाता हूँ फिर उन्हें नरक -कुंड में उन्हें भली -भाँति पकाता हूँ | जो नारकीय जीवों की पीड़ा का हरण करने वाले रमानाथ भगवान श्रीहरि का नित्य स्मरण करते हैं, 

धर्म परायन सोए सुखारे ।पार गावं मम सदन दुआरे ॥ 
द्युति गति ते  बैकुंठ जावैं । सत कृत संग परम पद  पावैं ॥ 
जो धर्म-परता पुरुष हैं वह मेरे इस स्थान को सुगमता पूर्वक छोड़कर विद्युत गति से वैकुण्ठ धाम को जाते हैं और वहां अपने सत्कृत्यों से परम पद को प्राप्त होते हैं | 

मानस तन तब लगि अघ ठहरे  ।जबलगि जिह्वा हरि नाउ धरे  ॥ 
जपन रहित रसना  जिन्हकि   ।होत सदा नारक गति तिन्हकि  ॥ 
मनुष्य के शरीर में पाप तब तक ठहरता है जब तक उसकी जिह्वा ईश्वर का स्मरण नहीं करती | जिसकी जिह्वा एकात्म ईश्वर के स्मरण से रहित होती है उसकी सदैव नारकीय गति ही होती है | 

 दूतक पापक लेइ अनाई । तुअ सम दीठ न देइ दिखाईं ॥ 
ऐतद नृप गवनउ इहँ संगे । सब बिधि सुखप्रद  प्रसंगे ॥ 
मेरे दूत पापों का आचरण करने वाले अधर्मियों को ही यहाँ लाते हैं, आप जैसे धर्मात्मा तो उनकी दृष्टि से ओझल होते हैं | एतएव हे राजन ! आप यहां से लौट जाइये और सब भाँती से सुखप्रद स्वर्ग लोक के प्रसंग में -

सब दिब्य भोग तहँ उपजोगिहु । मरनि लोक के सत्कृत भोगिहु ॥ 
जनकहि अवनत पलक उतोले । अरु अबरुधित कंठ सों बोले ॥ 
रहते हुवे वहां के सभी दिव्य भोगों का उपयोग कर  मृत्युलोक में किए पुण्यों का उपभोग कीजिए | राजा जनक अवनत पलकें उठाकर  अवरुद्ध कंठ से बोले - 

दुःखार्त जीव पुकारत, उमरे दया अतीव । 
अस कह कन कंचन झरे, तज लोचन राजीउ ॥ 
दुखारत जीव मुझे पुकार रहे हैं मेरे हृदय में दया का सागर होलोरे ले रहा है ऐसा कहते हुवे उनके पद्म लोचन को त्याग कर अश्रु रूपी कंचन कण झरने लगे | 

रविवार,२२ मार्च २०१५                                                                                             

कहए जनक सत कहि बत  तोरे ।सुनौ नाथ एक गदनहु मोरे ॥ 
दरस नारकी दुःख जीमूता । होत मम हरिदै द्रवीभूता ॥ 
राजा जनक ने पुनश्च कहा - आपका कहना भी सर्वथा सत्य है हे नाथ ! अब मेरी भी एक वार्ता सुनो !  नारकीय जीवों के पहाड़ जैसे दुःखों को  हृदय द्रवीभूत हो जाता है |                                      

मम तन पौ तीन बहुंत सनेही । इहाँ बसन के कारन ऐही ॥ 
आरत जीउ जब मुकुति दइहौ । मोहि सुरग पयानत पइहौ ॥ 
मेरे तन की वायु इन्हें अतिशय सुख देती है यहाँ बसने का मेरा यही उद्देश्य है | जब आप इन आर्त जीवों को मुक्त कर दोगे तब मुझे स्वर्ग प्रस्थान करते पाओगो | 

धर्मराजु अस कृत कल्याना । होहि सुखद तव दास पयाना  ।। 
पलक होर बोले जम राजू । एहि जो तुहरे समुह  बिराजू ॥ 
हे धर्मराज ! इस कल्याणकारी कृत के द्वारा आपके दास की यात्रा सुखमय होगी | एक क्षण ठहर कर धर्मराज बोले - ये जो आपके सम्मुख खड़ा है  

आपन हितु कर प्रिय तिय संगे ।किए ए पामर बलात प्रसंगे ॥ 
रहेउ जिन सहुँ परम प्रतीती । हित संगत जस हितु की प्रीती ॥ 
इस पापधमी ने अपने हितकर्ता मित्र की प्रिय संगनी के साथ बलात प्रसंग किया था | जो इसपर पूर्ण विशवास करती थी इसके मित्र की इसपर प्रीति भी मंगलाकांक्षी के जैसी थी | 

लोहू संका नरक दईया ।बरस सहस दस देत कढ़ैया ॥ 
सूकर जोनि  दे तदनन्तर । करिहउँ नपुंसक दए जोनि नर ॥ 
इसे मैं लौहशङ्का नामक नरक में डालदिया और एक सहस्त्र वर्ष तक कड़ाई में पकाया | इसके पश्चात  इसे शूकर की योनी देकर फिर इसे मनुष्य शरीर देकर नपुंशक नर के रूप में उत्पन्न करूंगा| 

अबरु ए पामर.....पापधी, पर तिअ नेकहि बार । 
कूट कुटिल कुदीठ करत, भरे अंक बरिआर ॥
और ये दुष्ट.....पापधी पराई स्त्री को एक क्या अनेक बार कपट कुटिल कुदृष्टि करते हुवे उसका बलपूर्वक आलिंगन करता था | 

 तापित तोए एहि तिराइहि ,कंठनि पासक कास । 
अपनी करनी भुगत किए प्रतिछन मोचन आस ॥ 
इसके कंठ को दण्डपाश से कसकर इसको मैने तप्त जल में तैराया अब यह अपनी करनी भुगत रहा है और प्रतिक्षण यहाँ से मुक्ति का प्रत्याशा करता है | 
सोमवार, २३ मार्च,२०१५                                                                                                    

अरु दरसिहि सहुँ जो कर जोरे । कुबुद्धिन कुकरम किए न थोरे ॥ 
पर धन सम्पद दीठ धरावै । सेंध लगावै लेइ चुरावे ॥ 
और ये जो हाथ जोड़े आपके समक्ष दिखाई दे रहा है इस कुबुद्धि ने थोड़े कुकर्म नहीं किए हैं | इसने पराई सम्पदा पर दृष्टि की और सेंधलगाकर उसका हरण किया | 

ऊँचे पद न लहै ऊँचाई । नीची करनी नीच गिराई  । 
अबरु भाग जो आपहि भोगए । पूअ सोनित नरक तिन जोगए ।। 
ये बड़े ऊँचे पद पर प्रतिष्ठित था | ऊँचे पद पर आसीन होने  से ऊंचाई प्राप्त नहीं होती, करनी भी ऊँची होनी चाहिए अन्यथा नीची करनी नीचे ही गिराती है  | जो दूसरों के भाग का चोरण कर उसका  स्वयं उपभोग करता है पूयशोणित नर्क उसके  लिए ही है | 


बसे पापि तहँ अस उद बासे ।पिसि पाचक बसि पूअ सकासे ॥ 
अरु एही खल किए अस खोटाई । तेहि  करनि मुख बरनि न जाई ॥ 
इस प्रकार के पापी ऐसे जलस्थ स्थान में रहते हैं जैसे वे गर्म कढ़ाई में के पुए हों | और ये नीच इसने ऐसी खोटाई की की उसका मुख से तो वर्णन नहीं हो सकता | 

आए घर जो अतिथि सम देवा । एही पोचक पति करे न सेबा ॥ 
अस कारन एही प्रान बिजोगे । भयउ तामिस नरक के जोगे ॥ 
गृह में आए हुवे देव समान अतिथियों की इस अधम अतिथिपति ने कभी सेवा नहीं की इस कारण यह प्राण से वियोजित हो गया और तामसी नर्क में जा गिरा | 

भाड़ भीत भर भँवर भयंकर ।सतक बरख दुःख सहिहि ए पामर ॥ 
अब भाड़ के भीतर भयंकर अब यह दुष्ट  शतक वर्षों तक तप्त रेत की यातना सहेगा | 

 एहि मह  सठ मुख पर लोगन्हि , निन्दत नहीं लजाए । 
जो को निन्दित बचन कहै, श्रवनए कान लगाए ॥ 
और ये महा दुष्ट ! इनका  मुख  पर जनों  की निदा करते लज्जित नहीं  होता था  | जो कोई निंदा वचन कहता यह उसे कान लगाकर सुना करता था  | 


मंगल/ बुध ,२४/२५  मार्च,२०१५                                                                                                                                                                                   

एहि दुहु सठ बंगिहि हे भूपा । दुःख लहत परेउ अंध कूपा ॥ 
दरसिहि जो उद्बेग बिसेखे । हिती द्रीहि जान बिदबेखे ॥ 
ये दोनों पापी कुटिल थे एतदर्थ् अब ये अंधकूप नामक नरक में गिरकर दुःख भोग रहे हैं | यह जो विशेष उद्विग्न दिखाइ दे रहा है अपने मित्रों के प्रति विद्वेश करते हुवे इसने उनके साथ विद्रोह किया | 

धरे अबरु बिध्बंस के मंसा । करे आपहि गेह बिध्बंसा ॥ 
मरतहि रौरव  नरक अनाई । भाभरी भरे भाड़ भुँजाई ॥ 
दूसरों के विध्वंश की मंशा रखते हुवे इसने स्वयं अपना ही घर विध्वंश कर डाला | मृत्योपरांत इसे रौरव नरक में लाया गया अब यह तप्त धूल कणिकाओं से भरे भाड़ में नित्य भूंजा जाता है | 

एहि सब सठ किए पाप अपारा ।  फल भुगतिहि तब छुटि ए दुआरा ॥ 
कृति सत्कृत तुअ धरम सँजोइहु ।  एहि हुँत इहँ के जोग न होइहु ॥ 
महाराज ! इन सब दुष्टों ने असीमित पाप किए हैं इनका परिणाम भोग कर ही ये इस नरक द्वार से मुक्त होंगे | आपने सत्कार्य करते हुवे पुण्यों का संचय किया है इसलिए आप  इस स्थान के योग्य नहीं हैं | 

अजहूँ मोर कही सत मानौ । नरनागर बर लोक पयानो ॥ 
मिथिलापति पुनि पूछ बुझाईं । कहौ नाथ हे कवन उपाई ॥ 
अब मेरे कथनों को सत्य मानकर आप नरनागर के उत्तम लोक में प्रस्थित होइए | मिथिलापति जनक ने पुनश्च  प्रश्न किया --'हे यमनाथ ! कोई तो उपाय कहिए | 

दुखी जीव अस सोहि हमारे । होइहि जस तिनके उद्धारे ॥ 
जनक बचन सुन जम पत कहहीं ।एहि पापक हरि चरन न गहहीं ।। 
जिससे मेरे सम्मुख इन दुःखार्त आत्माओं का नर्क से उद्धार हो | जनक के वचनों को सुनकर यमपति ने बोले -- इन पापियों ने कभी ईश्वर के चरणों में प्रणाम नहीं किया है | 

तापर निज करमन कोष अस अस पाप सँजोहि । 
कहौ आपही मोहि एहि नरक मुकुत कस होंहि ॥  
ऊपर अपने कर्म कोष में इन्होने फिर ऐसे ऐसे  पाप संचय किए हैं  नहीं किया जा सकता | अब आप ही मुझे बताइये इनका नरक से उद्धार कैसे होगा ? 

सिद्ध सयान जनक जुग पानी । पूछे जम पति सोहि सुबानीँ ॥  
करौं जहँ अस  कवन अनुठाने ।  तरपत जिउ मोचन सुख दाने ॥ 
सिद्ध सुबुद्ध जनक ने यमपति से हाथ जोड़कर मधुर वाणी में पुनःश्च प्रश्न किया -- में यहाँ ऐसा कौन सा अनुष्ठान करूँ जो इन तड़पते हुवे नारकीय जीवों को उन्मोचन का सुख प्रदान करे | 

पुनि जम ऐसेउ जुगति कहेउ । नाहु जो तुअ मोचनहि चहेउ ॥ 

निज कृतफल तिन्ह दे दीज्यौ । कवन सत्कृत सो सुनि लीज्यो ॥ 
ततपश्चात यम ने  ऐसी युक्ति के विषय में कहा -- राजन ! यदि आप नारकीय जीवों का उद्धार ही चाहते हैं तो अपने पुण्य का प्रतिफल उन्होंने दान कर दीजिए | वह कौन सा पुण्य है ? लीजिए वउसे भी सुन लीजिए | 

एक समय जब भयऊ प्रभाता । बिभउ छयत निज ढरकिहि राता ॥ 
जागत तुअ सो नाउ ध्याना । जो जग महत्तम पाप नसाना ॥ 
एक समय जब चन्द्रमा क्षरण कर ओसमयी रात्रि ढलान पर थी और भोर हो रही थी,  प्रात जागरण कर तब आपने उस नाम का ध्यान किया जो संसार के महान पापों को नष्ट कर देता है | 

मुख जो रामहि राम उचराएँ ।  एहि पापधी ओहि पुन  धराएँ ॥ 
जमनाहर जस अस  कह पारे । बहुरि जनक तीन देइ उदारे ॥ 
आपके श्रीमुख जिस राम राम का उच्चारण हुवा इन अधर्मियों वही पुण्य दे दीजिए | यम नाहर जैसे ही ऐसा कहा  जनक ने  वैसे ही उक्त पुण्य का उदारता पूर्वक दान कर दिया | 

जीवन भर जो धरम सँजोईं ।  देत जनक कछु सोच न होईं ।। 
कहत जाबालि बहुरि भुआला । दुखित जीउ छुटिहहि तत्काला ॥ 
ढ़हिरबुद्धि जनक ने आजीवन जिस धर्म का संचय किया था उसे दान करते समय उन्हें लेशमात्र भी संकोच नहीं हुवा, जाबालि कहते हैं -- हे राजन ! ततपश्चात वे आर्त जीव नरक से उन्मोचित हो गए और  दिब्य देह धारन करे,बोले हे महराए । 
भाई कृपा बहु आपनी,दुःख सों हमहि छढ़ाए ॥ 
दिव्य देह धारण कर जनक से बोले हे महाराज ! आपकी हमपर अत्यंत कृपा हुई कि आपने हमें कष्टों से मुक्ति दिलवाई | 

सब गेह सुरग सरिस हैं नारक गेह रसोइ | 
माया केरे आँधरे दरस सकै नहि कोइ || 
प्रत्येक रसोई एक नरक  है और प्रत्येक घर एक स्वर्ग है, जो माया के मोह में अंधा हो गया उसे मृत्यु से पूर्व ये स्वर्ग-नर्क दिखाई नहीं देंगे | 

बृहस्पतिवार २६ मार्च २०१५                                                                                            

पाए परम पद नाथ कृपालू । तुहरे हरिदै बहुंत दयालू ॥ 

छूटे प्रानि  नरक  के पासे  । गहै रूप जस सूर बिभासे ॥ 
आपका ह्रदय अत्यंत ही दयालु है आपके दिए पुण्य से हमें परम पद प्राप्त हुवा | नरक के पाश से मुक्त हुवे उन जीवों ने सूर्य की प्रभा से युक्त रूप धारण किया | 

दरस तेहि निज नयन झरोखे । जनक मनहि मन संतोखे ।। 

 हृदय हरि कर मुख हरि नामा ।चले सकल बैकुंठ धामा ॥ 
अपने नेत्र झरोखों से उन्हें देखकर जनक का मन ही मन संतोष किया मुख में ईश्वर का नाम हृदय में ईश्वर की छवि को स्थित कर फिर वह नारकीय वैकुण्ठधाम चल दिए  | 
  दुखित जीव के होत बिदाई । जनक बहुरि जम पूछ बुझाई ॥  
पाप करम कर कोष लहेऊ । आए नरक यह तुअहि कहेऊ ॥ 
दुखी जीवों की विदाई होते ही जनक ने धर्मयज्ञों में श्रेष्ठ यमनाथ से पुनश्च पूछा -- आपने कहा था कि कर्म कोष में पापन का संचय करने से  नरक में आते हैं | 

रहे रत धरम बारता माहि । सो नर नरक पुर आवहि नाहि ॥ 
केहि तापा केहि संतापा । आन भयऊँ कृत केहि पापा ॥ 
धर्मवार्त्ताओं में जिसकी रूचि रहती है वह मनुष्य इस नरक द्वार पर नहीं आते |  ऐसा कौन सा ताप अथवा संताप था कहिए किस पाप कृत्य के कारण मैं यहां आया ? 

तुम् जम तुम धर्मिनु पुरुख  दौ मोहि ए ग्यानु । 
करे करम कारन सहित बिहान संग बखानु ॥ 
आप धर्मात्मा हैं, यम नाथ हैं आप मुझे ज्ञान दीजिए | आप आरम्भ से मेरे उन  कर्मों का कारण सहित व्याख्यान कीजिए | 


शुक्रवार,२७ मार्च,२०१५                                                                                               

 मैं निर्बुद्धि मोहि बताऊ । अप कृत कारन कह समुझाऊ ॥ 
धर्म राज अस बचन उचारीं । राजन तव सब कृत सत सारी ॥ 
मैं निर्बुद्धि हूँ कृपाकर मुझे बताइये मेरी अपकृति को कारण सहित समझाइये | धर्मराज ने कहा --'महाराज ! आपके सभी कृत्या सत्कृत्य ही हैं | 

तुम् रघुबर के परम सनेही । तुहरे सम कृत करे न केही ॥ 
तुम भँवरे प्रभु पद अरविंदा ।तुम रसिक प्रभु रूप मकरंदा ॥ 
आप अयोध्यापति रघुनाथ के परम स्नेही हैं आपके समान सत्कृत्य किसी ने भी नहीं किया |  प्रभु के  चरणारविंद के भँवरे हैं  आप उन्हे रूप मकरंद का रसपान करने वाले हैं | 

कीर्तिमई तुम्हरी गंगा । पावन पापीन्हि  मल संगा ॥ 
गंग बिंदु रसना जौ पावै  ।सकल मलिन मल पल पबितावै ॥ 
आपका  कीर्तिमई गंगा पापियों के मल से युक्त होकर भी पावन है जिस रसना को गंगा की बुँदे प्राप्त होती हैं वह अपने पापों से मुक्त होकर क्षणमात्र में पवित्र हो जाता है | 

तव जस गायन जस रस धारा ।जो अवगाहि सो पाएं पारा ॥ 
तथापि एकलघु अघ गोसाईं । संजमनी पुर लेइ अनाईं ॥ 
आपकी कीर्ति का गायन जैसे रस की धारा है उसका अवगाहन करने वालों का उद्धार हो जाता है तथापि आपके किए हुवे लघु पाप ने आपको संयमनी पूरी के द्वार के सम्मुख  ला खड़ा किया | 

एक समऊ तुम्ह बिचरत भरेउ रूप अबुद्ध  । 
चरती चातुरि अस्तनी चरन करे अवरुद्ध ॥ 
एक समय की बात है -- आप अज्ञानता का वेश धरे विचरण कर रहे थे एक चतुःस्तनि कही चर रही थी आपने वहां जाकर उसके चराने में अवरोध उत्पन्न किया | 

शनिवार२८मार्च २०१५                                                                                         

ऐसेउ दोष किए जो कोई । नरक दुअरिआ दरसित होई ॥  
अपने कृतफल  देइ उदारे ।एहि कर दूरए  दोष तिहारे ॥ 
जो कोई इस प्रकार का दोष करता है उसे नरक की द्वारी देखना पड़ता है | आपने अपने पुण्य के फल को उदारता पूर्वक दान किया इस हेतु आपका यह दोष दूर हो गया | 

लहेउ कृतफल बिबिध प्रकारा । कर्म कोष भर धर्म अपारा ॥ 
अजहुँ हेतु एहिसुरग दुआरे । नाहु तिहारे पंथ निहारे ॥ 
अपने सत्कृत्यों से आपने नाना प्रकार के फल अर्जित किए हैं  आपका कर्मकोष अपार पुण्य से भरा है इस हेतु  हे राजन ! इस समय स्वर्ग का द्वार आपकी प्रतीक्षा कर रहा है | 

हम अजान प्रभु अंतरजामी । धर्म पूँज के जान  स्वामी ॥ 
दुखी जिउ दुःख हरन तुअ ताईं  । एहि महमारग तोहि पठाईं ॥ 
हम अज्ञानीऔर प्रभु अन्तर्यामी हैं आपको धर्म का पूंजीपति जानकर  नाथा ने कदाचित आपको  दुखी जीवों का हरण करने के हेतु  संयमनी के इस महामार्ग में भेज दिया  | 

परे नरक जो दीन दुखारे ।गहि सुख सम्पद आन तिहारे ॥ 
होउब ना  तुम अतिथि हमारे । होइब कैसे दुखी सुखारे ॥ 
जो दीन- दुःखार्त नरक में पड़े हैं आपके आगमन से जैसे उन्हें सुख की सम्पदा प्राप्त हो गई | यदि आप हमारे अतिथि नहीं होते तो इन जीवों का उद्धार कैसे होता | 

अबरु  दुःख सँग  होत दुखी दयाधाम तव सोहि । 
दुखारत दीठै जहँ कहँ,निबरन तत्पर होहि ॥ 
आपके जैसे दयाधाम महात्मा दूसरों के दुःख से दुखी होते हैं उन्हने जहन कहीं भी कष्टिन दिखाई देते हैं वह उसके निवारण हेतु सदैव तत्पर रहते हैं | 

रविवार, २९ मार्च २०१५                                                                                                   

चले सुर धाम जनक बहोरी ।  आयसु मागि दोइ कर जोरी ॥ 
कहत जाबालि हे नर नाहू । धेनु पूजन फले सब काहू ॥ 
इसके पश्चात राजा जनक धर्मराज से दोनों हाथ जोड़कर आज्ञा मांगकर परम को प्रस्थित हुवे | जाबालि कहते हैं -- हे नरेश ! धेनु पूजन  सभी सभी को फलीभूत होता है  | 


जो गौवन कर पूजन कीन्हि ।  जो मन चाहए सो सब दीन्हि ॥ 
तुमहु पयद पावनी पूजिहौ  । धरम परायन जात जनीहौ ॥ 
जो गौ की पूजा करते हैं उनकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं | आप पयदायनी उस पवित्रता की मूर्ति का पूजन करिएगा संतुष्ट होने आप धर्मपरायण पुत्र को जन्म देंगे | 

जब गउ सेवा टहल सकारे ।  सकल कामना पूर्ण कारे ॥  
आस केरि एक किरन बिकासी । ऋतम्भर मन भए जिग्यासी । 
जब गौ सेवा-सुश्रुता स्वीकार्य कराती है तब सभी ीछें पूरी हो जाती हैं | ऋतंभर को एक आशा की किरण दिखाई दी उनका मन जिज्ञासु हो गया, 

जाबालि कहि सो बचन अनुहर । कांति मुख सों पूछे सादर ॥ 
धेनिहि बंदन बिधि को होई । नेमाचरन करे कस कोई ॥
जाबालि के कहे वचनों का अनुशरण कर कांतिमय मुख से उन्होंने प्रश्न किया --- मुने ! धेनु वंदन की विधि कौन सी है ?  उसका नियम व् आचरण किस प्रकार से किया जाता है ? 

मंद मुख जब कांति छाई । जाबालि मनहि मन बिहसाईं ॥ 
धेनु पूजन के बिधि बिधाने । बाँध फेर एहि भाँति बखाने ॥ 
उनके मलिन मुख पर छाई  कांति को देखकर जाबालि मन ही मन हंस पड़े फिर  इस प्रकार से गौ पूजन के विधि-विधान का क्रमानुसार  व्याख्यान  | 

नृप ब्रत धारि सेवा चारि नित चरवावन गउ बन गवने । 
जवन पवावै जो सकृत महुँ आवै  सकलत कर लेइ चुने ॥ 
जब बहुरावै जो चुग खावै,सेवा बिधि जस गयउ कहे । 
गउ तिसनावै जब जल पावै तबहि आपहु जल गहै ॥ 
राजन ! गौ सेवा का व्रत लेनेवाले प्रति दिन गौ चराने गौ के साथ वनस्थली जाए |  उसे जाओ का आहार दे तथा गोवर में आए गौ को चुनकर संकलित कर ले | जब वह लौटे तो उन चुगे हुवे जौ का भक्षण करे पुत्र प्राप्ति की इच्छा रखने वाले पुरुष के लिए गौपूजन विधान के सम्बन्ध में यही कहा गया है | जब गौ त्रिषालु हो और जल ग्रहण कर ले उसके पश्चात वह स्वयं भी जल ग्रहण करे  | 


मातु ऊँच अस्थान रहैं आप रहें नीचाए । 
निसदिन तन को डाँसते मत्सर दे निबराएं ॥ 
माता ऊँचे स्थान पर तो वह स्वयं निम्न स्थान पर रहे निस दिवस उसके देह पर के डांसों व् मक्खी मच्छरों को हटावे  | 

सोमवार, ३० मार्च, २०१५                                                                                             

गउ हुँत हरिदा आपहि आनएँ । करत नेह अपने कर दानएँ ॥ 
सेवा सुश्रुता किए अस कोई । भावें जोए माँगत मिले सोई ॥ 
वह गौ के लिए स्वयं हरित ग्रास लेकर आए और उसे स्नेह पूर्वक खिलावे | जो गौ की इस प्रकार सेवा-टहल करता है उसको मनोवांछित सिद्धियां प्राप्त होती हैं | 

सुनत जाबालि मुनि के बचना ।  ऋतम्भर सुरतत रमा रमना ॥ 
सुचितचेतस बंदन ब्रत गहै।सुरभि सेवन्हि संकलप लहै ॥ 
जाबालि मुनि के कथनों को श्रवण कर श्री रमारमण का स्मरण करते हुवे ऋतंभर ने फिर सूचित चित्त से गौ पूजन का व्रत लिया और सुरभि की सेवा करने का संकल्प किया | 

सुबुधि कहे सब बिधि अनुहारै । भयउ पावनी के रखबारे ॥ 
प्रति दिवस चरावनु बन जाईं । पूजत करें नित सेवकाई ॥ 
सुबुद्ध जनों की कही गौ पूजन की सभी विधियों का पालन किया तत्पश्चात वह गौरक्षक हो गए | प्रतिदिवस  वह गौ को चराने महावन जाया करते तथा नियमपूर्वक उसकी पूजा व् सेवा -सुश्रुता करते | 

भई मुदित जब सेवा सोंही । मानस के जस गिरा सँजोही ॥ 
हर्ष मधुरिम बोलि हे राया ।जस तुहरे उर के अभिप्राया ॥ 
जब गौ ऋतंभर की सेवा से प्रसन्न हो गई तब वह मानव के जैसे वाणी से संयुक्त होकर गदगद स्वर में मधुरता से बोली - हे राजन ! आपके हृदय में जैसा अभिप्राय है, 

जो तुहरे चितबन भाए मांगो अस बर कोइ ।  
कृपामृत सानि बानि जस मृतक जिआवनि होइ ॥ 
जो आपके मन को भावे ऐसा कोई वरदान मांगों | कृपामृत से ओत-प्रोत यह  गौ वाणी मरणासन्न को जीवन प्रदान करने वाली थी | 

मंगलवार, ३१ मार्च, २०१५                                                                                               

मृदुल बाग बोले नर नाहा ।देई ऐसो सुत मैं चाहा ॥ 
पितु कुल सेबक हो बहु नीके । होए बछर जो रघुबर जी के ॥ 
राजा ऋतंभर  मृदुल वाणी से बोले -- 'देवी ! में ऐसा पुत्र चाहता हूँ जो परम सुन्दर हो, अपने पितृ कुल का सेवक हो, श्री रघुनाथ जी का भक्त हो, 

सील बिरध अरु धरम परायन । अस कह राजन  उरगाए बदन ॥ 
नृप मन भावन माँग जनायो । दयामई माँ मँगे सो दायो ॥ 
शीलवान और धर्मपरायण हो ऐसा कहकर राजा ने मनोवांछित मांग को प्रकट कर मौन धारण कर लिया |  राजा ने जो माँगा दयामयी  माता ने वह दे दिया | 

माई तहँ सो अंतर्धयानए । जने राउ पुत  अबसर आनए ॥ 
चहे सोई लक्छन गहेऊ । सत्यवान सुभ नाउ धरेऊ ॥ 
माता वहां से अंतर्ध्यान हो गई अवसर आने पर राजा ऋतंभर ने पुत्र को जन्म दिया जो उनके द्वारा अभिलाषित लक्षणों से युक्त था, उन्होंने उसका नाम सत्यवान रखा | 

दिन दिन मास  बरस बन बीते । भगवन्मय सुत पितु मन जीते ॥ 
अमित पराक्रमि तासू सरिसा ।हेरत मिलेउब नहि चहुँ दिसा । । 
इस प्रकार दिवस दिवस मिलकर मास तत्पश्चात वर्ष बनकर व्यतीत होने लगे,भगवनमय पुत्र ने पिता का मन जीत लिया | चारों दिशाओं ढूंढो तो भी उसके जैसा अमित पराक्रमी का मिलना कठिन था | 

भगवनमय पुत पितु भगत,धर्म परायन जानि । 
ऐसे जनित जनाए के भूपति मन हरषानि ॥ 
अपने भगवन्मय पुत्र को धर्मपरायण व् पितृ-भक्त जानकर तथा ऐसी संतान को पुत्र के रूप में प्राप्त कर राजा ऋतंभर का मन हर्षित रहने लगा | 













  



  





































  















1 comment:

  1. नीतू जी , मैंने आपके दोहे/ छंद पढे . सभी शिल्प , कथ्य और संस्कृति से परोपूर्ण हैं बहुत धन्यवाद धन्य हैं आप
    क्षेत्रपाल शर्मा
    17.03.15शांतिपुरम , सासनी गेट आगरा रोड अलीगढ 202001

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