Monday 2 March 2015

----- ॥ हर्फ़े-शोशा 2॥ -----

मर्ज़ तिरा ज़ियाबर्तानिशी है ?
दो गज़ की तिरी हैसीयत नहीँ है..... 

ज़िया बैतिशी = मधुमेह 
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अपनी इज्जत अपने हाथ जोंग सँभाले रख..,
मर्दानी जनानियों वाला वो जमाना तो है नहीं.....  

सत्ता की बागडोर गोले-गोली भी तो नहीं है..,
ऐसे-वैसे को थमा सर पे फुड़वाना तो है नहीँ..... 
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रहे-रस्मो-रब्तगी से ए ग़ाफ़िल संभल..,
 कुछ बदलने से पहले तू खुद को बदल.....

रहे-रस्मो-रब्तगी = लेनदेन, मेलमिलन 
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शाहों ने ही सिपर शाम पे स्याहकारी लिखीं..,
सितारों को खलाओं में जमा करता है शेखू..... 

सिपर शाम = ढलती शाम 
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मौजे-दरिया की इयत्ता न पुछिये..,
उतर के देखिये वहां भी ज़मीं होगी.....

इयत्ता = गहराई, थाह
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शम्म -ए-रुखसार से रौशन है ये महफ़िल ? 
मैं कहूँ तेरे लबे-जू की दहक का ताब है.....  
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बिके जहां इन्साफ वहाँ की चारदीवारी तोड़ दो..,
रयत दार के रहन रखी तुम अपनी लाज मांगों.....
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खैराती माल से ही, है मलिके-मुल्क मालामाल..,
तेरे महल्ले उसका,वो ख़ानक़ाह है कि महल है.....
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मर गया वो ज़ाहिर-बीं अपनी मौत से पहले..,
हबाबी दुनिआ को जो आक़बत समझता है.....

ज़ाहिर-बीं = जाहिर परस्त, जो केवल दृष्यमान पर विश्वास करता हो
हबाबी दुनिआ = पानी के बुलबुले जैसा संसार, क्षणभंगुरी दुनिया
आक़बत = परलोक

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Shri Krshna ne Shrimad Bhagawad Gita mein spashta shabdomein kaha hai : "Yukt Ahar-viharasya, 
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ऊंचा है दरबार तेरा मेरी नीची निगाह.., 
मैं जब्हे जफ़ाशियार तेरे लबों पे आह..... 
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दुश्मन को मिरे काम से आराम नहीं है.., 
अपने को भी घर में कोई काम नहीं है.., 
दुश्मन के बड़े नाम बड़े बड़े एहतराम..,
अपना तो दुनिया में कहीं नाम नहीं है.....

जेल भी चले जाएंगे तो वांदा नई.....
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इनसानियत आदमियत की नियत हुई ऐसी.., 
जिनावरों की सफ़े-जमीन से हस्ती ही उठ गई.., 
बद अमनी बद दयानती क्या तिरी नज़र लगी.., 
कि मिरे बागो-गुलसिताँ से गुल-बहारा रूठ गईं..... 
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तू आईना-ए-हिंद है के बदरू मुजस्सम कोई..,
तेरा अक्स उतरे मुझे हर आइना बदखू लगे.., 
तेरा नसीब सवारूँ आ तेरी सीरत को सजाऊँ.., 
इस कदर बनाऊँ कि तू वजाहते-वजू लगे.....

इसे खेतों में बैठाओ कोई आबशार उतारो.., 
फिर देखो आइना-ए-तस्वीर का रंग.....

आईना-ए-हिंद = संविधान..... 
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गंगा आए गंगादास जमुना जमुनादास
तू बस मैला ढोते रहना

अपनी करनी पार उतरनी
तू बस नैया डुबोते रहना

दे जो आटा दाल वही देगा ज्वाल
तू मुंह में थूक बिलोते रहना
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पाँच दिवारी दस दरवाजे एक, बानी को दरबार..,
ता पर राजे म्हारो प्यारो, साँवरो सरकार री म्हारो स्याम जी सरकार.....
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हे री बँसरी अधर आधारे मधुबन धेनु चरैय्या..,
बैठो जमुना किनारे मोको, लागे प्यारा कन्हैय्या.....

गोरी गोरी म्हारी राधिका, साँवरो कन्हैय्या..,
यह चितवन की चोरनी वो, माखन का चोरय्या..,

छापन कलि को घाघरो घिर मटकावै कलैय्याँ..,
चारु चरन मैं झाँझरी घारे, नाचे ता ता थैय्या.....
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ये अरगवानी दामन घटाओं पे छाए..,
फ़लक पे धनक बन कयामत ही ढाए..,
कहीं साहिलों पे लहर होके रब्ता..,
कोई साज़ छेड़े गज़ल गुनगुनाए.....


अरगवानी दामन = शफ़क, लाल-शहाबी दामन
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छंद पकैया छंद पकैया कानों में रस घोलूँ..,
साली जो गल बाहीं ले तब दूजा छंद मैं बोलूँ.....
छंद पकैया छंद पकैया कैसो जे ससुराल्यो..,
माखन सी साली रख ली छाछ गल में घाल्यो.....
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हर्फ़ सियाही शिराजां किए मिरे हज़ूर को दाग़ लगे 

ग़मे-शब गफलतों ख़्वाब में सुब्हे दम को जाग लगे  
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न ज़र न जमुर्दीन न गिराँ लालो-गोहर रखना.., 
कहीं दाद मिले तू अपने फ़न में ज़ौहर रखना..... 
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सिपुर्दे ख़ाक हो के ऐ मशीर तुझे मौत आई..,
मारे शरम के मर जाता तो तेरा क्या जाता.....
मशीर = नसीहत करने वाला  
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हाशिए नसीन औ शम्म-ए- महफ़िल..,
उसकी ताज़ीर कि ताबे-निगाह होना..,
यह भी इक हासिल-कलाम है आखिर..,
उसकी किस्मत कि हर हाल तबाह होना.....

हाशिए नसीन = आस पास बैठने वाले
 ताज़ीर = सज़ा
 हासिल-कलाम = खुलासा
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कश्ती मन्ज़िले मौजूं है तेरी फ़राज कहाँ..,
नादाँ परिंदे तेरा फर्शो-फ़लक परवाज कहाँ.....

मौजूं : - सम्मुख 
फ़राज = ऊंचाई 
फ़लक परवाज = आसमान पर पहुँच 
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फ़लक की जरी तश्त है सितारों के हैं निवाले..,
हयाते-आब से भरे भरे महताबों के है प्याले.., 
जन्नत सी शबिस्ताँ कहीं ख़ाना-ए-ख्वार ख़ाँ.., 
लबों पे चश्मे-शबनम है जबाँ पे आहो-नाले..... 
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आफताब के दम पे है ये रौशने-रुखसार.., 
वरना तो महताब की हस्ती ही क्या है......
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पहले हो अमान हर ज़िस्त की हर जान की.., 
फिर जा-नमाज़ी हो गीता और कुरआन की..... 
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ज़र्रे-ज़र्रे को जेबे-महल कर जो नाज़ करता है.., 
अपनी सरजमीं के नाम को वही फ़राज करता है.....
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पहरन-ओ-सरो-पा चहदीवारी ये तिरा दर..,
 फिर लम्हे को सदियों का इन्तजार है शायद ...... 
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व्रण ह्रदय उद्गार भरे तलवार दो धारी लिखती है.., 
कलम उदर अंगार भरे चिलक चिंगारी लिखती है.....

 हृद व्रण = घायल ह्रदय 
चिलक = चमक पीड़ा पूर्वक 
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आबो-मीन जरी कारि उसपे जलवा चाँद का..,
सितारा ज़र निगारी उसपे जलवा चाँद का..... 
 ग़लताँ पेचाँ-ओ-परदाज़ 
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प्रभा से तिलक का तेज ले अरुण से ले अरुणाई..,
 चितहारू चारू चंद्रिका ने अपनी माँग सजाई..... 

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दूसरे की चुपड़ी से अपना सुखा परोसा अच्छा है.., 
शैतान के भरोसे से भगवान का भरोसा अच्छा है..... 
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तंत्र-यन्त्र कौशलता से संचालित होते हैं, जाति-धर्म धनता-निर्धनता से नहीं.....

वर्त्तमान परिपेक्ष्य में जातिगत अस्पृश्यता अर्थगत अस्पृश्यता में रूपांतरित हो गई है..,

यदि अस्पृश्यता एक गणितीय समस्या है, तो आरक्षण ऐसा सूत्र हैं जिससे इस समस्या का हल अभी तक प्राप्त नहीं हुवा, तथापि इस सूत्र का वारंवार प्रयोग हो रहा है क्यों ? क्योंकि सत्ता साधने का यह एक सिद्ध मंत्र है.....

किसी धर्म-जाति के सामाजिक उत्थान के लिए समय की आवश्यकता होती है, निर्धन को धनवान बनने में कितना समय लगता है? रातोरात का..... बेवकूफ,गर्दभ.....भैंस के आगे बिन बजा रहे हो.....

"सोते हुवे को सपने ही दिखाए जा सकते हैं"
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जिस अहिंसा के बल पर सत्ता धारी दल ने अंग्रेजों से सत्ता हड़पी थी वही अहिंसा आज उन्हें 'बांटने की राजनीति' लग रही है और हिंसा 'एकता की प्रतीक'.....यह उस दल के विचारों की विकृति है.....
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इस सत्ता धारी दल का आभामंडल इतना दिव्य है कि किसी भी विपक्ष ने उनसे यह पूछने का साहस नहीं किया कि 'गांधी जी' की ह्त्या उनके कार्यकाल में क्यूँ हुई, हिंसा रोकने के लिए संविधान में कोई प्रावधान क्यूँ नहीं किया,यह नहीं पूछा कि ये संविधान है..... या सत्ता धारी दल के विचारों की पोथी.....: )
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सत्ता, माया और पत्रकारिता इन तीन देवियों ने भारतीय संस्कृति छिन्न-भिन्न कर भारत को गर्त में धकेल दिया.....
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"एक नष्ट-भ्रष्ट तंत्र की आदर्श लोकतांत्रिक छवि गढ़ने में पत्रकारिता सबसे अग्रणी रही है....."

स्पष्टीकरण : -- छवि गढ़ना बोले तो मेकअप करना , ये तथाकथित पत्रकारिता है, फ़ोकट में कुछ नहीं करती.....
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बड़ी लिखने से ही लकीर बड़ी होती है, दूसरों की पोछने से अपनी छोटी लकीर बड़ी नहीं हो जाती

दूज लेखे पोछन से, होत  नहीं बड़ रेख ।
रेख तबहि बड़ होत है,  बड़ी जब लेख
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शासन चाहता है कि प्रशासन सदा कुहू कुहू करे और उसकी काऊँ-काऊँ पर ताली बजाता रहे.....
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आर्थिक आधार पर जो उच्च एवं उच्चतम वर्ग है, जो भोगवादी है( खाओ पियो और मौज करो का सिद्धांत), जो प्राय: दूरदर्शन एवं समाचार पत्रों में ही दृष्टिगत होता है, वह इस भ्रष्ट व्यवस्था का घोर समर्थक है  कारण स्पष्ट है भ्रष्ट व्यवस्था से ही उसके विलासिता के साधन अद्यतन रहते हैं, 
                                 एक  शिष्ट व्यवस्था में इनके विलासिता के साधनों का  बहुंत बड़ा योगदान होगा.....
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काव्यात्मक शैली में यदि  अनाचार ( दुराचरण, बुराई, अयोग्य आचरण, भ्र्ष्टाचार, कुचलन, कुरीति अभद्रता, अविशिष्ट, आचारहीन ) एक रस है तो विषयाभिरति उसका स्थायी भाव है.....  
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आज यदि भोगेगा तो कल उसे भुक्तेगा..... 
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पृथ्वी का आधे से अधिक  संदोहन विषय के विलासिताओं को संकलित करने में व्यय होता है । जीवन धन हेतु को छोड़ दें तो  भ्रष्टाचार इन्हीं विलासिताओं के उपभोग हेतु किया जाता है, अत: एक भ्रष्ट व्यवस्था को चुनते समय विकास की अपेक्षा न करें....सम्यक वितरण के अभाव में इतने सन्दोहन के पश्चात भी यदि विकास नहीं हुवा तो आगे भी नहीं होगा, अत: पहले अपना धर्म ठीक करें, जाति ठीक करें अपने विचारों को ठीक करें की भैया मुझे भ्रष्टाचार बलात्कार अनाचार को नहीं चुनना है.….

विभाजन के पश्चात भारत की प्राकृतिक सम्पदाओं का जितना दोहन हुवा है उतना सहस्त्रों वर्षों में भी नहीं हुवा..... 
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"उच्च एवं उच्चतम वर्ग को मध्यम बनाओ- गरीबी रेखा मिटाओ"
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शासन ने मध्यम वर्ग को दुधारू गाय बना दिया है जिसे वह दोह दोह कर निम्न वर्ग का पेट भरती है, और घास भी नहीं डालती..,हाँ उच्च एवं उच्चतम वर्ग को  राष्ट्रपति का  सजीला घोड़ा बना दिया है, जो बादाम खाता  हैं लात भी मारता हैं..... 
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एक खराब बात, सौ अच्छी बातों को खराब करती है.....
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 ये भ्रष्ट व्यवस्था ऐसी कसूती है, आज आप ने जिसे चुन लिया या कल जिसे चुनेंगे, परसों वही आपके धंधे को बंद कर देगा, आपकी नौकरी, आपकी आजीविका छीन लेगा..,और आप, गरीबी रेखा के नीचे आ जाएंगे और फिर कवि लोग एक बिंदु में आपकी जीवनी लिखेंगे..,

तो ? 
तू आईना-ए-हिंद है के बदरू मुजस्सम कोई..,
तेरा अक्स उतरे मुझे हर आइना बदखू लगे.., 
तेरा नसीब सवारूँ आ तेरी सीरत को सजाऊँ.., 
इस कदर बनाऊँ कि तू वजाहते-वजू लगे.....

आईना-ए-हिंद = संविधान..... 
इसे खेतों में बैठाओ कोई आबशार उतारो 
फिर देखो आइना-ए- तस्वीर का रंग 

 पहले मज़स्सम को संवारों फिर आइने बदलो..... 
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एक अचंभा ऐसा देख्या बाबा जी समझा रियो.., 
बैठा ऊंंची चौक्की पे था मीठा मीठा गा रियो.., 
रे धणी ज्ञाणी पाणी धन बहता होवै निर्मला..,
दस लाखाँ की बोतरी था भगता नु पिला रियो.....  
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सुन्दर आवरण आलेखन के प्रति आकर्षण उत्पन्न करता है, सुन्दर आलेखन लेखक के प्रति आकर्षण उत्पन्न करता है, इसमें सम्मोहन की शक्ति भी होती है..... 
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हमें नौनिहालों के मनो-मस्तिष्क में हिंदी भाषा के ज्ञान को संचित रखना होगा, अन्यथा भावि काल में वे संस्कृत के जैसे ही हिंदी भाषा के ज्ञान से भी वंचित हो जाएंगे.....
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जल ही जीवन है, जल का संरक्षण जीवन का संरक्षण है.....
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सेवा में प्रचार शब्द का कोई स्थान नहीं है, यदि सेवा अथवा सेवक का पचार होता है वह शीघ ही व्यापार और व्यापारी में परिणित हो जाता है सेवा अपने परमार्थ के उद्देश्य से भटक कर लब्धि में परिवर्तित हो जाता है । लब्धि का लोभ प्रगाढ़ होते ही कुत्सित कृत्यों से संस्पर्धा होने लगती है.....

पूर्व में प्रचार पर किया गया व्यय निम्न वर्ग के अभाव को क्वचित करता था माध्यम वर्ग की आधार भूत आवश्यकता उपलब्ध करवाता था । खेद है !  विद्यमान में यह व्यय उच्च वर्गीय संचार माध्यमों के विलास साधनों की व्यवस्था कर रहा है.....   
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 भारत देश के लिए अभाव वर्षों से अभिशाप के सदृश्य रहा  | अब यह अभाव इतना विवश हो गया है कि सत्ता इसे न केवल क्रय कर रही है अपितु अत्यंत अल्पार्घ/सहँगे में क्रय कर रही है  

अल्पार्घ/सहँगे में = सस्ते में  
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1 comment:

  1. बहुत खूब . सब अच्छा लिखा है . महात्मा विदुर जी ने कहा था कि ' समस्याएं असीमित हैं और समय सीमित है "

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