Tuesday 16 December 2014

----- ॥ उत्तर-काण्ड २५ ॥ -----

तेहि समउ एक जान मनोहर । देऊ लोक सों आन धरा पर ॥ 
हंस रूप उजरित मनियारा । चले पुलकस बैकुन द्वारा ॥ 
उसी समय देव लोक से एक मनोहारी विमान धरती पर उतरा जो हंस के समरूप उज्जवल था उसपर विराजित होकर पुल्कस् वैकुण्ठ द्वार की ओर चल पड़ा ॥ 

तहाँ निबास किछु समउ होरे । पंच कोस पिछु आनि बहोरे ।। 
तीन मुख कुल पुनि जनम जुगाए । पूज बिसुनाथ परम पद पाए ॥ 
वहां कुछ समय तक निवास कर पुनश्च कासी में उसका आगमन हुवा । एक ब्रम्हं कुल में जन्म लेकर विश्वनाथ की पूजा-वंदना करते वह परम पद को प्राप्त हुवा ॥ 

जद्यपि रहि अति पापि सुभावा ।तथापि सुधिजन संग प्रभावा ॥ 
दिए जम दूतक पीर भयंकर । सिला परस कर लेइ सकल हर ॥ 
यद्यपि वह अति  दुष्ट स्वभाव का था तथापि सुबुद्धि जन की संगति  का प्रभाव ऐसा हुवा कि यम दूतों ने उसे जो भयंकर पीड़ा दी थी शालिग्राम  के  स्पर्श ने वह पीड़ा हरण कर ली ॥ 

सालगाँउ के सिला अगाना । कथत कथानक हो न बिहाना ॥ 
तेहि ते मैं किछु कहा बखानी । करन पुनीत हेतु निज बानी ॥  
(इस प्रकार हे राजन ! ) शालग्राम की शिला का प्रसंग एवं उसकी कथा कहते रहिए किन्तु उसका अंत नहीं है | तथापि अपनी वाणी को पवित्र करने के उद्देश्य से उसका मैने कुछ संक्षेप में व्याख्यान किया | 

बिष्नऊ चरन को मरना सन को  हृदय भवन सिला धरें । 
ललाटपटल तुलसी दल देइ राम नाउ मुख सुमिरैं ॥ 
तुलसी दल दिए पद पयद पिए सो भव सागर सोंह उतरे । 
करन देह पावन भव सिंधु तरन हरि सिला पूजन करें ॥  

कोई वैष्णव आचरणि मरणासन्न हो तब उसके ह्रदय भवन में शालिग्राम की शिला व् मस्तक पर तुलसी दल रखकर मुख से  राम नाम का जाप करे | तुलसी मिले हुवे शालग्राम का चरणामृत का पान करे तो वह निश्चय ही इस संसार रूपी सागर के पार कर मोक्ष को प्राप्त करता है | देह को  पवित्र करने व् भवसागर से पार उतरने के लिए वह शालग्राम की शिला का पूजन करे ||  

सिला पूजन पान पयस, दे भव कूप निकार । 
बिंदु मह सिंधु समाहित, कहा किछु एकहि सार ॥ 
शिला का पूजन व् चरणामृत का पान ससंसारिक बंधनो से मुक्त कर देता है |  बिंदु में सिंधु का समावेश कर मैने उसकी महिमा को संक्षेप में कहा | 

बुधवार, १७ दिसम्बर, २०१४                                                                                           

कहत सुमति हे सुमित्रा नंदन । गंडकी गंग अनुपम बरनन ॥  
सुनत महातम सह भावारथ । रतन गींउ मन मानि कृतारथ ॥ 
सुमति कहते हैं :- सुमित्रानंदन ! गण्डकी नदी का यह अनुपम वर्णन एवं भावार्थ सहित उसका महात्मय श्रवणकर रत्नग्रीव का मन में (स्वयं को ) कृतार्थ माना | 

करत तेहि तीरथ अस्नाना  । तरपत पितर अर्चिष्माना ॥ 
धन धान सहित भूरिहि भेषा । दिए दीनन कर दान बिसेखा ॥ 
उन्होंने उस तीर्थ में स्नान कर सूर्यदेव एवं अपने पितृजनों का तर्पण करने के पश्चात वहां दीन -दरिद्रों को धनधान्य सहित प्रचुर मात्रा में वस्त्रो का विशेष दान दिया | 

सत्कृति कृत भए हरष बहूँता । बिष्नु सिला पद पूजन हूँता ॥ 
गहत नदी  हरी सिल चौवीसा । सादर पदुम पद धरे सीसा ॥ 
इस प्रकार सत्कार्य करके वे अतिशय हर्षित हुवे | फिर शालग्राम की शिला पूजन के उद्देश्य से गण्डकी नदी से चौविश शिलाएं ग्रहण की उनके पदुम चरणों में नतमस्तक होते हुवे  : - 

चन्दन तुलसी जल उपचारे । चढ़ा चरन पूजत सत्कारे ॥ 
तदनन्तर धीमान धरेसा । पुरुषोत्तम मंदिरु प्रबेसा ॥ 
चंदन, तुलसी, जल आदि उपचार चढ़ाकर उन चरणों का पूजन सत्कार किया | तदनन्तर धीमान राजा ने पुरुषोत्तम मंदिर में प्रवेश किया | 

एहि  बिधि क्रमबत पयानत, पहुंचे सो सुभ धाम । 
तरंगित पयधि पद जहाँ, सुरसरि करे प्रनाम ॥ 
इस प्रकार क्रमश: यात्रा करते हुवे वे उस तीर्थ में पहुंचे जहाँ गंगा तरंगमय सागर के चरणों को प्रणाम करती है | 

बृहस्पतिवार, १८ दिसंबर, २०१४                                                                                       

सिथिल श्रम बहुल पथरिल पंथा । तहँ गत बिगत पथिल भए श्रंथा ।। 
पथ एक त्रइ मुख पथक बिसेखा ।  नीलांचल थरी पूछ देखा ।। 
पंथ अत्यधिक पथरीला व् शिथिल करने वाले परिश्रम से परिपूर्ण था किंतु उस तीर्थ में पहुँचने पर पथिको की शिथिलता दूर हो गई | पथ में राजा ने एक ब्राम्हण से जिसे पथ का विशेष ज्ञान था नीलांचल पर्वत स्थली का परिचय पूछा | ( यह कहते हुवे : - ) 

जहँ के पाहन हिरन सकासे  । बसिहिं जहँ श्री हरिहि सुपासे ॥ 
देवासुर दुहु सीस नवावैं । कृपाकर सोइ ठाउँ बतावैं ।। 
जहाँ के पाषाण स्वर्ण की भांति हैं जहाँ भगवान पुरुषोत्तम सुखपूर्वक निवास करते हैं | जहाँ देव व् असुर दोनों ही उनके सम्मुख नतमस्तक होते हैं कृपा करके वह स्थान बतलाएं | 

ब्रम्हन चित बहु अचरज होहीं । कहि बड़ सादर भूपत सोंही ॥ 
जिन भगता जग बंदित कहहीं । पावन परबत इहहि त रहहीं ॥ 
राजा की इस पूछताछ से ब्राम्हण के चित्त में भारी आश्चर्य हुवा और उन्होंने राजा से सादर निवेदन कर कहा : - राजन !  जिसे भक्त गण जगतवन्दित स्थान कहते हैं वह पावन नील पर्वत यहीं कही तो था | 

जान को कारन दरस न आए । पथक पुनि पुनि ए बचन दुहराए ॥ 
नीलाचल गिरी के अस्थाना । कृत फल दानत होहि महाना ॥ 
जाने किस कारण से वह अब हमें दिखाई नहीं देता | मार्गदर्शक ब्राम्हण वारंवार अपने इन वचनों को दुहराने लगे कि नीलांचल गिरी का वह स्थान जो पुण्यफल प्रदान करने के कारण महानता को प्राप्य है | 

रहिही यहांहि सो थरी जहाँ मोहि अस्नात । 
चतुर्भुज रूप सरूपी दरसिहि कोल किरात ।। 
वह पुण्यस्थली थी तो यहीं जहाँ मुझे स्नान करते हुवे चतुर्भुज रूप स्वरूपी कोल -किरात के दर्शन हुवे थे | 

शुक्र/शनि , १९/२० दिसम्बर, २०१४                                                                                                    

प्रभु दरसन लोचन पथ जोईं । सुनि अस भूपत ब्यथित होईं । 
कहे दुखित मन बिप्रबर सोंही । मो पभु चरन दरस कस होहीँ ॥ 
ऐसा सुनकर भगवद दर्शन की प्रतीक्षा करते राजा को बड़ी व्यथा हुई | उन्होंने दुखित मन से विप्रवर को कहा ----'मुझे प्रभु के दर्शन कैसे प्राप्त होंगे ?'

नीलाचल गिरि दए देखाई  ।  तासु हेतु कहु को जुगताई ।। 
किए तन कंपन बदन हिलोले । बिचलित होत द्विजबर बोले ॥ 
'विप्रवर ! नीलांचल गिरी दिखाई देता ऐसा कोई उपाय बताइये |' तब कंपकपाते शरीर व् थरथराते  हुवे मुख से विचलित अवस्था में द्विजवर ने कहा ---

हमहि समागम कर अस्नाना । तनिक समउ होरएँ एहि थाना ॥ 
गिरिरु दरस जब लग नहि होई । सिथिर इहाँ  सो फिरिहि न कोई ॥ 
हमलोग गंगा-सागर के संगम में स्नान करके कुछ समय के लिए इसी स्थान पर ठहरें और हार मानकर यहाँ से  तबतक न लौटे जब तक गिरी के दर्शन नहीं हो जाते | 

भगत बछर कृपालु अघ हरहीं । हमहि सो अवसि उपकृत करहीं ॥ 
हरि भजन मह जासु मन लागा । भगत प्रभु कबहु करे न त्यागा ॥ 
भक्तवत्सल कृपालु भगवान परुषोत्तम पापों को हरण करने वाले हैं, वे हमें भी अवश्य ही उपकृत करेंगे | जिसका मन हरिभजन में अनुरक्त हो प्रभु उस भक्त का कभी भी त्याग नहीं करते | 

सम डीठि लखें जग रछित रखेँ,  देवाधिदेउ सिरुमने । 
दरस जिग्यासु पथिबृंद तासु करौ कल सुकीर्तने ॥  
सुनी पथक गिरा होत अधीरा तट तीरथ सनान किए । 
पुनि पन धारी अनसन कारी प्रभु दरसन के प्रन लिए ॥ 
सबपर समवेत दृष्टि रखने वाले, जगत की रक्षा करने वाले वे भगवान देवाधिदेव के भी शिरोमणि हैं | अत : दर्शन की जिज्ञासु हे पथिकगण सुनो ! आप उन्हीं का श्रुतिमधुर सुकीर्तन करो | मार्गदर्शक ब्राम्हण की वाणी श्रवणकर राजा ने गंगा-सागर के संगम तट पर अधीरता पूर्वक स्नान किया ततपश्चात प्रतिज्ञा पूरित उपवास करके प्रभु के दर्शन करने का प्रण लिया | 

जबहि भगवन दरसन के देहिहि कृपोपहार | 

पूजत पद गहिहु प्रसादु न त  रहिहु निराहार || 
( जो इस प्रकार से था )जब भगवान परुषोत्तम मुझे अपने दर्शन की कृपा का उपहार देंगे तभी में उनके चरणों का वंदनोपरांत ही प्रसाद ग्रहण करूँगा अन्यथा निराहार रहूंगा | 

करत प्रभो गुन गान तिसनित कंठ आए प्रान । 

करे न पयसन पान, प्रभु दरसन मुख ररन धर ॥  
प्रभु का गुणगान करते हुवे तृष्णावश उनके प्राण कंठ को आ गए किन्तु उन्होंने जल भी ग्रहण नहीं किया और मुख में प्रभु दर्शन की रटन धारण किए रहे | 

सोत बचन कहि दीन दयालू । जय जग जीवन जगत कृपालू ॥ 
सगुन श्री बिग्रह धारन हारू । खल दल दलन लेहु अवतारू॥ 
स्त्रोत वचनों का उच्चारण करते हुवे राजा कहने लगे : - हे दीनदयालु आपकी जय हो ! हे जग जीवन जगत कृपालु आपकी जय हो !  दुष्टों के दलों का दलन करने हेतु आप श्री विग्रह को धारण कर सगुन स्वरूप में अवतार लेते हैं | 

निज सुअनु तव भगत प्रह्लादा ।देइ दुसह दुःख दनुज प्रमादा ॥ 
ताहि सरिस नहि जग को ताता । देइ अगन नग सिखर निपाता ॥ 
अपने पुत्र एवं आपके भक्त प्रह्लाद को प्रमादित दैत्यराज ने दुःसह दुःख दिया |  उसके समान जगत में कोई दुष्ट पिता नहीं होगा,जिसने उसे अग्नि से दग्ध किया, पर्वत शिखर से गिराया, 

दंड पास कर जल अवगाहा । रूप धरे तब तुअ नर नाहा ॥ 
संकट तंतु कटे तत्काला ।पीर परे तहँ प्रगसि कृपाला ॥ 
शूली पर चढ़ाया, पानी में डुबोया तब आपने नृसिंह का रूप धारण किया जिससे संकट के तंतु तत्काल ही कट गए एतएव जहाँ पीड़ा होती है वहां आप अवश्य ही प्रकट होते हैं | 

करे प्रभो अस मोहनि लीला । बसे गवन घन बिपिन करीला ॥ 
मात पिता के अग्याकारी । भगत बछर जग पालन हारी । 
प्रभो ! आपने ऐसी मोहनी लीला की कि बांसों के घने वन में जाकर निवास किया | हे मातपिता के आज्ञाकारी !हे भक्त वत्सल ! हे जगत के पालनकर्त्ता !

देवन्हि मुनि सिरौमनि, हे दीनन के नाथ । 
कोटि अघ होत भसम तव चरन लगे जब हाथ  ॥ 
देवताओं और मुनियों के शिरोमणि ! हे दीनानाथ ! आपके चरण का स्पर्श प्राप्त करते ही करोड़ों पाप भी भष्मीभूत हो जाते हैं | 

मद मत्त गजराजु के पावा  | जबहि गाह मुख भीत गहावा || 
ब्यथित जनि भा पीर अति भारी | देखि  दसा जग पालन हारी ||
मदोन्मत्त हस्ती का पाँव जब घड़ियाल के मुख में पड़ा हुवा था | जब उसे व्यथाजनित अत्यंत भारी पीड़ा हो रही थी तब उसकी ऐसी दशा देखकर हे जगत के पालनहारी ! 

भर हरिदय करुना गोसाईं | चढ़े गरुड़ चलेउ अतुराई || 
आगिल पँखि राजहु परिहारे | धाए बेगि पुनि चक्र कर धारे || 
आपके ह्रदय में करुणा भर आयी | हे स्वामी !पक्षीराज गरुड़ पर आरोहित होकर  आप उसकी रक्षा के लिए शीघ्रता पूर्वक चल पड़े | आगे आपने पक्षीराज का भी परित्याग कर दिया व् हाथ में चक्र लिए अत्यंग वेग पूर्वक दौड़े | 

दुति गति सो पीतम पट छोरा | बनमाल सँग लेइ हलकोरा || 
जाइ बेगि जगराजु छड़ायो | बहुरि गाहु कहुँ मारि गिरायो || 
तीव्रगति के कारण आपके पीताम्बर का छोर  व् वनमाला दोनों वायु में लहराने लगे | वहां तत्काल पहुंचकर गजराज को मुक्त किया फिर आपने  घड़ियाल को भी मार गिराया | 

सेवक पर जहँ संकट लाखिहु | धरे बपुस तहँ तहँ तुअ राखिहु || 
तोरि लीला प्रभु मनोहारी | पाप हरनि बहु मंगलकारी || 
जहाँ सेवक पर संकट लक्षित हुवा वहां वहां आपने देह धारण करके उनकी रक्षा की | प्रभो ! आपकी लीला मनोहारी है यह पापों को नष्ट करने वाली व् अत्यंत कल्याणकारी है |   

परसे पद तव देवन्हि मौलि मुक्त के हीर | 
पालिहु भगता ताहि ते कहि नृप होत अधीर || 
इन लीलाओं से आप अपने भक्तों का पालन करते हैं तदनन्तर राजा ने अधीरतापूर्वक कहा --- देवताओ के मौली-मुकुट पर खचित हीरे आपके चरणों का स्पर्श करते है |  



रविवार, २१ दिसंबर, २०१४                                                                                                

तव दरसन तरपत मन मोरा | में चातक अरु तुम चितचोरा || 
में पापि पतित मैं खल कामी | भगतनु प्रिय हे अन्तर्यामी || 
मेरा मन आपके दर्शन हेतु तड़प रहा है मैं चातक हूँ और आप चित्त को चुराने वाले चन्द्रमा हैं | मैं नीच-पापी हूँ, अति दुष्ट हूँ और कामी भी हूँ आप भक्तों को प्रेम करने वाले अंतर्यामी हैं | 

ए पावन परुषोत्तम खेता | तुहरे मन जो अतिसय हेता || 
मैं पापाधमि भर जिग्यासा | आयउँ तोर दरस अभिलाषा || 
पुरुषोत्तम क्षेत्र है जो आपके मन को अतिशय प्रिय है में पापाधामि जिज्ञासा में भरकर यहाँ आपके दर्शन की अभिलाषा में आया हूँ || 

तव मानस जिन्हनि प्रिय माने । आए भगत जन सो अस्थाने ॥ 
देवासुर बंदित जगदीसा । जहँ तुहरे पद तहँ मम सीसा ॥ 
आपका मन मानस जिन्हें प्रिय मानता है वही भक्तजन इस स्थान पर आते हैं | देव- दानव से वन्दित हे जगदीश !जहाँ आपके चरण होते है मेरा शीश वही होता है | 

प्रभु महिमा कबहु न बिसरायो । पीर परे जहँ तुअ सुख दायो ॥ 
तुहरे नाउ के कीर्तन कारी । सो पारगमन के अधिकारी ॥ 
मैने कभी भी प्रभु की महिमा विस्मृत नहीं की जहाँ कष्ट हुवा  वहां आपने मुझे सुख दिया | जो आपके नाम का कीर्तन करने वाले हैं वही पारगमन के अधिकारी है  | 

सतजन कहि सुनि साँचहि होहीं । दरसन अवसिहि होइहि मोही ॥ 
कहत सुमति भूपत एहि भाँती । प्रभु कीर्तन करै दिनु राती ॥ 
साधू -सज्जनों का कहा-सुना यदि सत्य है तब निश्चित ही मुझे प्रभु के दर्शन होंगे | सुमति से इस प्रकार का वार्तालाप करते हुवे राजा अहिर्निश श्री हरि का कीर्तन करने लगे | 

छिनु भर हुँत बिनु करे बिश्रामा । नीँद नयन बिनु सुख भए बामा ॥ 
चरत फिरत होरत एक साँसे । भासिनु को एहि कह संभासे ॥ 
वे क्षण मात्र के लिए भी विश्राम नहीं करते | निद्रा नयनों से दूर हो गई सुख उनके विरोधी हो गए | चलते -फिरते ठहरते वे एक साँस जो जहाँ दिखाई पड़ता उससे यही कहते ---

आह अजहुँ त दरस परे, प्रभु के अनुपम झाँखि ।
भरे ह्रदय जर झरे भए नयन ढरे बिनु पाँखि ॥  
 आह! अब तो प्रभु की अनुपम झांकी के दर्शन हो जाएं | ऐसा कहते हुवे  उनका ह्रदय भर भर आता, निर्निमेष नयनों से जल झरता रहता |  

सोमवार, २२ दिसंबर, २०१४                                                                                                
दरस हेतु रररत दिनु राती  | पञ्च दिवस बिरते एहि भाँती || 
दिन दिन दीन हीन भए राजू | आन बसे  सब पीर समाजू || 
गंगा-सागर के तट  पर प्रभु दर्शन के लिए अहिर्निश रटन करते हुवे इस प्रकार पांच दिवस व्यतीत हो गए | राजा दिनोंदिन विकलता से भरते चले गए पीड़ा का पूरा समाज वहां निवास करने लगा | 

तब करुनाकर जगदाधारे । कृपा पूरबक सोच बिचारे । 
करत महिमन मम भगति सहिता । ए जनपालक भए पाप रहिता ॥ 
तब करुणा के सागर जगदाधार जगदीश ने कृपापूर्वक विचार किया कि  ' यह राजा भक्ति सहित मेरी महिमा का गान करने के कारण सर्वथा पाप से रहित हो गया है | 

आरत बस जस मोहि पुकारा । होइहि दरसन के अधिकारा ॥ 
हिय होइ द्रवित प्रभु कंठ भरे । कहि मन मानस अजहुँ का करें ॥ 
दुःख से विवश होकर मेरी पुकार कर रहा है इस हेतु यह मेरे दर्शन का अधिकारी है | ह्रदय द्रवित हो गया प्रभु का कंठ भर आया उनका मनो-मस्तिष्क कहने लगा अब क्या किया जाए | 

जटा मंडल सिरु केस बनाए । कमंडल धारु जति भेस धराए  ॥ 
धरि जब दाहिन हाथ त्रिदण्डा । मंजुल मुख लसि तेज प्रचंडा ॥ 
तदनन्तर केश रचना कर शीश पर जाता का मंडल बनाया ततपश्चात कमण्डलधारी साधू का वेश धारण किया | और जब उन्होंने दाहिने हाथ में त्रिदण्ड धारण किया तब उनका मंजुल मुख प्रचंड तेज से दैदीप्यमान हो उठा | 

सगुन सरूप गयऊ समीपा । ब्रम्हन तपसी देख अधीपा ॥ 
ललकित लोचन पलक हिलोले । ॐ नमो: नारायन बोले ॥ 
सगुण स्वरूप में वे राजा के निकट गए तपस्वी ब्राम्हण को देखकर राजा ने गहरी अभिलाषा भरे नेत्रों व् हिलोरे लेती पलकों से 'ॐ नमो: नारायणाय' का उच्चारण कर उनका अभिवादन किया  || 

सन्यासी सौंह सीस नवाए । अरग दए सादर आसन  दाए ॥ 
सन्यासी के सम्मुख नतमस्तक होकर फिर अर्ध्य, पाद्य, आसनादि निवेदन करके : - 

आउ भगत बिधिबत करत, बोले अस सुठि बोल । 
महमन मोरे भाग के  नहि जग महि को तोल ॥ 
विधिवत आवभगत करते हुवे ये सुन्दर वचन बोले -- 'महानुभाव ! आज मेरे सौभाग्य की कोई तुलना नहीं है अर्थात यह अतुल्य हो गया |'

मंगलवार, २३ दिसंबर,२०१४                                                                                                  

 भई कृपा बहु नाथ हमारे । साधु पुरुख दरसन कर पारे ॥ 
तुहरे दरसन सुभ मैं माना। होहि दरस अजहुँ त भगवाना ॥ 
हे नाथ ! बड़ी कृपा हुई जो मैं आप जैसे महात्मा के दर्शन कर पाया | आपके  दर्शनों को मैं ( भगवद दर्शन हेतु ) कल्याणकारी मानता हूँ, अब मुझे अवश्य ही प्रभु के दर्शन प्राप्त होंगे | 

कहै मुदित तब दया निधाना । सुनौ मम बचन देइ धिआना ॥ 
निज ग्यान बल संग भुआला । जानिहुँ मैं सब बचन त्रिकाला ॥ 
तब सन्यासी का वेश धारण किए दयानिधान ने प्रमुदित होते हुवे कहा--- 'राजन! मेरे इन वचनों को ध्यानपूर्वक सुनो ! अपने ज्ञान के बल से मुझे  भूत, भविष्य व् वर्तमान तीनों ही काल की बातें ज्ञात हैं | 

कहत प्रभो बत कही हमारे । दए धिआन सुनिहौ चित धारे ॥ 
अगहुँ दिवस अपराह्न काला । नयन दरस तव देहि कृपाला ॥ 
प्रभु कहते हैं-- मेरी इन बातों को  एकाग्रचित होकर व् ध्यानपूर्वक श्रवण करना, कल अपराह्न काल में तुम्हें भगवान दर्शन देंगे | 

जो दरसन बिधिहु नयन न लभा । तुहरे हेतु भयउ अति सुलभा ॥ 
भगता एक तुअ एक तव रागी । तुहरे मंत्री सन ए बैरागी ॥ 
जो दर्शन स्वयं विधाता के नेत्रों को सुलभ नहीं हैं वह तुम्हारे लिए सुलभ होंगे | हैभक्त तुम व् तुम्हारी रानी, तुम्हारे मंत्री के संग यह वैरागी और 

सह तुहरे नगरी के बासी । करम्ब नाउ एक संन्यासी ॥ 
जो तंतु बय जाति के होई । सूत कर्मि जिन कँह सब कोई ॥ 
तुम्हारे नगर में निवासित करम्ब नाम का एक सन्यासी तंतुवाय-- कपड़ा बनाने वाला तंति है जिसे सभी सूतकर्मी कहकर पुकारते हैं | 

 श्रुतिमुख सुरन्हि सों जिन्ह बन्दें नित सुरनाथ | 
पबित परबत सिखरोपर चढिहु सबहि के साथ ॥ 
ब्रह्मा, देवताओं सहित जिसका इंद्र भी अभिवन्दन  करते हैं | इन सबके साथ तुम नीलपर्वत के उस शिखर पर आरोहित होगे | 

बुधवार, २४ दिसंबर, २०१४                                                                                                         

भगवन भयउ अंतर धिआना । राउ सहर्षित अचरज माना ॥ 
दुबिधि उपजि तपसी सन पूछे । जे भुइँ जिन जति बिनु भए छूछे ॥ 
भगवन अंर्तध्यान हो गए राजा को हर्षपूरित आश्चर्य हुवा | जब मन में दुविधा उपजी तब उन्होंने तपस्वी ब्राह्मण से पूछा--- 'स्वामिन ! यह भूमि जिन साधू से रहित हो गई है : - 

ज्ञान पूरित बत कहि मोही । ब्रम्हन सो सद्जन को होही ॥ 
एहि अवसरु बहोरि कँह गयऊ ।  दिरिस कतहुँ सो दरस न दयऊ ॥
जिन्होंने मुझसे ज्ञानमय वार्तालाप किया हे ब्राम्हण ! वे सज्जन कौन थे ? इस समय फिर वह कहाँ चले गए ? कही भी देखो वह दिखाई ही नहीं पड़ते ?' 

जटिल जटा धर अबर न कोई । सोइ साखि पुरुषोत्तम होंईं॥ 
 तुहरी रति प्रभु मन अति भावा । तासु कर्ष सों इहँ चलि आवा ॥ 
वे जटाधारी साधू-महात्मा और कोई नहीं वे साक्षात भगवान् पुरुषोत्तम ही थे | तुम्हारी अनुरक्ति भगवन के मन की अत्यंत प्रिय लगी इसके आकर्षण से ही वे यहाँ चले आए | 

कल अपराह्न काल जौं ही  । गिरी अगोचर गोचर होहीं ॥ 
परिक्रमा कर सिखर अबरोहू । प्रभो दरसत कृतारथ होहू ॥ 
कल अपराह्न काल में अगोचर गिरी जैसे ही गोचर होने लगेगा तुम उसकी परिक्रमा करके शिखर को अवरोहित होना, वहां भगवान का दर्शन प्राप्त कर कृतार्थ हो जाओगे |  

ब्रम्हन कहे बचन रहे , अमरित सोंह सुपास । 
भूपत चित चिंतन जने, उपरत किए तिन  नास ॥ 
ब्राम्हण के कहे वचन अमृत-राशि के समान सुखदायी थे, उसने भूपति के चित्त में उपजी चिंता को उपाड़ कर  नष्ट कर दिया | 

बृहस्पतिवार, २५ दिसंबर, २०१४                                                                                             

रतनगीउँ मन मीर उछाही । पुलकित नयन नंद घन छाहीं ॥ 
भगवन दरसन घन घन करखे । भाव सरूप पलक सों बरखे ॥ 
ब्राम्हण के  वक्तव्य से राजा रत्नग्रीव के मन में प्रसन्नता का समुद्र उमड़ पड़ा  उनके पुलकित नयनों में आनंद घन  छा गया | भगवान् के दर्शन की अभिलाषा में वह अत्यधिक उत्कर्षित हो गया और भाव का स्वरूप लेकर पलकों से वर्षने लगा | 

सब दिसि उद मुद मंगल पूरा । नाचे तब मन मनस मयूरा ॥ 
दरनत दारुन दुःख संतापा । बन बन सुख बन बचस् ब्यापा ॥ 
सभी दिशाएं उमड़ती प्रसन्नता व् मंगल से परिपूरित हो गई, मन-मानस का मयूरा नाच उठा | दारुण दुःख व् संताप का विदारण करते हुवे वन-वन में सुख जैसे पक्षियों का कलरव बनकर व्याप्त हो गया | 

राग रंग कर ताल प्रसंगे । बाजहि  सप्तक सुर एक संगे ॥ 
गह करतल कल कुनिका कूँजे । धरे अधर कहुँ गोमुख गूँजे ॥ 
राग-रंग का ताल से प्रसंग हुवा तो सप्त-सुर एक साथ निह्नादित हो उठे | करतल ग्रहण कर वीणा कूजने लगी, अधरों पर धरे गोमुख गूंज उठे | 

गहत गगन गहगह घन गाजे ।पनबानक कहुँ  दुंदुभि बाजे ॥ 
हँसत कहि बत भूपत सुजाना । प्रतिछन किए भगवन गुन गाना ॥ 
स्वरों से गगन के गहरे होते ही गहन उत्साहपूर्वक गर्जने लगे कही नगाड़े तो कहीं दुंदुभि बजने लगी | ज्ञान प्रवीण राजा रत्नग्रीव प्रतिक्षण भगवान का गुणगान करते हुवे हँसते, बोलते व् बातचीत करते | 

बिगते दिवस सुमिरन सन , भजन कीर्तन माहि । 
संगम तट सुख सयन किए, रयन गहन जब छाहि ॥ 
 इस प्रकार भगवान का स्मरण व् भजन-कीर्तन में दिवस का अवसान हो गया, रात्रि में जब गहनता छा गई तब संगम के तट पर सुख शयन करने लगा | 

शुक्रवार, २६ दिसंबर, २०१४                                                                                                       

सपन छाए गह एक छबि लेखा । निज कर धरि हरि लच्छन देखा ॥ 
धरे चतुर्भुज रूप अनूपा । देखे भगवन प्रगस सरूपा ॥ 
राजा ने स्वपन की छाया गृह में एक छवि लक्षित हुई, उन्हे अपने हाथ  हरि के शुभ चिन्ह ( शंख, चक्र गदा, पद्म व् शाङ्ग् धनुष )  धारण किए हुवे दिखाई दिए |  चतुर्भुज का अनुपम रूप धरे उन्हें स्वयं में साक्षात् श्रीहरि  के दर्शन हुवे | 

 परिचरनिहि सुन्दर रूपु धरे । श्री हरि चरनिन्हि बंदन करे ॥ 
दरस नरेसु दिरिस अद्भूता । अचरजु सह भए हरष बहूँता ॥ 
( उन्होंने देखा ) विष्वकसेन सहित सभी पार्षदगण  सुन्दर स्वरूप धारण किए श्रीहरि के चरणों की वन्दना कर रहे हैं | इस दृश्य को दर्श कर  रत्नग्रीव को विस्मय के सह अतिशय हर्ष हुवा | 

मनो काम जब पूरन पारे । भई नाथ कहि कृपा तुहारे ॥ 
प्रात नींद जब भई पराई । तपसी ब्रम्हनि बुला पठाईं ॥ 
जब राजा की मनोकामना पूर्ण हो गई तब उन्होंने कहा हे नाथ ! आपकी मुझपर कृपा हुई | प्रात : जब निद्रा भंग हुई तब उन्होंने तपस्वी ब्राह्मण को बुलाया | 

सपन सदन जस छबि देखावा । तपसी चित्रकृत कहत सुनावा ॥ 
तपसि बदन भए बिसमय भारी । चितबत मुख एहि बचन उचारी ॥ 
स्वप्न-सदन ने जैसी छवि दिखाई थी तपस्वी को उसका वैसा ही चित्रण कह सुनाया | तपस्वी के मुख मंडल भी  विस्मित हो गया चित्रवत मुख से उन्होंने ये वचन कहे : - 

सयन  काल सपन दरपन  दरसिहि जो भगवान । 
चिन्ह भूषित रूपु तोहि, चहहीं करन प्रदान ॥ 
शयन काल में स्वप्न-दर्पण ने जिन भगवान की छवि का दर्शन करवाया था वह तुम्हें अपना शंख, चक्र, गदा, पद्म आदि चिन्हों से विभूषित स्वरूप प्रदान करना चाहते हैं | 

शनिवार, २७ दिसंबर, २०१४                                                                                            

बजए मंजरि संग करताला । तदनन्तर अपराह्न काला ॥ 
भूपत सहसइ गगन निहारे । चढ़े जान घन देउ बिहारै ॥ 
करतालों के संग मंजरियाँ बजने लगीं तदनन्तर अपराह्न काल में राजा रत्नग्रीव ने सहसा आकाश की और देखा वहां घन  रूपी यान में आरोहित होकर देवता गण विहार कर रहे हैं | 

बरखिहि सुमन कही मुनि बृंदा । जय जय जय जय नन्द मुकुंदा ॥ 
उचरे मुख बचन तेहि काला । हन्य धन्य तुअ धन्य भुआला ॥ 
पुष्प -वर्षा हो रही हैं, मुनियों के समूह आनंद मुकुंद भगवान परुषोत्तम की जय जय कार कर रहे हैं  उस समय उनके मुख से ये वचन उद्दृत हुवे -- हे राजन ! तुम धन्य हो ! 

अगोचर गिरि अब गोचर होंहि । साखि सम्मुख अह दरसहि तोहि ॥ 
देवन्हि जस अस कही पारे । बही बाहि श्रुति रन्ध्र उतारे ॥ 
अगोचर नीलगिरि अब गोचर होगा | अहो ! तुम्हें अपने सम्मुख उसके साक्षात् दर्शन होंगे |  देवताओं ने जैसे ही यह आकाशवाणी की, वैसे ही वायु ने प्रवाहित होकर उसे राजा के कानों में प्रविष्ट कर दिया  | 

परबत पबित जगत बिख्याता । प्रगासिहि अस जस सूर प्रभाता ॥ 
हंस कनक चमकत चहुँ ओरा ॥  सिखर कर सुहा रहे न थोरा ॥ 
जगत विख्यात पवित्र नीलांचल पर्वत ऐसे प्रकट हुवे जैसे प्रभात में सूर्य का प्राकट्य होता है | रजत व् स्वर्ण चारों ओर प्रदीप्त हो रहे थे शिखर की शोभा थोड़ी न होकर बहुंत ही अधिक थी | 

सोचए भूपत का कतहुँ, अगनी प्रजरित  होइ । 
स्थिर कांति कर धरे कि  धुति नाथ का कोइ ॥
राजन ने विचार किया अवश्य ही कहीं अग्नि प्रज्वलित हुई है अथवा स्थिर कांति धारण करने वाले विद्युतपुञ्ज ही सहसा प्रकट हो गए हैं | 

रविवार, २८ दिसंबर २०१४                                                                                                 
तपसी ब्रम्हन गिरि जब देखे । सुभ लच्छन भूपत कहि लेखे ॥ 
जहाँ चतुर भुज दर्शित होईं । महमन अहहीं एहि गिरि सोई ॥ 
तपस्वी ब्राम्हण ने जब गिरि को देखा तो राजन से कहा अहो ! शुभलक्षण ! महामना ! जहाँ चतुर्भुज भगवान विष्णु दर्शित हुवे थे वह पर्वत यही है | 

भए नत मस्तक रत्ना गीवाँ । मदन कंट के रहे न सीवाँ ॥ 
कहत बहुरि बहु करत प्रनामा । धन्य धन्य मैं भयऊँ रामा ॥ 
रत्नग्रीव नतमस्तक हो गए उनके रोमांच की कोई सीमा नहीं थी | बारम्बार प्रणाम करते फिर उन्होंने कहा -- 'हे राम ! मै धन्य हो गया |' 

तुम् अभिरूपम  मैं अभिलाखी ॥ पबित गिरि मोहि दरसहि साखी ॥ 
सूत कृत मंत्री संग रागी । दरस गिरि कहैं भए बड़ भागी ॥ 
आप अभिरूप हैं और में अभिलाषी हूँ, मुझे पवित्र नीलगिरि के साक्षात दर्शन हो रहे हैं | सूतकार करम्ब व्  मंत्री के संग रानी भी कहने लगी -- ' हम बढे ही सौभाग्य शील हैं जो हमें गिरि के दर्शन हुवे 

अभिजय नाउ मुहुरत जागे । पथिक सिखर अवरोहन लागे ॥ 
पुरयो संख चले सुर साजी । अमित अगास दुंदुभी बाजी ॥ 
अभिजय नाम का मुहूर्त जागृत हुवा ये पांचो पथिक शिखर का अवरोहण करना प्रारम्भ किया | वे शंख बजाते स्वरगान करते हुवे चलने लगे, असीम आकाश में दुन्दुभियाँ मंगल ध्वनि करने लगी |  

चढ़त परबत सिखरोपर, बिचत बिटप धर सोहिं । 
मनिक खचित परम सुंदर, देउर दर्सित होहिं ॥  
पर्वत शिखर की चढ़ाई करते हुवे बीच-बीच में सुन्दर विटप सुशोभित हो रहे थे शीघ्र ही मणियों से खचित परम मनोहर देवालय दर्शित होने लगा | 

सोम,मंगल  २९/३०  दिसंबर, २०१४    

सरजन करता जगत प्रपंची । जहां आन निस दिवस बिरंची ॥ 
करैं आरती बंदना गाएँ । प्रभु पदुम चरण नबैद चढ़ाएँ ॥ 
सृजनकर्त्ता जगत प्रपंची साक्षात ब्रह्मा नित्यप्रति दिवस वहां आया करते और आरती व् वंदना करके भगवान के चरणों में नैवेद्य समर्पित करते | 

अद्भुद निलयन दरसन पारे  । रतन गीव भीतहि पैसारे ॥ 
एक बर आसन देइ दिखाई । मनिक जटित सुभ दसन डसाईं ।। 
अद्भुद देवालय देखकर फिर रत्नग्रीव ने उसके अंतरपुर में प्रवेश किया | वहां उन्हें एक सुन्दर सिंहासन दिखाई दिया जो मणियों से खचित था  उसपर उत्तम बिछौने बिछे हुवे थे |  

दरसत जिन मनि मंडप लाजएँ । तापर चतुर भुज प्रभु बिराजएँ ॥ 
बिस्व सेन सन चण्ड प्रचंडा । किए परिचरजा अनुचर षंडा ॥ 
जिसे देखकर मणियों को मंडप भी लज्जित हो जाए ऐसे सिंहासन पर भगवान चतुर्भुज विराजमान थे | विष्वकसेन सहित चाँद, प्रचंड आदि पार्षदगण एवं अनुचर समूह उनकी सेवा में उपस्थित थे | 

झलकए मंजु मनोहर झाँखी | एक कर हलरए प्रस्तर पाँखी । 
भर चाँवर एक कर हलरायो । सीस छतर एक कर भर छायो ॥ 
उनकी मंजुमनोहर झांकी झलक रही थी  एक के हाथ में  कुश की पंखुड़ियां हिल रही थी | एक परिचर का हाथ चंवर हिलाने में संलग्न था,  एक अन्य परिचर  के हाथ में छत्र था जो प्रभु के शीश पर छाया कर रहा था |  

एक धनुधर एक धारा सारी  । एक कर सोहित बल अरु ढारी ॥ 
बहुरि बहुरि नृप लएँ प्रभु नामा । रागि संगि किए चरन  प्रनामा ॥ 
एक के हाथ में धनुष तो एक के हाथ में  तलवार थी | एक के हाथ में चक्र व् ढाल सुशोभित हो रहे थे | राजा रत्नग्रीव ने वारंवार प्रभु का नाम जपते हुवे रानी के संग उनके चरणों में प्रणाम अर्पित किया |  

लए पयसन किए प्रथमहिं मज्जन मुख बेद बचन उचारते । 
अरगोपचयन किए चरन अर्पन चन्दन बसन सिँगारते ॥ 
मंजुल मंजरि पुला पुरायो हँसि हँसि रसना कस्यो । 
सिरु उतरायो कंठ घरायो हृदय भवन धरि लस्यो ॥ 
प्रणाम के पश्चात जल लेकर मुख से वेदोक्त मन्त्रों का उच्चारण करते हुवे सर्प्रथम प्रभु को स्नान कराया, प्रसन्नचित से अर्ध्य, पाद्य  आदि उपचार को चरणों में अर्पित कर फिर उनका चन्दन व् वस्त्र से उनका श्रृंगार किया | सुन्दर पुष्प मंजरियों के पुले को रसना में पिरोकर अत्यंत प्रमुदित होते हुवे कसा तत्पश्चात उस मला को  प्रभु के शीश से उतारकर कंठ में स्थित किया, ह्रदय भवन में विभूषित होते हुवे वह अत्यंत ही सुशोभित हो रही थी | 

दिनकर बंस भूषन जब  कल भूषन अभराए । 
कोटि कमान बिनिंदित किए छबि अस नयन सुहाए ॥ 
दिनकर के वंशभूषण का  जब सुन्दर आभूषण से आभरण किया तब उनकी छवि ऐसी नयनाभिराम हो गई कि वह करोड़ो कामदेव को लज्जित करने लगे | 

सुभ स्वस्तिक चिन्हित किए कंचन थार सजाए । 
तापर  दीपन बरति बार जगमग जोत जगाए ॥ 
कंचन थाली को सुसज्जित कर उसपर मंगलकारी स्वास्तिक का चिन्ह उद्धृत किया उसके ऊपर दीप वर्तिका को प्रज्वलित कर जगमग ज्योति जागृत की |  

ब्रम्हन कंठी गाँठ किए, श्री हरि गुन समुदाए । 
मति अनुहारत आपनी सकलित तोम सुनाए ॥ 
ब्राम्हण को श्री हरि  के गुण समुदाय कंठस्थ थे उन्होंने अपनी बुद्धि के अनुसार उन संकलित गुण स्तोत्र का समूह गाकर सुनाया | 

समयोचित ब्यंजन कर रूचि रूचि भोग लगाए ।
बादन बृंद बंदन किए, बदन आरती गाए ।। 
समयोचित व्यंजन से सुस्वादु नैवेद्य अर्पित किया वादन वृन्दों से उनकी वन्दना की, मुख से आरती गाई | 

बुधवार, ३१ दिसंबर, २०१४                                                                                                             

सर्बेसर हे अंतरजामी । अगज जगज के तुम्ह स्वामी ।। 
अजर अमर दिक् कर जगदीसा । तुम्ह दिगंबर बिष्नु बागीसा ।।  
हे सर्वेश्वर ! हे अंतर्यामी ! आप जगत भर के स्वामी हैं | आप अजर अमर सदा युवान जगदीश हैं आप ही ब्रह्मा-विष्णु-महेश हैं | 

महा सार सन चरन पूजिते । तुहरि नाभ सहुँ  कंज उपजिते ॥ 
सिंधु सयन हे पुरुख पुराना । आदि काल के तुम सब थाना ॥ 
आपके चरण महत्तत्त्व आदि से पूजित हैं  सृष्टि काल में आपहि के नाभि- कमल से ब्रह्मा जी की उत्पति हुई थी | हे सिंधु शयन पुराणपुरुष ! आदिकाल के सभी स्थान आप ही हैं अर्थात ये आपसे ही उत्पन्न हुवे हैं | 

रूद्र रूप के प्रादुरभावा । प्रभु नयन सन भयउ समभावा ॥ 
बर्धन छय फल तीनि बिकारा । तिन्ह सो रहित रूप तिहारा ॥ 
सहांरकारी रूद्र का आविर्भाव भी आपके नेत्रों से ही संभव हुवा है | आपका स्वरूप वर्धन, क्षय व् परिणाम इन तीनों ही विकार से रहित है | 

कतहुँ चेतन कतहुँ जड़ताई । सो सब आपहि संग जनाई ॥ 
अचेत कन चेतन बल घारिहु । अस जड़तस जग चेतस कारिहु ॥ 
संसार दो प्रकार का है जड़- व् चेतन  उनकी उत्पत्ति आप ही से हुई है अचेतन कण में चेतना जागृत कर इस प्रकार आपने इस अचेतनजगत को चैतन्य किया | 


तुम दिक् मंडल अरु दसउँ दिसा । तुम दिनु रयन भोर तुम निसा ॥ 
त्रिगुन परे तव मूरत साखी । कारज कारन ते भिनु लाखी ॥ 

आप दिग्मण्डल हैं आप ही दसों दिशा हैं आप ही दिवस हैं और रयन भी आप ही हैं | आपकी साक्षात मूरत त्रिगुणों से परे हैं आपकार्य व् कारण से भिन्न लक्षित होते  है | 


तथापि भगत रच्छन अरु , धर्म स्थापन हेतु । 
निज नुरूप गुन गहत भए, प्रगति पंथ के सेतु ।।  
आप भक्तों की रक्षा, पापों का नाश करने व् धर्म की स्थापना के हेतु अपने अनुरूप गुणों को ग्रहण कर प्रगति पंथ के सेतु बनना स्वीकार्य करते हैं |  











































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