Friday 11 October 2013

----- ॥ उत्तर-काण्ड १३ ॥ -----

यह कह ऋषि कुम्भज चुप साधे । ठाढ़े सौमुख प्रभु कर बाधे ॥ 
दरस जने अह्लादन जोई । तिन सन मुनि चित बिहबल होई ॥ 
 यह कह कर महर्षि अगस्त्य ने मौन साध लिया । सम्मुख श्रीराम करबद्ध मुद्रा में अवस्थित थे ॥ उनके दर्श ने जो आह्लाद व्युत्पन्न  किया उसके सह महर्षि का चित्त विह्वल हो उठा ॥ 

 तेहि काल रघुबर सिरु नाईं । ग्यान विद सन पूछ बुझाईं॥ 
भयउ अगन सम मोरि जिगासा । तुहरे बखान घन प्रत्यासा ॥ 
उस समय रघुवीर ने शीश अवनत कर विद्यावान मन से पूछा मुनिवर ! मेरी कुछ जिज्ञासा है जो अग्नि के सदृश्य है । और आपका समाख्या रूपी घन की प्रत्याशा में है ॥ 

जे बचन मोहि रिषिहि बताहू । करत समन अरु देइ बुझाहू ॥ 
सुर उर पीरा देवनहारा । निज करनी जो गयऊ मारा ॥ 
हे महर्षि एतएव आप मेरी इस जिज्ञासा रूपी अग्नि का शमन करते हुवे कृपाकर यह बताएं कि डिवॉन के ह्रदय को पीड़ा देनेवाला जो अपनी करनी से मृत्यु को प्राप्त हुवा ॥ 

हतबत दनुपत रावन सोई । दुरमत कुंभकरन को होई ॥ 
तव सुचान मम संसय  अंदू । करिहिहि मोचित करत स्यंदू ॥ 
हतबाधित दाॅव के पति उस रावण एवं हतबुद्धि कुम्भकरण ये  दोनों भ्राता का परिचय क्या था ॥ आपके निर्मल विचार एवं ज्ञान मेरी इस संसय की साँकल को गला कर मुझे विमुक्त कर देंगे ॥ 

सर्बग्य जे सकल बचन आपहि को संज्ञात । 
जौ मो पर अहहू मुदित, कहौ मोहि समुझात ॥ 
हे सर्व ज्ञाता  यह सारे रहस्य वचन केवल आपही को ज्ञात हैं । यदि मुनिवर मुझपर  मुझे समझा कर कहें ॥ 

सोम/मंग , ०२/०३ जून, २०१४                                                                                         

बेद तत्त्व के तुम्ह ज्ञाता । ग्रन्थ पुरान ज्ञान के दाता ॥ 
तुम्हरे समुख मति लघु मोरी । कहिअ बुझाउ करुँ बिनति तोरी ॥   
  हे महर्षि ! आप वेदतत्त्व के महाज्ञाता  एवं ग्रंथों, पुराणों में निहित ज्ञान के दाता हैं ॥ आपके सम्मुख मेरी यह बुद्धि तुच्छ है  । इस हेतु मैं आपसे विनती करता हूँ कि मेरे कहे गए संसय का समाधान कीजिए ॥ 
  
कृतात्मन अयन  दरसन पाए  । जिन्हनि पावन नयन तरसाए ॥ 
तुम सों अतिथि जो सत्कारे । बिप्रबर भए बड़ भाग हमारे ॥ 
आप महात्मा के घर में दर्शन हो गए । जिन्हें प्राप्त करने हेतु ये लोचन तरस गए थे ॥ आप जैसे अतिथि का आतिथ्य प्राप्त हुवा हे विप्रवर ! यह हमारा परम सौभाग्य है ॥ 

देखि  राम छब नयन जुड़ाने । बनई अजान मुनि सुहसाने ॥ 
सुनत तिन्हनि के अस बचना । कुम्भज कृत कल धुनि के रचना ॥ 
भगवान श्रीराम की ऐसी विनयवत छवि देखकर, महर्षि अगस्त्य के नयन शीतल हो गए । उन्हें अज्ञानी बना देख मुनिवर सुहासित हो उठे ॥ और प्रभु के ऐसे श्री वचन एवं संसय को श्रवण कर ऋषिवर कुम्भज  ने सुमधुर ध्वनि रचितकर : --  

प्रथमक भगवन के सुजसु बखानी । बोले पुनि गह मृदुलित बानी ॥ 
हे त्रिकाल दर्सी रघुराई । तुहरे दृगपट का गुंठाई ॥ 
सर्वप्रथमभगवान के सुयश  का आख्यान किया तत्पश्चात मृदुलित वाणी ग्रहण कर वह बोले ॥ हे त्रिकालदृष्टा ! रघुवर । आपके  दृग पट से क्या छुपा है अर्थात सर्वार्थ उजागर है ॥ 

जोई अनंत जाके पौरे  । ब्रम्ह गोलक चाकरी भौंरे । 
अगजग लग के पालन हारी । ज्ञान आस मे जै जोहारी ॥  
जो अनंत हैं अर्थात जिसका कोई अंत ही नहीं है एवं जिनकी  तर्जनी मात्र में ब्रम्हाण एवं उसका कालचक्र भमणशील है ॥ 

कृपा प्रभु मो जोग लखे, लखे मोहि बर ज्ञानि । 
न तरु  कँह ज्ञान जल सिंधु, कहाँ कुम्भ के पानि ॥   
ऐसे प्रभु  की मुझ पर यह कृपा है कि आपने  मुझे इस योग्य समझा और ज्ञानवंत जाना ॥ अन्यथा कहाँ तो ज्ञान का सरि सिंधु  और कहाँ यह कुम्भ का अल्पतस सलिल ॥ 

तथापि आपनि पूछ बुझावा । कहहुँ बिभो  प्रतिमुख  सिरु नावा ॥ 
कथित  कथा पद पंकज सेबा । लहि को अवगुन छमि करि देबा ॥ 
हे विभो !   तथापि मैं नतमस्तक होकर आप के द्वारा  किए गए प्रश्न का उत्तर प्रस्तुत  हूँ ॥  मेरे मुख से इस वृत्तांत का वर्णन आपके चरण पंकज की  स्वरूप है । यदि इसमें कोई दोष हो  मुझे क्षमा प्रदान करना कीजिएगा ॥  

कथत सार मुनि  कण्ठ कलइते । श्रुतिमुख जेहि  प्रपंच रचइते ॥ 
महर्षि पुलस्त भए सुत जिनते । जन्मे मुनिवर बिश्र्वा  तिनते ॥ 
कथन  का सार-भाव कंठ में विभूषित कर महामुनि  बोले : --   भवचक्र  की श्रिष्टि करने वाले जो ब्रह्मा जी हैं  उनके पुत्र मुनिवर पुलस्त्य  हुवे । फिर उन मुनि  पुलस्त्य विश्रवा मुनि  का जन्म हुवा ॥ 

बिश्र्वा रहि दुइ पतिनी धारी । दुहु  पतिब्रता बहु सदाचारी ॥ 
एकु कैकसी दुजी मन्दाकिनि । मंदाकिनि भइ  धनपति के जननि ॥ 
वेद विधा में प्रवीण वह  विश्रवा मुनि द्वि पत्नी धारी थे उनकी दोनों ही पत्नियां पतिव्रता थीं । उनमें एक थी कैकसी और दूसरी थी मंदाकिनी । पहली पत्नी मंदाकिनी के गर्भ से ऐहिक सुख-साधन भूत  द्रव्यों के स्वामी कुबेरजी की माता हुई ॥  

सिउ संकर के परम पुजारी । वाके पद प्रसादु कर धारी ॥ 
धनपत लोक पालक पद पाए । लंका पुरी निज निबासु बनाए ॥ 
कुबेरजी शिव परम पूजयिता थे । उनके चरण प्रसाद को हस्करण कर  कुबेर जी ने लोकपाल का पद प्राप्त किया और सिंहल द्वीप को अपनी धानी बनाया ॥ 

कैकसी भै जिन गर्भ धामा । बिद्युन्माली वाके नामा ॥ 
रहे जोइ आसुरी सुभावा । जाके गर्भ दनुपति जनावा ॥ 
कैकसी ने जिस गर्भभवन से जन्म लिया  विद्युन्माली था । विद्युन्माली आसुरी स्वभाव की थीं उसके गर्भ से ही दनुपति रावण का हुवा ॥ 

महा दानव कुम्भकरन, बिभीषनु धरमवानि  । 
रावन सहि दनुजा दोइ  , सुत अरु जनमन दानि ॥ 
रावण के साथ उस  दनुपुत्री कैकसी ने महा दानव कुम्भकरण एवं पुण्यात्मा विभीषण  इन दो और पुत्रों को भी जन्म दिया ॥ 

बुधवार, ०४ जून, २०१४                                                                                                      

हे ज्ञानवंत हे महामते ।खल कुम्भकरण सह  दनुजपते ॥
काल कलुखित कर्मन के धुना । किए मति निज अधरम निपुना ॥ 
हे महाबुध ! हे ज्ञानवंत !! दुष्ट कुम्भकरण के सह दनुजपति दसानन काल-कलुषित कर्मों में प्रवृत्त होकर  अपनी बुद्ध को अधर्म में निपुण कर ली ॥ 

दुहु जेहि काल गर्भाधाने । साँयम समउ दिवसावसाने ॥ 
एकु समऊ भर सुन्दर भेषा । सुख साधन पत धन्य धनेषा ॥ 
(इसका कारन यह है ) जब इन दोनों का गर्भ में आधान हुव था वह संधि काल था और दवस का अवसान हो रह था शास्त्रानुसार इस काल में स्त्री-पुरुष का परस्पर संसर्ग वर्जित है ॥  एक समय बात है ऐहिक सुख के साधन-भूत द्रव्यों के स्वामी कुबेरजी सुन्दर वेशभूषा धारण कर 

चढ़ सोहामय पुष्पक जानए । मात पिता दरसन हुँत आनए ॥ 
जान तपो बन भूमि उतारे । परन कुटी गत चरन  जुहारे ॥ 
एक अतिशय शोभावान् पुष्पक विमान में चढ़ कर वह माता-पिता के दर्शन हेतु आया । उसने विमान को तपोवन की पावन भूमि में उतारा और पर्णकुटिया में जाकर वहां निवासित अपने पालक के चरण-वंदना की ॥ 

कछुक  काल लग  बहुत  सुपासे । मात तात के संग निबासे ॥ 
रोम हर्ष हो सकल सरीरा । जन्मद पद गह  होत अधीरा ॥ 
 एवं कुछ समय तक अपने माता-पिता के संग बहुंत ही सुख पूर्वक निवास किया  ।   जन्मदाता के चरण  ग्रहण किए अधीर स्वरूप में उनकी समस्त देह रोमांचित हो उठी ॥ 

तेहि काल कहि  हरिदए  तासू । भए बिहबल लोचन भर आँसू ॥ 
हे मम जननी हे मम ताता । हे मम जन्मद जीवन दाता ॥ 
उस समय उनका ह्रदय विह्वल गया एवं आँखों में अंश्रुधारा वह  बोले : -- हे मेरी जननी ! हे मेरे  आदरणीय जन्म दाता मुझे जीवन देनेवाले ॥ 
 अधुना दिवस मोर हेतु, अतिसय धरम प्रदाए । 
तुहरे पूजित पद्म पद, मम कर पर्सन पाए ॥ 
 मैने आपके पूज्यनीय पद्म चरणों का स्पर्श प्राप्त किया, एतदर्थ  यह दिवस मेरे लिए अतिशय पुण्य प्राण करने वाला है ॥ 
 
सुमिरन तरु बिहरण बायु धधके नयन दवारि ॥ 
तव दरसन घनरस गहन, भए मम मन हरियारि ॥ 
स्मरण तरुषंड एवं विरह वायु हो गई मेरे नयनों में मानो दावरि धधक रही थी । आपके दर्शन  घनरस  प्राप्त कर मेरा ह्रदय हरा-भरा हो गया ॥ 
बृहस्पतिवार, ०५ जून, २०१४                                                                                         

स्तुति जुगत पद एहि  बिधि धनपत । मात-तात  के सुस्तवन करत ॥ 
तपोबन भूमि कछु दिन होरे । गगन बीथि गत चरन बहोरे ॥ 
इस प्रकार स्तुति युक्त पदों  से मात-पिता  का सुन्दर स्तवन  कर धन के स्वामी कुबेर जी तपो भूमि में कुछ दिवस तक निवास किए ।  फिर गगन पंथ से गमन  कर अपने भवन को लौट गए ॥ 

दनुपत रावन रहि मतिवंता । लखे भ्राज धन सम्पद  कंता ॥ 
अभरित भूषन भर बर भूषा । माथ तपन लसि मुख प्रत्यूषा ॥ 
दानव-स्वामी रावन जो बुद्धिवंत था उसने धन-धान्य  के नाथ कुबेरजी की शोभा देखी  ।  वह उत्तम वेश भूषा से आभरित तो थे ही उनके मस्तक पर सूर्य का तेज एवं मुख पर प्रत्युषा का लावण्य था ॥ 

बिराजित जोइ  दिब्य बिमाना । तेजतस सोइ मनस समाना ॥ 
लासै सुख साधन पत  सोभा । जान हुँते दसमुख मन लोभा ॥ 
जो मन के समान तेजतस गति युक्त दिव्य विमान पर विराजित थे ॥ उनके ऐहिक सुख के साधन  द्रव्यों की शोभा आकर्षित कर रही थी । विमान हेतु दसमुख का चित्त लौलुप हो उठा ॥

 पूछि मात  सों जे को होही । जो मम पितु पद सेवा जोही ॥ 
पैहि जान जे कवन बिधाना । तपस करत को दिए बरदाना ॥ 
उसने अपनी  माता से प्रश्न किया हे माता ! यह कौन है ? जो मेरे पिताश्री के चरणों की सेवा-वंदना कर रहा है । इसने यह दिव्या विमान किस विधि से प्राप्त  किया है ? अथवा तपस्या करते हुवे क्या किसी ने उसे वरदान में दिया है ॥ 

कहत अहि राउ महा मुनीसा । सुन सुत बचन मात मन रीसा ॥ 
कोपत  करत कुटिल कोदंडा । अवरोहित लक घोन प्रचंडा ॥ 
अहिराज  भगवान शेषजी कहते हैं : -- हे महा मुनीष अपने पुत्र के पुत्र के ऐसे वचन को श्रवण कर कैकसी का मन क्रुद्ध हो उठा ॥ कोप  अपनी भृकुटियां कुटिल कर ली, और अपनी बड़ी सी नाक को मस्तक पर चढ़ा लिया ॥ 

होत आकुल रूखे बोलि जे तुम्हरेहि भ्रात । 
तिन्हनि जनाइ मम सवति, तव पूजिता बिमात ॥  
व्याकुल होते हुवे वह रुष्ट होकर बोली यह तुम्हारा भ्राता है  जिसे मेरी सौत एवं तुम्हारी पूज्यनीय सौतेली माता ने जना है ॥ 

शुक्रवार, ०६ जून, २०१४                                                                                             

अरु एकु बत सुनु मोरे लाला । भयउ बर सिखित ए जन प्रतिपाला ॥ 

जाके तैं तुअँ पूछ बुझाहू । कहत तात तव एहि धन्नाहू ॥ 
मेरे दुलारे और एक  प्रसंग सुनो यह कुबेर लोकपाल के पद को प्राप्त है एवं अत्यधिक ज्ञानी है । तुम जिसके सम्बन्ध में प्रश्न कर रहे हो । तुम्हारे पिताश्री उसके निमित्त में कहते हैं यह धन का पति है भवभूति का निरीक्षक है ॥ 

बुझे दीप तुम कुल के कज्जल । जगत सूर सोहि  कुल  उज्जवल ॥ 
बिमल बंस के तुम तमवंता  । हयबह कुल नभ  कमलिन कंता  ।। 
तुम बुझे हुवे  दीपक के सदृश्य कुल के कलंकित करने वाले हो उसके अपयश के कारक हो  । और वह जगत -सूर्य के सदृश्य कुल की कीर्ति का कारण है ॥  तुम इस विमल वंश के अन्धकार हो एवं कुबेर उस अन्धकार को हरण करने वाला कुल के गगन का कमलिनी- कंत  है ॥ 

मोरि गर्भ तुम परजिबि  होहू । लगे आपने पेटक जोहू ॥ 
करत बिपिन तप जग सुभ माना । किए एहि प्रमुदित सिउ भगवाना ॥ 
तुम मेरे गर्भ के वह परजीवी हो जो अपने ही उदर के परायण  अपनी ही  पूर्ति में लगे रहता है ॥ उसने जगत के कल्याण की कामना लिए विपिन में  कठोर तप करते हुवे भगवान शिवशंकर को प्रसन्न किया ॥ 

पैह पयस पद लंका बासे ।   जग लग कुल जस कर उद्भासे ॥ 

ऐहिक सुख के साधन संगे । अचिर राचि सम तूल तुरंगे ॥ 
और उनके चरणों का अमृत प्राप्त किया, एवं  त्रैलोक्य में कुल को उद्भाषित कर उसके यश का वर्द्धन किया  ॥ ऐहिक सुख के साधन भूत  द्रव्यों का स्वामी होकर विद्युत सी गति एवं मन के जैसे वेगवान  : -- 

गगन बीथि चर जान बिराजा । भयउ सुबरन दीप के राजा ॥ 
जाके पूत निज गुनगन सोहीं । मह  पुरुख पद आसीत्  होहीं ॥ 
गगन विहंगी वायुयान में विराजित होकर वह सिंहल द्वीप का राजन हुवा ॥ जिसके सुपुत्र में ऐसे गुणों के समूह की  सोभा हो एवं जो महापुरुष के पद पर आसीत हो ॥ 

मह अभ्युदय सहि सोहित, धन्य धन्य सो मात । 
जग सुभागवती जाके, ऐसेउ सुत सुपात ॥  
महा अभ्युदय के सहित शोभनीय वह माता धन्यवाद की पात्र है ।  वह जग शौभाग्यवती  है जिसका ऐसा सयोग्य  सुपुत्र हो ( ऐसा तुम्हारे पिता कहते हैं ) ॥ 

शनिवार, ०७ जून, २ ० १ ४                                                                                                   

सुन जननी के कोपित बचना । किए दसमुख मति  कुपथी  रचना ॥ 
तपस चरन हुँत भए दृढ़ चेता । खल माया कामिन किए हेता ॥ 
जननी के आक्रोशित वचनों को सुनकर दसमुख रावण के मस्तिष्क  षड्यंत्र रच  रहा था । उसने  आसुरी माया की  कामना के उद्देश्य से कठोर तपस्या करने की ठानी ॥ 

कहत मात सो  मन अनुमाना । धन्नाहु अस्ति मसक समाना ॥ 
ऐसिहु भीरु कहत लंकेसा । भए मह पुरुख भर तनि भेसा ॥ 
तपस्या को अपने मन में विचार कर वह  अपनी माता से बोला : --  धन के इस नाथ  का अस्तित्व ही क्या है ? यह एक रक्त शोषक कीट के सदृश्य ही तो है । ऐसे ही हिरन हृदयी को लंकेश कहते हैं ?  किंचित भेष भूषित कर यह महापुरुष हो गया ? 

बाहु सिखर बल सौमुह मोरे । लंका नगरी सैनी थोरे ॥ 
तव यहु  पुत बिसभुज दस काँधा । एकै मूठि मह लेइहि बाँधा ॥ 
मेरी बलिष्ठ भुजा शिखर के सम्मुख लंका  पुरी के सैनिक किंचित ही हैं । तुम्हारा यह पुत्र विश: भुजाधारी दस कंधारी है यह इन्हें एक मुष्टिका में ही उन्हें बंधक बना लेगा ॥ 

अन जल निदिरा कौतुक को मैं । सकल बिषय जो परिहर दौ मैं ॥ 
कठिन तपस बिरंचि मन मोही । जब मम तन दारुन  दुःख जोही ॥  
यदि मैं अन्न-जल निद्रा और कौतुकादि समस्त भोग विषयों का त्याग कर दूँ । औ जब तन भयंकर कष्टों से योगित होगा तब यह कठिन तप अवश्य ही विधाता के मन को मोहित का लेगा ॥ 

भयउ मोर तब सरबस लोका । अस कह सो जनि करक बिलोका ॥ 
बिस बिस लोचन भर अंगारे ।  गरज तर्ज अस किरिआ पारे ॥ 
फिर यह सभी त्रैलोक्य मेरे हो जाएंगे ।  फिर रावण ने अपनी जननी की और कठोर दृष्टि से देखते हुवे विश विष नयनों में अंगारे भरते हुवे गरज तर्ज कर इस प्रकार प्रतिज्ञा की : -- 

जो न राजहुँ अग जग लग, गहौं न कुबेरु कोष । 
पितु लोक बिनसनी के, लगही मोहिहि दोष ॥ 
यदि में सारे लोकों पर अपना राज स्थापित कर  कुबेर के धन भंडार पर अधिकार न कर लूँ तब हे जननी ! मैं पितृ लोक के विनाश का दोषी सिद्ध होऊंगा ॥ 

रविवार, ०८ जून,२०१४                                                                                                                

बहोरि भ्रात चरन अनुहारे । दुनहु बंधु  तप  निहचय कारे ॥ 
दसानन निज मात सिरु नाई । चले तप चरन सँग लिए भाई ॥ 
तत्पश्चात  के  आचरण का अनुशरण करते हुवे । दोनों बंधू  विभीषण ने भी तप करने का निश्चय किया  । अपनी माता के चरणों में नतमस्तक होकर भ्राताओं को संग लिए तपस्या करने हेतु दशानन  ने भ्राताओं को संग लिए पारिकांक्षा को चला  ॥ 

पयादि परबति घन बन आने । ठान तेहि रबि दीठि जुगाने ॥ 
एकु चरन थीर दुहु कर जोरे । सहस बरस लग किए तप घोरे ॥ 
त्राण हिन चरणों से अति सघन पार्वतीय विपिन  में आया । और केतुपति की ओर दृष्टि लगाए पारिकांक्षा खतु दृढ निश्चय किए एक चरण पर स्थिर हो  दोनों  सेहत संयोजित कर सहस्त्र वर्षों तक घोर तपस्या की ॥ 

कुम्भकरनहु संग मह लागे । बिभीषन रहे एक पद आगे ॥ 
एतदर्थ बर तपस्या ठाने । तदनन्तर बिरंचि भगवाने ॥ 
कुम्भकरण  भी संग में तपचरण में लगे रहा । भक्त विभीषण उनके एक चरण आगे होकर उत्तम तपस्या की । इस प्रकार उस दृढ़ निश्चयी उत्तम तपस्या का अनुष्ठान के पश्चात देवाधिदेव भगवान ब्रह्मा  : -- 

देख कठिन तप भयऊ मुदिता । बृहद् राज बहु दिए कर दइता ॥ 
वाका सरूप अस उद्भासे । तेज रूप त्रय लोक प्रकासे ॥ 
उस कठोर तप को देखकर बहुंत प्रसन्न हुवे ।  वरदान में उन दानवों के हाथ बहुंत बड़ा राज्य दे दिया ॥ ॥ उस राज्य का स्वरूप ऐसे  उद्भाषित किया कि उसके तेजस रूप से त्रैलोक्य प्रकाशित हो गया ॥ 

देऊ दनु दुहु कर सेबित, सुख साधन के श्राम । 
जहां सकल सिंगार धृत , भव भूति किए बिश्राम ॥ 
जो दानवों एवं देवताओं दोनों के द्वारा सेवित था, ऐसिक सुख के साधन भूत द्रव्यों का तो वह मंडप ही था । जहां संसार की विभूतियाँ समस्त श्रृंगार धारण किए विश्राम किया करती थीं ॥ 

सोमवार, ०९ जून, २०१४                                                                                                          

नाभि कुंड मह पयस बसा के । दिए बरदान कर अमरता के ॥ 
सादर सिव कहुँ सीस चढ़ाए । एक एक के कोटिन्ह पाए ॥ 

उस दुष्ट की नाभि में अमृत का वास करते हुवे उसे अमरत्व का वरदान दिया ॥  कहीं शिवजी को  सादर शीश चढ़ाया जिसके फलतस एक एक शीश के प्रतिफल में करोड़ों पाए ॥ 

हरसखा मति धरम रति राखे । सद कृत कारन निसदिन लाखे ॥ 
भयउ  कृपा बिरंचि के ताईं । दसमुख कर जब सौं बर दाईं ॥ 
धनेश  बुद्धि धर्म में लगी थी वह परमार्थ करने की तो प्रतीक्षा ही करते थे ॥ इस प्रकार विधि की  अनुकम्पा से ब्रह्मा द्वारा दिए गए उक्त वर दस मुख के हस्त गत हुवे ॥ 

किए धन नाहु ऐसेउ भेसा । दीन मलिन मुख बिगलित केसा ॥ 
उद्यम करम धरम के त्राता । कृपा चहत भए कर्षिन् गाता ॥ 
तब उसने  धन के स्वामी कुबेरजी का  ऐसा वेश कर दिया कि वह दुर्दशा ग्रस्त होकर  क कांटी मलिन हो गई एवं उसके केश अस्त-व्यस्त हो गए ॥ जो उद्यम कर्म एवं धर्म का  रक्षक था वह ही अब कृपाकांक्षी होते हुवे कृषकायी हो गया ॥ 

निरादृत कृत  दुसह  दुःख दाया । लोकपाल पद हिन कर भाया ॥ 
छीन जान दुर्नीति अपनाए ।दुह साहसी दुसील ने बरियाए ॥ 
रावण ने अपने भ्राता का निरादर करते हुवे उसे असहनीय दुःख दिया एवं  लोक पाल के पद से च्युत कर दिया ॥  उस दुःसाहसी एवं दुःशील ने बल पूर्वक उससे दिव्य विमान भी छीनकर दुर्नीति को अंगीकार किया ॥ 

सेवक सैनिनि दिए सब मारे । लंका नगरी किए अधिकारे ॥ 
सकल लोक जन दए संतापा । निसदिन बाढ़इ बाके आपा ॥ 
 उसके समस्त सैन्य-सेवक  को ह्त्या कर लंका नगरी में अपना अधिकार कर लिया ॥ फिर उसने समस्त लोकों को संताप देना आरम्भ कर  दिया इन सब कारकों से अभिमान दिनों-दिन बढ़ता ही चला गया ॥ 

मुनि मनीषी तपोबन त्यागे । सुरग धाम सौं सुरगन भागे ॥ 
ते सठ करनी कहँ लग भासें । सकल भूमि सुर बंस बिनासे ॥ 
मुनियों ने  सन्तापित होकर तपोवन को त्याग दिया ।  स्वर्ग से देव समूह पलायन कर गए । अहिराज भगवान शेष जी कहते हैं : -- हे मुनिवर ! उस धृष्ट की कुकरनी का मैं कहाँ तक वर्णन करूँ । उसने समस्त ब्राह्मण कुल   ही विनाश कर दिया ॥ 

पीड़ित संतप जिउ जगत, पावहि कन कन ताप । 
अस दनु  कर तमोगुनगन, चहुँ पुर गयउ ब्याप ॥  
समस्त जीव-जगत शोक से संतप्त हो उठा कण कण संताप को प्राप्त हो गए । इस प्रकार उस राक्षस की कर्मों के प्रभाव से चारों दिशाओं में तमोगुण समूह व्याप्त हो गए ॥ 

रविवार, १५ जून, २ ० १ ४                                                                                                           

लौलुप लंपट कपटी भेसा । बाढ़े खल अस जस तिय केसा ॥ 
चहुँ घा ब्यापि हिंसक भावा । पाप अधिक भए धर्म अभावा ॥ 
लालची, लम्पट, दांडाजिनिक, दुष्ट दुराचारी ऐसे बाद रहे थे जैसे स्त्री के केश बढ़ते हैं ॥  चारों ओर हिंसक भाव व्याप्त होकर पाप ही पाप छा गया था, और पुण्यों का अभाव हो गया था ॥ 

अनय अबिनय अनीति अधीना । भयउ राज नय कुसल बिहीना ॥ 
सदा चरन  दरसन नहि देबा । दुरा चरन करवावहि सेबा ॥ 
अन्याय, अशिष्टता, धृष्टता, अनैतिकता के अधीन होकर राज्य नीति विशारदों से विहीन हो गया था ॥ सद्चरण के तो दर्शन ही दुर्लभ हो गए थे । दुराचरण उसे अपनी सेवा में योजित किए था ॥ 

घोर निसाचर निसा बिहारै । डरपत ससहु मुख देइ ओहारे ॥ 
बाँचे जो को बेद पुरानै  । देस निकास के दंड दानै ॥ 
भयंका राक्षसा रात्रि में जब विचरण करते हैं तब चन्द्रमा भी भय भीत हो कर अपना मुख ढँक लेता है ॥ जो कोई निगमागम का पाठ करता उसे देश निष्कासन का दंड दिया जाता ॥ 

कृपा बिहिन भए दनु दय हीना । गोचर बन बिनु जल बिनु मीना ॥ 
नयन दरसन बदन बिनु बानी । हरिदै कंपन जी बिनु प्रानी ॥ 
दानवों का आचरण कृपा से विहीन एवं दया से हीन होने के कारण गोचर वन से, मीन जल से, नयन दर्शन से, वादन वाणी से, हृदय स्पंदन से, वाम प्राणी प्राण से विहीन हो गए थे ॥ 

कहत धरा जेत न  हरुअ , नदि नद परबत  भार । 
आह भयउ  तेतक गरुअ , परद्रोही के पद धार ॥ 
धरा भी कहने लगी  आह !  इन नदि नद पर्वतों का भार उतना भारी नहीं है । जितना  की इन अत्याचारियों के चरणों को धारण कर यह भार गंभीर हो गया ॥ 

मंगल/ सोम, १०/१६ जून, २०१४                                                                                                 

दुखित धरनी धेनु तन धारी । गूँठे  सुर मुनि तहाँ पधारी ॥ 
अपनी उर के पीरा बोली । माँगि तनिक सुख प्रस्तर झोली ॥ 
दुखिया धरणी ने फिर धेनु की देह धारण कर जहां देव एवं ऋषिगण छुपे थे वहां गई ॥ और अपने ह्रदय की पीड़ा व्यक्त करते हुवे झोली फैलाकर अपने लिए थोड़ा सुख माँगा ॥ 

हहरत जो आपहि भय भीते । करिहि सोहि दूजन कस हीते ॥ 
त्रासक ऐसेउ त्रासन दाहि । भयउ त्रस्त कहि पाहि मम पाहि ॥ 
रावण के आतंक से जो स्वयं त्रस्त एवं भयभीत थे । वे  वे दूसरे का कल्याण कैसे करते ॥ त्रास देने वाले ने ऐसा त्रास दिया । कि जो त्रस्त हुवे वे दैन्य पूर्वक रक्षा की प्रार्थना करने लगे ।  

दसमुख जगलग लग भरै बिषादा । दसों मुख हास दस दिसि नादा ॥ 
जगलग किए अस अत्याचारे । इंद्रादि देव होत दुखारे । 
उस दानव दसमुख ने सारे संसार में अवषाद भर दिया । उसके दसों मुख से दसों  दिशाओं में अट्टाहास निह्नादित हो उठा ॥ संसार भर में ऐसा अत्याचार किया कि इन्द्रादि देवता गण दुखित होकर ॥ 

जाहिं कहाँ आकुल भए सोची  । एहि सठ के त  मति भई पोची ॥ 
बिहान सबहि गयउ बिधि सरने । आपनी बिती कह गहि चरने ।। 
इस  विचारणा में व्याकुल हो उठे कि अब कहाँ जाएँ । इस दुराचारी की तो बुद्धि ओछी हो गई है ॥ अंत में सभी विधाता  की शरण में गए और अपनी आपबीती कहकर उनके चरण पकड़ लिए ॥

धेनु रूप धरनिहि गै संगा । कहि सों बिधि निज सोक प्रसंगा ॥ 

स्तुति करत  किए दंड प्रनामा । गाए सकल कीर्ति गुन ग्रामा ॥ 
 उन्हें दंडवत प्रणाम किया  फिर वह विधि की महिमा एवं उनके गुणसमूहों का गान कर उनकी स्तुति करने लगे ॥ 

कहत प्रभो हमरी मति थोरी । अस्तुति करैं कवन बिधि तोरी ॥ 
चौमुखी रूप आसिन कंजा । हमरे गायन गान करंजा ॥ 
वह कहते हैं : -- हे प्रभु ! हमारी बुद्धि संकुचित है, आपकी स्तुति हम किस विधि से करें । आपका यह चौमुखी स्वरूप तो पद्मासन है किन्तु हमारा गायन कटिबंधीय गान के रूप में होते हुवे अरुनचूढ़ के गायन जैसा है ॥ 

किए स्तुति प्रिय बचन के ताईं । जब सुरगन सादर सिरु नाईं ॥ 
एकै सुर पद बाद बखाने । तदनन्तर भए मुदित बिधाने ॥ 
जब सुरगण सादर शीर्षावनत होकर प्रिय वचनों के द्वारा घोर स्तवन करने लगे ॥ प्रशंशात्मक विषय को पद्य स्वरूप में विधि के गुणों का अनुवाद करते हुवे उनका यशगान करने लगे तत्पश्चात ब्रह्मा प्रसन्न हो गए ॥ 

सुरमुनिगन स्तवन श्रवन, सर्जन कृत मन भाए । 
मैं  करौं तव कार कवन , कहि कंजन सुहसाए ॥ 
देवों एवं मुनियों का ऐसा सुमधुर स्तवन उन सृष्टिकर्त्ता के मन को भा गया । वह प्रसन्नचित एवं सुहासित होकर कहने लगे : -- हे मुनिदेव ! मैं आपका कौन सा कार्य करूँ ? 

बुधवार, ११ जून, २०१४                                                                                                       

तब बिधि सौंह मुनि सुर समुदाय । किए निगदन आपने अभिप्राए ॥ 
सकल देव दानव जस जूझे । कहूँ सूर कहुँ दीपक बूझे ॥ 
तब ब्रह्मा के सम्मुख मन एवं सुरवृन्द ने अपने आगमन का अभिप्राय कहा  ( रावण के  अत्याचार से त्रस्त ) सभी देवताओं एवं दानवों के मध्य संग्राम हुवा देवो रूपी कहीं दीपक बुझा कहँ कोई सूर्य  ॥ 

जिन सठ के नामहि निसिचारे ।  बजाए जुझन बाज गए हारे ॥
सकल  पुकारत त्राहि मम त्राहि । आगत सरणद सरन के चाहि  ॥ 
जिन दुष्टों का नाम ही निशिचर है । हमने उनके साथ झगड़ा मोल लिया एतदर्थ हमारी हार निश्चित ही थी ॥ हे शरणदाता ! अब सभी रक्षा की प्रार्थना करते  हुवे आपके शरण के अभिलाषी हैं ॥ 

मुनि देव बचन बिधि कन धारे ।  छिनु भर हुँत थीर चित बिचारे ॥ 
तुहरी रति जाके चित चरना । अहहि सोइ तव त्रासन हरना ॥ 
मुनिगण एवं देववृंद के वचनों को विधाता ने ध्यान पूर्वक श्रवण क्या क्षणभर हेतु वह स्थिर चित्त से समस्त प्रकरण का विचार करने लगे ॥ तुम्हारी श्रद्धा जिनके चित्त एवं चरणों में है वाही तुम्हारे त्रास के हारी हैं ॥ 

पातक हारिहि नाथ हमारे ।  कहत बिरचि तिन  सुमिरन कारौ ।। 
पद्म नयन बहु मृदुल सुभावा । संकर उरस प्रेम रस भावा ॥ 
हे सुर मुनि गण, हे धरनी वे हमारे नाथ ही पातकों का नाश करेंगे, तुम उनका ही स्मरण करो ॥  पद्म नयन का बहुंत ही मृदुल स्वभाव है । और शंकर जी ! के ह्रदय को प्रेम रास बहुंत ही प्रिय है ( अत: तुम उनके पास जाओ ) ॥ 

जब ब्रह्मा धरनी सहित, सुर मुनिन्हि समुझाए  । 
हारे हते लोन लगे, बिदारित ह्रदय जड़ाए  ॥ 
जब ब्रह्मा जी ने धरनी सहित डिवॉन एवं मुनियों को इस प्रकार से समझाया । तब उनके विदारित में लोन  लगे शिथिल हृदय में शीतलता आई ॥ 

हरिदै छबि मुख सिउ सिउ रागे  । भाउ भगति के रस मह पागे ।। 
मुनि देवन्हि लेइ भुइ साथा । पयादिकहि लकुटी धर हाथा ॥ 
फिर मुनि एवं सुरगण गौ रूपी भूमि को संग लिए पाँव-पाँव ही लकुटी हस्तगत किए : -- 

चिन्ह उकेर चले कैलासे । सिखरिन परबत  पैठ हराँसे ॥ 
सिखावली दरसत अस धोले ।  पावनी लस पयस जस घोले ।। 
अपने पद चाप से  चिन्ह उकेरते कायष पर्वत को चले ।  शिखर पर पहुचने तक वह शिथिल हो गए ॥ वहां से जब उन्होंने शिखर श्रेणियों को ऐसा धवलित रूप देखा मानो उन श्रेणियों पर जाह्नवी प्रकट होकर अपना पियूष घोल रही हो ॥ 

सीलवंत बर  सैल सलाका । लगे कलस सरि केतु पताका ॥ 
कर चूनर धर कहुँ को धवली । जस आसित  कहुँ बधु को नवली ॥ 
शील धारी शिव का वरण कर शैल की शलाकाएँ पताका चिन्ह से युक्त देवल प्रतीत हो रही थी। किरणों की चुनरिया ओढे कही कोई शिखा गौर वर्ण स्त्री प्रतीत होती । जैसे उस पर्वत भूमि पर कोई नव दुलहिन ही विराजित हो ॥ अर्थात हिमाय का यह रूप अर्द्ध नारायण स्वरूपी दर्शित हो  रहा था ॥ 

कहूँ नयन फूरित फुरबारी । करे कलाधर  कमन क्यारी ॥ 
अरु भुज मंडित तरुबर घारे । अरुनारी आँचर हरियारे ॥ 
कहीं हरीभरी वाटिकाओं से किसी कलाविद के हाथों उस चुनरिया में सुन्दर क्यारियां उकेरी हुई थीं  । और वेल्लरियों से मंडित तरुवरों का घेर किये उसका अरुणारी आँचल हरियाली से युक्त हो गया । 

 मुग्धित बिचित्रित दिरिस चित्र, चितबत मुनि सन देउ  । 
प्रमुषित प्रमित मिलित नयन, भए कर बध स्वमेउ ॥ 
ऋषियों  के सह देववृंद ने विमुग्ध होकर वर्णवैभिन्न्ता से युक्त उस दृश्य चित्र का साक्षात दर्शन किया तब  हतप्रभ निमीलितलोचन मुद्रा में उनके हस्त स्वमेव ही आबद्ध हो गए ॥ 

सम्मलित सुर धरत कहत, जय जय जय मह देउ । 
अहिमाल सोंह नत मस्तक, किए स्तवन एवमेउ ॥  
वे सम्मिलत स्वर धृत करते हुवे कहने लगे जय जय जय महा महादेव । और अहिमाल्य के सुख नतमस्तक होकर इस प्रकार  स्तुति करने लगे ॥ 

बृहस्पतिवार, १२ जून, २०१४                                                                                                

नमामि शंभु शंकरम् । शरणागतं वत्सलम् ॥ 
भजामि चन्द्र शेखरम् । हे देव देवेश्वरम् ॥ 
हे कल्याणकारी शङ्कर ! शरणागतों के वत्सल स्वरूप हम आपको नमस्कार करते हैं जिसका शिरोभूषण चन्द्र है हे डिवॉन के भी देव उनके
ईश्वर हम आपका भजन करते हैं ॥ 

प्रयत् प्रमोह मोचितम् । 
कमन मदन प्रमापणम् ॥ 
नमामि शिवपिष्ट त्वं । शिव दिशाय् शिवज्ञाहम् ॥ 
हे जड़त्व को चैतन्य करने वाले एवं काम के देव मदन का वाद करने वाले शुद्धात्मन् ! आप शिवपिष्ट हैं और हम आपकी वंदना करने वाले शिवदिक हैं ॥ 

 प्रणिधाने  कीर्तिनम् ।  पद्म पद निर्माल्यम् ॥ 
शिव शंभु प्रिय पुष्पकम् । शंख स्वर स्वस्तिकम् ॥ 
हे शिव !हे शंभु !! विल्व पत्र, श्वेत मदार सहित शंख का सुमधुर स्वन एवं जंगल द्रव्य से युक्त यह पूजन सामग्री एवं मंगल स्तुति आपके चरणों में समर्पित है । 

सर्वधार्य दर्शिनम् । प्रसिद्द सिद्ध साधकम् ॥ 
सर्व काम्य कामदम् । सर्व बंध विमोचनम् ॥ 
सर्वस्व धारण करने वाले शिव । सर्वत्र विख्यात अलौकिक शक्तियों से संपन्न सिद्ध पुरुष॥ सर्वप्रिय समस्त मनोरथ पूर्ण करने वाले शंकर । सभी बंधनों से मुक्ति प्रदान करने वाले शंभु ॥ 

अवतर गगनापगा । स्वर्ग श्री सरिद्वरा ॥ 

शिखा धृत गिरि पते ।  शिव सर्वत्र वन्द्यते ॥ 
आकाशगंगा से  अवतरित होने वाली सवर्ग की वैभव स्वरूपा मंदाकिनी को अपनी शिखाओं में धारण करने वाले हे गिरि पति शिव आप जगत में सर्वत्र वन्दनीय हैं ॥ 
  महा गर्भक्ष कम्बुजम् । महस्वान्वत् हन्तकम् ॥ 
यशस्वी मह योगिनम् । रुद्रो रेतस् लिङ्गवम् ॥ 
हे महा गर्भ ! महा कंबुज !! आप तेजों से युक्त महाकाल स्वरूप हैं ॥ हे परम कीर्तिशाली महान योगी शिव : -- 

शुभोदय् शुभांगिनम् ।  विलक्षणाय शुभ लक्षणम् ॥ 

भस्म शय वाघम्बरम् ।  हिम भूमि भृत वासितम् ॥ 
आप कल्याण का उदय करने वाले सुन्दर अंगों से युक्त हैं ईवा अक्लयांकार लक्षणों से युक्त होते हुवे भी कल्याणकर हैं ॥ हे भस्म में शयन करने वाले वाघ चर्म धारण करने वाले हिमालय पर्वत पर निवास करने वाले शिव ॥ 

गिरा गया गोतीतम् । आकाशवास धृत्वम् ॥ 
त्रयशूल निर्मूलनं । गुणागार नतो अहम् ॥ 

वराक वरा वरियता ।  वरिवसित शरण्य श्रुता ॥ 
गिरि नंदिनी गौरी पतिं ॥ सुखार्थिन् सुभग गतिं ।।   
हे शिव ! आप पर्वत राज हिमालय की पुत्री, माता पार्वती द्वारा वरण किये वरयितृ पति हैं हे पूज्यनीय ! आप शर्णार्थोयों का आश्रय स्थान एवं उनके श्रुतधर हैं ॥ 

कार्तिकेयात्मजम् । गणेश राय नायकम् ॥ 
भव भवानी वल्लभम् । गीत प्रिय परान्तकम् ॥ 
गण के नायक एवं उनके अधिश श्री गणेश एवं कार्तिकेय आपके पुत्र हैं ॥ हे माँ भवानी के प्रियतम गीत प्रिय हे परान्तक : -- 

वैशालाक्ष रचयिता । वैशारद्य शारदा ॥ 
सुखासक्तो आसनम् । जयेश विजितात्मनम् ॥ 
विशालाक्ष शास्त्र के रचयिता आपकी बुद्धि पवित्र हाँ जो आपको पांडित्य प्रदान करती है ॥ आप सुख के आसन पर विराजमान सुख में ही आसक्त हैं आप विजय के देवता  होकर उसकी आत्मा ही हैं ॥ 

त्रिदेहि शूल धारिणम् । डमरू धर त्रिलोचनम् ॥ 
त्रिजट जटा विमण्डलम् । कण्ठ्यहि श्री भूषणम् । 

सबहि देवन्हि मुख दिए काना । सुमधुर स्तुति सुने भगवाना ॥ 
पुनि संभो सिव संकर भोले । नंदीकेस गण सोंह बोले ॥ 

सुरन्हि पहि मम आन लवाई । तेहि समउ गन आयसु पाईं ॥ 
सिबग्य दुआरि बाहिर ठारे । अंतर गत हुँत दिए हंकारे ॥ 

अंतह पुर जब चरन  पधारे । चितबत भगवन भगत निहारे ॥ 
किए अंकति तिन संग प्रनामा । लेइ निरंतर सिव सिव नामा ॥ 

पुनि श्रुतमुख सिव सौमुख  ठाढ़े । कोमल धुनी गिरा कर गाढ़े ॥ 
कहत मयनारि हे मह देवा । यह कीर्तन चरन के सेवा ॥ 

दीन मलिन सुर मुख प्रभा, दरसौ दिरिस निपात । 
हे बच्छर दया कर तव, भगत कृपा के पात ॥ 

शुक्रवार, १३ जून, २०१४                                                                                                           

दुर्धर्षा दुर्दम दनुनाहा । कुपंथ गामिन दुर्मति बाहा ॥ 
करें बिनति दोनहु कर जोगे । वाके हन करु कछु उद्योगे ॥ 

ते हत कारित बिगड़ि सँवारौ । जोइ संभव हो सोइ कारौ ॥ 
श्रुत श्रुतिमुख के दीनइ बचना । सोक सुकुति दुख मनि गहि रचना ॥ 

सकल देवन्हि मुनिगन  संगे । आन बास श्री पत हरि रंगे ॥ 
संग नाग किन्नर मुनि देवा । करत स्तुति कृत सब बिधि सेबा ॥ 

नमनित नयन चरन सिरु धारे । जय जय जय जग नाथ पुकारे ॥ 
दुःख हारिहि तव भगत दुखारी । आन परे तुम्हरे दुआरी । 

हे महा शंख यशोधर, वक्रवर महा देव् । 
महार्णवम् आत्मनम्, सरिस पितु : त्वमेव ॥ 

अच्युतं  केशवं लक्ष्मी: नारायणम् । सहस्त्र पद लोचनं मूर्ति: मूर्धनम् ॥ 
पद्म पत्र वासिनी: पद्म संकाशनी:। कमलं कांत पते स्वामी पदारूढम्॥ 

सर्व भाव: भूताय मंगला वल्लभम् । सर्व लोकेश महेश वागीशेश्वरम् ॥ 
सर्वत: सर्वदा विद सर्वतश्लोकनं। गदा: शंखे पद्मं चक्र चातुर्य भुजं ॥ 

रूपाखिलात्मन् स्वरुपविश्व मोहनम्। विश्रांत् कर्ण युगले विश्रुति श्रुति:स्वरं॥ 
त्वमेव तमोध्न हर तेजस्वान् त्वं । त्वमेवानंजनंत  वीर्य शीर्षकं ॥    

विश्वायनावसोधिवाधारातीतं । विश्व गुरु गोचरं तनु धारणि धारणं ॥
नीलकान्तंग्नाय निभ् नीलांबुजं । नमस्तुभ्यम् नमन: नरोत्तम नमोनम् ॥   

शनिवार, १४ जून २०१४                                                                                                  

रुद्रादि सकल मुनि सुर बृंदा । किए अस्तुति जब ढाढ अलिंदा ॥ 
देवाधिदेव चक्रकर धारी । तिन्हके गान कानन घारे ॥ 

यह प्रजापत मूर्त मनीषा । सुर दसा बिचारत नत सीसा । 
तानंतर इन घन गंभीरा । धुनी कुसुम किए घनकन गीरा ॥ 

सोकागनी समन कर बोले । हे सुर ऋषिगन श्रुतिमुख भोले ॥ 
मोर जुगत श्रवनौ कण धारी । जो तव हुँते परम हितकारी ॥ 

देइ अमर के बिधि बरदाना । एहिकर रावन लह अभिमाना ॥ 
भयउ त्रासक दुसह दुःख दाहे । अ ग जग जन  भय ही भय लाहे ॥ 

दसानन के जे भय प्रदर्सन, मम चित लिए संज्ञान । 
भयातुर प्रतीकार हुँत, जस तुअँ मम पहि आन ॥  



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