Thursday 12 September 2013

----- ।। गुजरे-लम्हे ॥ -----

दिल के दोज़े-दराजा में इक दर्दे-ग़म का दरिया है.., 
पलकों की फलक परवाजों पे कतरा होना पड़ता है..,

अर्शे-जमीं हो जाने को फ़र्शे-ख़ाक बेचैन होती है.., 
नज़रों के दर-पेश-दरवाजों पे ज़र्रा होना पड़ता है.., 

आहों उफतादों की लहरें फ़र्के-फ़राज उफनती हैं.., 
बल्सुम सियाही कनारों पे सजदा होना पड़ता है.., 

बुर्जे-बुलंद सी आवाजें सैलाबी तमन्ना रखती है..,
चश्मे-रुदाद की आबे-ऱौ में दर्रा होना पड़ता है..,   

मुबतिल मजमून से जज्बे जब फ़र्राटे भरते हैं.., 
नफ़्स कशीदे-नजीरे-नज़र, फ़र्दा होना पड़ता है.., 

मरसिया ख्वाँ की महफिल शम्मे-सोजाँ रौशन है..,  
चाक जजीरों के चश्मे-जद  पर्दा होना पड़ता है.., 

बरहमे-अकस मौजे-बर वक्त कहरे-इलाही चाहे.., 
सदीयों के नूर नज़ारों को लम्हा होना पड़ता है..... 


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