१७/१८ अप्रेल २०१४
पैठत लखमन कौसल देसे । दिए मातिन्हिनि सिया सँदेसे ।
आह करत कहिं सबहीँ माता । जरत बिषम जर हमरी जाता ॥
लक्ष्मण ने श्री अयोध्या पुरी में प्रवेश कर माताओं को माता सीता का सन्देश दिया । क्लेश एवं विस्मय सूचक उदगार करते हुवे सभी माताओं ने कहा हाय ! हमारी पुत्री विपरीत परिस्थियों से घिरी है ॥
बिकट बिपिन अरु गर्भ अधारी । पिया बियोगित अबला नारी ॥
गहन दुखरात बिसरत आपा । बिबिध भाँति सब करै बिलापे ॥
इतना दुर्गम वन और फिर गर्भधरा । प्रियतम से वियोजित उसपर ( उस विकत विपिन में ) वह एक अबला नारी । फिर उन्होंने गहन दुःख एवं आर्त प्रकट कर अपना आपा त्याग दिया और वे विविध प्रकार से विलाप करने लगी ॥
बहोरि लखमन प्रभो पथ पाए । कलपत बिलपत चरन गहियाए ॥
दोउ नयन भर दुहु कर जोरीं । भई पुरन हुति कहि हवि तोरी ॥
फिर लक्ष्मण ने भगवान श्री रामचन्द्रजी के पंथ को पाया । और तड़पते काँपते वे प्रभु के चरणों में पड़ गए ॥ दोनों नेत्रों से अश्रुपूरित होकर दोनों हाथ जोड़कर भ्राता-भक्त लक्षमण बोले : -- हे प्रभु! आप के कथन रूपी हवन की पूर्णाहुति हुई ॥
धरे सिखर भुज प्रभु दुहु पानी । कहत लखन कर कोमलि बानी ॥
कारत जग सत कृत कल्याने । होए दुखद न सोक नहीं माने ॥
प्रभु ने अपने दोनों हाथों से भ्राता लक्ष्मण के कन्धों को धारण कर अत्यधिक कोमल वाणी से युक्त होकर बोले : - हे लक्ष्मण ! संसार के कल्याण हेतु किये गए सत्कृत्य दुखद हों तो भी उन कार्यों का शोक नहीं करना चाहिए ॥
जान बिहुर अवध निवासी, खग मृग हय सब लोग ।
जोगत हरिदै दुखारत, गहे बियोग कुरोग ॥
माता सीता के त्याग का समाचार जान कर अवध के निवासी पक्षी मृग घोड़े-हाथी आदि सभी जीव-जाति ह्रदय में दुःख एवं आर्त संयोजित कर माता सीता के वियोग के कुरोग से ग्रसित हो गए ॥
अरु आपने नर नाथ पहि, पुरजन मेलन आहि ।
जुहार जाहि न कहहिं कछु, भरे बिषाद मन माहि ॥
और अवध पुर के निवासित जन मेल-मिलाप कर शोक प्रकट करने हेतु अपने नाथ के पास आएँ । वे मन में विषाद भरकर प्रणाम करते जाते और कुछ न कहते (मानो उस त्याग प्रसंग के वही उत्तरदायी हों )॥
एहि बिधि लखन बचन सों हारे । बहुरे सिय बिठूर बैठारे ॥
जगत बंदनी जनक दुलारी । तेहि काल रहि गर्भन धारी ॥
इस प्रकार भ्राता लक्षमण वचनों से हारी हुई माता सीता को ब्रम्हवर्त ( बिठूर) नामक स्थान में बैठा कर लौट आए ॥ उस समय जगत वंदनी एवं राजा जनक की दुलारी सीता गर्भवती थीं ॥
देस काल बे के अहिराई । बात्स्यायन बिबरन दाईं ॥
तेहि काल जो भारत हेरे । नदी बहुल जुग बिपिन घनेरे ॥
अहिराज भगवान शेषजी ने मुनिश्री वात्स्यायन को देश काल एवं स्थिति का विवरण दिया । यदि तात्कालिक भारत वर्ष का निरूपण करें तो उसमें नदियों की बहुलता थी एवं वह घने वनों से युक्त था ।
बसति बसि बसे बासिन थोरे । दसक सतक सह सहसहि जोरे ॥
लहि किंचित जन संकुलताई । बन जीवन गहि रहि अधिकाई॥
वसति सुवासित थीं किन्तुं उसमें निवासियों की संख्या क्वचित ही थी । दशम,शतकम् अथवा कुछ सहस्त्र अंकों में सिमित थीं । इस प्रकार जन जीवन का घनत्व संकुचित स्वरूप में एवं वन्य जीवन विस्तारित था ॥
बिकट ब्याल रही घन बन बन । अनमोल रहहि मानस जीवन ।।
गाँव खेड़ गत नगर निकाया दोइ चारि दस लैह लघुताया ॥
वन वन में भयङकर हिंसक जंतु विचरण करते थे । मनुष्य का जीवन अनमोल था ॥ गान उपगांव से होकर नगर निकाय लघुत्तम स्वरूप में थे ॥
बाँपी कूप सरित सर नाना । सलिल सुधा सम मनि सोपाना ।।
बेदु बिहित श्रुति के अनुहारे । करमाधार बरन रहि चारे ।।
पोखरे की संरचना देखने को मिलते थी । जल अमृत के जैसे मधुर था और सरोवरों का घाट मणियों से अचित सोपान के सदृश्य थे । उस समय वेद एवं श्रुतियों विहित ज्ञान का अनुशरण होता था जनता कर्म के आधार पर चार वर्गों में विभाजित थी ॥
पछिम आगत नोन नदी, जँह करि संगथ गंग ।
रहत रहहिं तँह आदि कबि, सुधि मुनि अरु सिस संग ॥
पश्चिम से आकर तमस ( नोन) नदी जिस स्थान पर गंगा में मिलती थी उस स्थान को ब्रम्हवर्त के नाम से जाना जाता था जहां आदि कवि महर्षि वाल्मीकि अपने ज्ञानी -ध्यानी मुनियों एवं जिज्ञासु शिष्यों के साथ निवासरत थे ॥
शनिवार १९ अप्रेल, २ ० १ ४
द्रुम दल सों अरु सिया एकाकी । जो जग जीवन जानिहि जाकी ॥
बैसि हार बन पाहन ऊपर । सोचि सिया नागर बहोरि पर ॥
वृक्ष तो समूह से युक्त थे किन्तु जग के जीवन रूप जगन्नाथ की अर्द्धानिगिनी स्वरूप सीता वन में एकाकी स्वरूप में असहाए थी ॥
धीर धरे कस हिय दुःख मेटे । आन समवहु प्रियबर नहि भेंटे ॥
गहे न दिवस कंठ कर माला । लाए काल बन बीच ब्याला ॥
कैसे वह धैर्य रखे कैसे ह्रदय का दुःख मिटे । प्रस्थान करते समय भी भगवान श्रीरामचन्द्र ने उनसे भेंट नहीं की ।। दिवस ने अपने कंठ में केतु माला भी ग्रहण नहीं की थीं कि समय की वक्रगति माता सीता को वन में हिंसक पशुओं के मध्य ले आई ॥
प्रियतम प्रनयन प्रानाधारे । जिन्हनि सिया प्रान सों प्यारे ॥
भागवती भइ बहुस अभागी । जो रघुबर कर गई त्यागी ॥
जो प्रियतम हैं, प्रेमार्थी हैं, प्राणों के आधार हैं जिनको माता सीता प्राणों से भी प्रिय हैं । ऐसी भाग्यवंती अतिशय अभाग्य को प्राप्त हुईं । कि जो श्रीराम चन्द्र के द्वारा ( जनहित में ही सही ) त्याग दी गईं ॥
भरम जाल बस भइ न प्रतीती । एकै रयन गत जे का बीती ॥
प्रभो अवध मैं सघन बन माहि । देखे नयन कहिँ सपन त नाहि ॥
भ्रम जाल के वशीभूत होकर उन्हें इस त्यागकरण का विश्वास नहीं हुवा । एक ही रात्रि में ये क्या हो गया । प्रभु अयोध्या में हैं मैं सघन वन में हूँ । कहीं नयन कोई स्वपन तो नहीं देख रहे ॥
गर्भ गहे जीवन जब भँवरे । जथारथ भास तौ आह भरे ॥
कपटि जंतु अरु बिटप घनेरे । चरण पंथ प्यास जल हेरे ॥
गर्भ में धारण किये जीवन जब भ्रमण करने लगा तब माता को यथार्थ का आभास हुवा और वह दुःख सूचक उदगार व्यक्त करने लगीं ॥ मार्ग में कपटी जंतु थे वृक्षों की सघनता थी चरण पंथ को ढूंड रहे थे प्यास जल को ॥
सुधा अधारे मुख सुखत जाइ । लोयन लोयन सलिल अन्हाइ ॥
इत जनि मानस मनस बियाकुल । उत गर्भ गहे जीवन आकुल ॥
सुधा के आधार स्वरूप मुख शुष्क हुवे जा रहे थे । लोचन लवण युक्त सलिल से निमज्जन कर रहे थे । इधर जननी का मानसरोवर रूपी मन व्याकुल था उधर गर्भ में अवधारित जीवन व्याकुल हुवा जा रहा था ।।
हलफत हहरत हरि हरा बिहुरित बिरहन सोइ ।
हराहरइ भइ गर्भधरा हेर हेम बहु रोइ ॥
फिर वह भगवान श्री राम की त्यागी हुई गर्भवती विरहिन, घबराते कष्ट उठाते जल ढूंड ढूंढ कर शिथिल हो गई और क्रंदन करने लगी ॥
रवि/सोम, २०/२१ अप्रेल २०१४
नीरज बय अरु रयगत लोहा । दहय निलय गहि प्रनय बिछोहा ॥
कठिन भूमि कोमल पद गामी । हेर रत गत सुमिरत स्वामी॥
उनके नीरज संयोजित लोचन लालिमा में अनुरक्त हो गए । प्रणय के वियोग में ह्रदय में अग्नि ग्रहण किए माता कठोर भूमि में अपने कोमल चरणों से गमनशील थीं । और प्रभु श्रीरामचन्द्र का स्मरण करते हुवे जल का निरूपण कर रहीं थीं ॥
मृदुल मनोहर मंजुल गाता । सहत दुसह बन आतप बाता ॥
कहत दुखित हो हे मम नाथा । एक कर कटि धरि एक धर माथा ॥
वह मनोहारी कोमलाङ्गि मूर्ति वन के दुसह सन्तापित वायु को सहती हुई ऐसी दशा में एक कर को करधनी एवं दसरे को माथे पर धारण कर दुखित होकर बोलीं हे मेरे नाथ !
चरन सहत संकट सब भाँती । गहत अरिहि के तिखनित दाँती ॥
आह रसन अरु उदर अहारे । कंठ हेम हिअ पिआ पुकारे ॥
तीक्ष्ण मुखी कंटक ग्रहण किए उनके चरण भी सभी प्रकार के संकट को सह रहे थे ॥ जिह्वा आह! और उदार आहार कंठ जल और ह्रदय प्रभु श्री राम का गुहारी कर रहा था ॥
तिलछित अधर हरिअँ सुखि बानी । साथ कहत हाँ पानी पानी ॥
नाए माथ लपटे तन धूरी । फिरत बिपिन घन सिय पथ भूरी ॥
माता के विदीर्ण अधर एवं शुष्क वाणी , जल की पुकार कर रही थी । उनकी पुकार के सम्मुख धूल भी नतमस्तक गई और उनकी देह से लिपट गईं ऐसी दुरवस्था में अयोध्या के पंथ को भूल उस घने बीहड़ वन में विचरण कर रहीं थीं ॥
ब्रह्मा सुख बाँटे उलटे काँटें करि कस रैनि साँवरी ।
गर्भ जीउ साथा परिहरि पाँथा सिया बन घन भाँवरी ॥
घाम घोर घारी तपित बयारी अरु चारि कोस चलके ।
बोझिल भइ पलकें हलके हलके दुःख धर दिनकर ढलके ॥
विधाता ने सुख बाँटा सो वो काँटा उलटा करके रायणी को कैसा सांवला कर दिया ।और माता सीता गर्भ में गृहीत जीवन के सह त्याग और वियोग से युक्त होकर घने बीहड़ वन में फि रहीं हैं ॥
बन बिचरत पंथ भँवरत भइ सिय भ्रांतिमान ।
गिरत परत साखी धरत रहहि चलाई मान ॥
वन में विचरण करते मार्ग से भ्रमित होकर मेटा सीता विभ्रमित हो गईं ॥ प्राण थे की पयस की आस कर रहे थे वह गिरती पड़ती शाखा पकड़े गतिशील रहीं॥
सोमवार, २१ अप्रेल २० १ ४
डगरी डगरी घन बन भीते । जलकन नयनन गर्भ गृहीते ॥
सिथिल सूल थरि सिख जरि सीला । फिरत रहहीं रघुकुल सुसीला ॥
घने वन के भीतर डगर डगर नैनों में जलकण एवं उदर में गर्भ ग्रहण कर शिथिल होकर काँटों से युक्त वनस्थली और प्रकाश
की किरणों से उष्ण हुई शिलाओं पर रघुकुल की शीलवान वधू यूँ ही फिरती रही ॥
नाना मत मति सरनि बिहारे । प्रान पखेरू पाखिन धारे ॥
हिय लय लीन ए संसय माही । मोर प्रान तनु अहहि कि नाहीँ ॥
मति की सरणि में विभिन्न विचार विहार रत थे । प्राण रूपी पखेरू के पंख निकल आए थे । ह्रदय इसी संशय के लय में लींन था कि देह में प्राण हैं अथवा नहीं ॥
आह करत कर उर धरि सीता । परत भूमि भइ पुनि मूरछीते ॥
गर्भ जिय किए त्राहि मम त्राहि । बही मृदु सीतर सुरभित बाहि ॥
तब दुःख सूचक उदगार व्यक्त करते माता ने ह्रदय ऊपर हाथ रखा और वह पून: भूमि पर गिरते हुवे मूर्छा को प्राप्त हो गई ॥ जब गर्भस्थ जीव रक्षा की गोहार लगाने लगे । तब औचक ही मंद सुगंहित शीतल त्रिबिध वायु चलने लगी ॥
तेहि काल एक मंजु मराला । देख सिया पख भर जल झाला ॥
गाहे मात मुख सीतल बिंदु । हहरि तनि पलक पत्रार्विन्दु ।।
उसी समय एक सुन्दर कलहंस ने माता को मूर्छित अवस्था में देखा और अपने पंखों में जल भर कर उनपर सीकर झींसने लगा ॥ माता के मुखार्विन्द ने जब उस झींसा की सीतल बिन्दुओं को ग्रहण किया तब पद्म पत्रों के सरिस उनके नयन पलक किंचित स्फुरित हुवे ॥
गह जर कुंजर हस्त स्थूरे । धरा सुता जस धोवन धूरे ॥
जूहिं सिया भइ चेतनहारी । दीन बंधु हाँ राम पुकारी ॥
एक हथिनी भी अपने स्त्रोत में जल लिए हुई थीं मानो वह माता के देह से धूल के कणों से मुक्त करना चाहती हो ॥
जल से सिक्त होकर माता की अवचेतना ज्यूँ ही अविच्छिन्न हुई वह पुनश्च दीन बंधु श्री रामचन्द्रजी का आह्वान करने लगी ॥
करुना निधि हे दया निधाने । दोष बिहिन सिय बिहुरन दाने ॥
एकै बचन कहि बन दिए छाँड़े । ए सुनि गोचर नयन जल गाढ़े ॥
और कहने लगी हे करुणा निधि हे दया के सागर आपने दोष से विहीन सीता को त्याग से अभिशप्त कर दिया ॥ केवल एक वचन के आधार पर इस बीहड़ वन में लाकर छोड़ दिया । उन्हें घेरे हुवे वन गोचर ने जब यह विलाप सुना तब माता के भाव में प्रवण होकर उनकी आँखों में जल भर आया ॥
दिए जन जे कस बरदान, मोहि कैसेउ श्राप ।
ऐसेउ बिबिध बचन कह, सिय बन करति बिलाप ॥
हे प्रभु प्रजा को ये कैसा वरदान दिया और मुझे कैसा अभिशाप । इस प्रकार की विविध वचन कहते हुवे ( उन वन गोचर पर ध्यान दिए बिना ) माता विलाप करती रही ॥
मंगलवार, २२ अप्रेल, २ ० १४
झारि वारि सौं सिय तन रेनू । करुन पुकारत कंठ करेनू ॥
बिलपन रत मुख धरि उरगाने। तब गोचर पर देइ धिआने ॥
वारि से माता सीता के देह के रज-रेणु झाड़ कर उनकी दुर्दशा देख हथिनी का कंठ करुण पुकार करने लगा ॥ माता का मुख जो विलाप क्रिया में अनुरक्त था औचक ही मौन विराजित हो गया । तब उन्होंने वन गोचर पर ध्यान केन्द्रित किया ॥
भई देहि कल मुख भै सीतल । फेर फिरैं भए करतल जल जल ॥
बहुरि सिया मत सरनि बिहारे । तापित तल जे सुखद बिचारे ॥
उस जल की सिक्तता से माता की देह से सुख स्पर्श करने लगा और मुख शीतल हो गया जब अपना करतल मुख पर फेरा तो वह जल-जल हो उठा फिर उनके मानस सरणि के संतापित सतह पर यह सुखद विचार विहार करने लगा कि : --
अवसि अहहि कहि सर को सोता । सरसइ सरिलइ थर सरसोता॥
धरत चरन पथ चरत सँभारी । विचरन्हि पद चिन्ह अनुहारी ।।
अवश्य ही यहाँ कहीं कोई सरोवर है कोई स्रव है कोई सरिता है सरसता एवम जल युक्त कोई हरि-भरी स्थली है ॥ तत्पश्चात माता वन पंथ पर चरण धरते एवँ सँभल कर चलते हुवे वन में विचरण करने वाले उन पशुओं के पद चिन्हों का अनुशरण करने लगी ॥
आगीं बन गोचर सिय पाछे । डरपत सकुचत बिच घन गाछे ॥
करन परए पल कल कल बानी । देखि निकट बटु झल झल पानी ॥
आगे आगे वन गोचर चल रहे थे, डरते संकोच करते घने वृक्षों के मध्य से माता सीता चल रही थीं । कुछ पलक में ही कल-कल की सुमधुर वाणी कर्णस्थ हुई । उन्होंने देखा निकट ही एक वट का विशाल वृक्ष है और जल प्रवाहित है ॥
नभो बीथि बहुरत करत कोलाहल दल पाख ।
बिरहित बेर प्रेम मुदित सारंगज रहि भाख ।।
संध्या की सुन्दर बेला थी नभो वीथि पर गमनरत पक्षी-दल कोलाहल करते हूवे करते लौत रहे थे । मृग,सिंह, हाथी अपने स्वाभाविक वैर का त्याग कर प्रेम में प्रमुदित हो परस्पर वार्तालाप कर रहे थे ॥
बुधवार, २३ अप्रेल, २ ० १ ४
फूरहिं फरहिं बिटप बिधि नाना । बलिहारि बलित बेलि बिताना ।।
रजित सांति चहुँ दिसा सुपासू । सुरमुनि गन के जोग निबासू ॥
जो अनेकों प्रकार के फलते फूलते वृक्ष थे । सुन्दर बेलियों के मंडप वलयित होकर उन वृक्षो पर न्यौछावर हो रहे थे । चारों ओर सुख प्रदान करने वाली शान्ति विराजित थी । वह स्थान देवताओं मुनिगणों के निवास के योग्य था ॥
चरत पवन बहु सुभग सुबासा । सीत सुखद सुवतित चहुँ पासा ॥
पिया परिहरि चरन रिपु हारी । नॉन नदी के तीर पधारी ॥
चारों ओर मन को प्रिय लगने वाली शीतल मंद सुंगंधित सुखद वायु प्रवाहित हो रही थी । प्रियतम द्वारा त्याग को प्राप्त कंटको से घाव युक्त चरणों से नोन नदी के तट पर माता सीता का आगमन हुवा ॥
चरत नदि दोई कूल समाए । सुरगा सखि संग मेलन जाए ॥
सम्मुख सिया सोचत मन माहि । ऐसु दिरिस सपन मैं नहि आहि ॥
नदी दो करारों में समाई हुई अपनी सखी भागीरथी के संग मिलन हेतु बही चली जा रही थी ॥ सम्मुख माता थीं और मन ही मन विचार कर रहीँ थीं । ऐसा जलयुक्त दृश्य की मैने कल्पना भी नहीं की थी ॥
कंठ प्यास सुख होठ गुँठाए । पीर गहि नयन पयस दरसाए ।।
एक कन पुट तज बचन करराए । अवर कल कल की धुनी सुनाए ॥
कंठ की प्यास शुष्क अधरों से अवगुंठित थीं । पीड़ा ग्रहण किये नैनों ने यह पयदमयी दृश्य दर्शाया ।। एक श्रुति पुट में त्याग के वचन कर्कश ध्वनि कर रहे थे तो दुसरे में कल-कल की मधुर ध्वनि गोचर थी ॥
पाए पयस जो राम राम की । भइ महिमा महत उस नाम की ॥
गुहारहि जोइ कंठ प्यासे । होहि पूरनित जल प्रत्यासे ।।
राम नाम का स्मरण किया उस श्रेष्ठ नाम की यह महिमा हुई जीवन क सनरकशन करने वाले जल की प्राप्ति हुई । जो कोई तृष्णालु जल की आस किए इस एक नाम को स्मरण करता है फ़िर उसकी प्रत्याशा पूर्ण हो जाती है ॥
कंठ कँटकी प्यास है, पटतर पयस मयूख ।
घट को पय की आस है, पनघट में पेयूख ।।
जो स्वयं सुधाके आधार चन्द्रमा का ही स्वरुप है उस माता के कंठ में प्यास की पीड़ा है ॥ देह को जल की आस है । और पनघट में अमृत प्रवाहित हो रहा है ॥
पीर लोचन तृषा बदन, हृदय हरि के नाम ।
नदि दर्पन मुख छबि दरस, सिरु नत करत प्रनाम ॥
नयनों में पीड़ा मुख में तृष्णा हृदय में ईश्वर का नाम है । नदी के दर्पण ने प्रभु के सुन्दर मुख की छवि दिखाई, माता ने तब नमित शीश से उन्हें प्रणाम अर्पित किया ॥
बृहस्पतिवार, २४ अप्रेल, २०१४
कोष कलस कृत कर जुग हाथे । सजल नयन भरि जल धर माथे ॥
उतरे कंठ जलज सुख रासी । पैह गर्भ जी पाए सुपासी॥
जुड़े हुवे हस्त-तल को हस्त-मुकुल का स्वरुप देकर माता ने सजल नयनो से उसमेँ जल भर कर अपने मस्तक पर धारण किया ॥ एवं प्रथम कलश की मुक्ता सुख राशि कंठ से उतरी वह गर्भस्थ जीवन को प्राप्त हुई जिसे प्राप्तकर उस कष्टमयी जीवन को सुख की अनुभूति हुई ॥
दूजे कलस गहे नल अंगे । तीजे ह्रदय पुरुष मंगे ॥
आतर्पन कर कन तृष्नालू । करतब पूरित राम कृपालू ।
दुसरा कलश गर्भ नाल ने प्राप्त किया । तीसरा कलश हृदय के स्पंदन ने माँगा ॥ इस प्रकार भगवान श्री राम की कृपा से जल के कण ने तृष्णालु को तृप्त कर अपने कर्त्तव्य पूर्ण कर अपनी व्युत्पत्ति को सफल किया ॥
नाउ हरि हरे कंठ बिषादा । पैहहि पयसन नाथ प्रसादा ॥
चरन हराहर गहि अरि तापर । बैठी हरी बृहद सीला पर ॥
भगवान श्रीराम का नाम कंठ की प्यास रूपी पीड़ा को हरने वाला है नाथ के कृपा प्रसाद से माता को जल प्राप्य हुवा॥ चरणों से शिथिल उसपर कंटकों को ग्रहन किये माता तृप्त होकर एक वृहद शिला पर आसीन हो गई और उन कंटकों को अपने चरणों से दूर करने लगी ॥
जहँ जहँ चारी तहँ तहँ हारी । घात सहत झरि लोचन बारी ॥
घाउ देत दुख रुधिरू बहाई । रोध नीर दिए सीतलताई ॥
माता जिन जिन मार्गों से चल कर आई सभी मार्गो पर रिपु रूपी कंटको के घात सहीं उन्हेँ अपने चरणों से दूर करते हुवे उनके नयनों से अश्रु की वर्षा होने लगी इन्होने दुख और घाव देते हुवे रुधिर बहाया किन्तु जल ने उन घावो को भरकर शीतलता प्रदान की ॥
नियति प्रति आभार प्रगसि दाए हृदए सुख छद्म ।
भर नैन सनेह जल जस, सरद काल पत पद्म ॥
माता ने नैनों के स्नेहिल नैणां मेँ शरद -कालिन पद्म पत्र के सरिस जल भर लाईं और उन्होने प्रकृति के प्रति अपना आभार व्यक्त किया । जिसने उन्हें छद्म ही सही कुछ सुख तो प्राण किया ॥
शुक्रवार, २५ अप्रेल, २ ० १ ४
पीर परी पर पय संतोषी । गर्भ भवन भित जीवन पोषी ॥
पंथ चरत पद रिपु हत बाधा । लह अवसाद कलेस अगाधा ।।
इस प्रकार पीड़ा में व्याकुल हुई माता जल से तृप्त होकर गर्भ गृह में स्थित जीवन का पोषण किया । पथ पर विचरण करते प्रथमक कंटको से हत बाधित होना फ़िर अवसाद एवम क्लेश को प्राप्त होना ॥
श्रमित भ्रमित दिनु भर की रोई । मूदि पलक पल भर मह सोई ॥
दूर गगन कहुँ चंदु चकासे । दरसत नदि सुठि जलाकासे ॥
दिन भर का भ्रमरण एवं क्रंदन से वह शिथिल हो गईं उनकी पलकें मूंद कर पल भर मे वह निद्रा मग्न हो गई ॥ दूर गगन में कहीं चन्द्रमा प्रकाशीत हो रहा था, उसकी सुन्दर छवि नदि मेँ दर्शित हो रही थी ॥
बिकरित किरन हिरन सँकासे । बर्ना बन के कन कन कासे ॥
निरखे रैनि सिया मुख मोहीं । प्रात पिया अरु अगुवन जोही ॥
बिखरी हुई किरणे स्वर्णमयी आभा लिये थीं उसके उद्भास से नदी और वन के कन कन भासित हो रहे थे ॥ रैनी जो अपने प्रियतम प्रभात के आगमन की प्रतीक्षा कर रही थी वह माता सीता का श्री मुख देख कर मोहित सी हो गई ॥
नौग्रह भँवर पंथ के राजा । सात अस्व रथ बाहि बिराजा ॥
सारथि अरुन रस्मी सँभारे । महि नगरी मह चरन उतारे ।।
नौग्रही भ्रमर पँथ के राजा अपने सप्ताश्व रथ मेन विराजमान हुवे । सारथी अरुण ने रथ की रश्मियां को वश मेन किया । और उसके चरण मही नमक नगरी मेन उतरते चले गए ॥
भ्रमर कल गुंजार करत, फुरे पद्म पौनार ।
अरुन चूढ़ पुकार करत, जगु रे भए भिनुसार ॥
पद्म अपने पौनारों पर प्रस्फुटित हुवे उसपे काले काले भवरे मधुर गुंजार करने लगे । सुन्दर मुर्गे पुकार करने लगे जागो रे जग सुबह हुई ॥
शनिवार, २६ अप्रेल २ ० १ ४
जागती कला जरत बुझी रे । निदिया निबुकत धीरहि धीरे ।
छाजहि संग प्रात रयनी रे । परबत ऊपर नदि के तीरे ॥
जलती हुई ज्योत जल जल कर बुझ गई । और निद्रा धीरे से पलकों के विबंधन से विमुक्त हुई ॥ कहीं पर्वतों के ऊपर तो कहिन नदी के तट पर प्रात के प्रसंग कर रयनी सुशोभित हो रही है ।।
धीरहि धीरहि तरत दिनेसा । नीक निसा नभ रहि लवलेसा ॥
बिकरित किरन उबटना सानै । छूट मल भए पूरन बिहाने ॥
जब लावण्यमयी निशा नभ की नभ में उपस्थिति किंचित भर थी तब दिन का स्वामी अपने मनियुक्त रथ से धीरे से उतरा । बिखरी हुई किरणों का उबटन सान कर विहान मलिनता से मुक्त होकरपूर्ण-उज्जवल हो गया ॥
सयनय सिया सदन पथबारी । धीरहि धीरहि पलक उघारी ॥
एक छनु लग तउ भई अचंभा । निरख बिपिन गोचर नदि जंभा ॥
माता भौमी जो पाषाण रूपी सदन मेँ शयनरत थीँ । उन्होंने धीरे से पलकों को नयनों से अनावरित किया ॥ गंभीर वन एवं उसके वनगोचर एवं अंगड़ाई लेती हुई सलिता को दृष्टिगत कर एक क्षं के लिए तो वह चित्रीकृत /चकित रह गई ॥
जथारथ सपन सयनि कि जागी । धीरहि धीरहि चेति अभागी ॥
सोक बिषाद रहे अग्याना । प्रगसे चिद गगन भगवाना ॥
यह यथार्थ है कि कोई है मैं सुप्त हूँ कि जागृत हूँ । फिर धीरे-धीरे उस हतभागी की चेतना लौटी ॥ जो शोक एवं विषाद के कारण सुसुप्ता को प्राप्त थी । मानो ज्ञानमय भगवान स्वयं प्रकट हो गए हों ॥
उतर तीर लिए जल मुख धोई । नमनत प्रभु बहु सिसकत रोई ॥
अश्रुकन बहुत नयन कुल दोई । मर्म घन अरन सुने न कोई ॥
तट पर उतर कर उन्होंने जल से मुख प्रक्षालन किया । और प्रभु को प्राणकर सिसक कर वह क्रंदन करने लगीं ॥ अश्रु कण बहुंत अधिक थे लोचन थे कुल दो । उनका मर्म ऐसा था कि जिसे सुनने के लिए उस गंभीत अरण्य में एक प्रभु के अतिरिक्त और कोई न था ॥
हे मुनिबर मनीषी मह बुध सुबिद सुजान ।
जहँ बात हो दसा निरब, तहँ जग सहसै कान ॥
फिर अहियों के नाथ भगवान शेष बोले : -- हे मुनिवर ! विचारशील महापुरुष हे पाण्डित्य को प्राप्त विद्वान ज्ञानी । जहां का वातावरण, निरव होकर शान्त स्वरुपी हो,वहां उस वातावरण के सहस्त्र कर्ण उदयित हो जाते हैं ॥
रविवार, २७ अप्रेल, २०१४
सोइ दिन काल कबि बर कंथा। रचन उद्यत रत मह ग्रंथा ॥
भइ सुरंगिनि साँझ सिन्दूरी । लसी लही लउ लोहित धूरी ॥
उस दिवावधि में जब संतश्री वाल्मीकि महा काव्य ग्रन्थ की रचना करने हेतु उद्यत एवं अनुरक्त थे । तब सुन्दर रंग से रंगी सिंदूरी संध्या
हुई । सिंदूरी रंग को प्राप्त कर उस वन की धूलि के कण कण, लाल माणिक्य के जैसे चमक रहे थे ॥
बलमीकि मुनि पुनि आए बन मेँ । सुजोग समिधि लगे हेरन में ।।
जाग उषा नभ लाली रंगे । धरे द्विज के सकल नियंगे ।।
उषा जागृत हुई नभ उसके लावण्य से अनुरक्त हो गया महर्षि वाल्मीकि तत्पश्चात वन में आए और हवन हेतु सुयोग्य ईंधन की टोह करने लगे । उन्होंने द्विज के समस्त चिन्ह धृत किये हउवें हैँ ॥
रहे बटुक गन के कल साथा । तीनि पुण्ड्र लिखि चंदन माथा ॥
भद्रा काइ भुज सिखर जनेऊ । पीताम्बरी पटतर देऊ ।।
मस्तक पर चंदन से त्रिपुंड्र उल्लखित है । बाल अवधूतों का सुन्दर साथ है । भव्य देह धारी की भुजा शिखर यज्ञोपवीत संस्कार से युक्त है । जिसपर पीले अम्बर से रचित पटोलक दिया हुवा है ॥
श्रृंग सरिस सिरु सेखरित सिखा । अम्बराम्बर हरि नाउ लिखा ॥
साधू सरल जहँ के निबासी । फिरैं बिकट बट बहुँत सुपासी ॥
पर्वत के शिखर के सदृश्य शीश पर शिरोभूषण के सदृश्य शिखा विराजित है । अम्बरों पर हरि का नाम लिखा हुवा है ।वह सीधे साधे संत पुरुष उक्त विपिन के अन्तर के वासी हैं । और ऐसे औघट वन में अत्यंत विश्राम पूर्वक विचरण कर रहे हैं ॥
परे मरम तब मुनिबर काना । सुने धुनी बहु देइ धिआना ॥
तरुना करुनामई पुकारी । कह रे बटु क्रन्दत को नारी ॥
जब माता सीता का मर्म मुनिवर के श्रुति साधन में संधित हुवा । तब उन्होंने उस संधि स्वर को अत्यन्त ध्यान पूर्वक श्रवण किया ॥ वे स्वर किसी करूणामयी तरुणा के जान पडते थे । उन्होंने कहा रे बाल संन्यासियों कोई नारी क्रंदन कर रही है ॥
जोइ धवन मम करन सुनावै । सोई रुदन तुहहि सुनि पावै ॥
सुनि कातर करनन धर हाथा । कहत बटुक हाँ हाँ मुनिनाथा ॥
जो रोदन स्वर मेरे श्रुति साधन द्वारा संधित हो रहे है । क्या वह रुदन तुम्हें भी श्रव्य है ॥ तब उन बाल सन्यासियों ने अपनि-अपनी श्रवणेंद्रियों से हस्त संयोजित कर उस स्वर को उत्सुक होकर श्रवण करने लगे । और फिर कहा हाँ हाँ मुनिवर हाँ मुनियों के नाथ यह रोदन श्रवणीय है ॥
रोदन आकुल दून बियाकुल करुनामई कोमलई ।
गाँव गहावा भेद लहावा सकल दीग भय दुखमई ॥
जल कल बानिहु कल बन धानिहु, करे क्रंदन संगती ।
जस कलपत घायल हहरत कलबल तस को सौभागवती ॥
वह करुणामयी कोमल रोदन उद्विग्न है दोहरे स्वरुप में व्यग्र है । जिसके दुःख ग्राम को ग्रहण किये जिसकी कठिनता को वरण किये समस्त दिशाएं दुःखमयी हो गई है ॥ जल की सुमधुर वाणी एवं यह सुहावनी वन धानी भी उसकी क्रंदन स्वर की संगति कर रहे हैं । ऐसा प्रतीत हो रहा है कि जैसे कोई घायल कल्पता है वैसे ही कोई सौभाग्यवती पीड़ा से योगित होकर अस्पष्ट सी ध्वनि उत्पन्न कर कलप रही है ॥
गहे सुर सिंगारी रस, बिरहा ओट गुठाए।
वासो हमरी रुराई, फूट परन अकुलाए ।।
क्रंदन स्वर श्रृंगार रस से ओतप्रोत हैं और जिसकी ओत किये कोई अवगुंठनवती विरहणी है ॥ ( स्वर इतने उद्वेलित है कि ) उसके संग हमारी भी रुलाई प्रस्फुटित होने को व्याकुल हो रही है ॥
सोम/मंग, २८/२९ अप्रेल, २ ० १ ४
होए बिकल बहु कहि मुनिराई । गहनतम घन भीत बन छाई ॥
अदरस दिसि पथ विपद ब्याला । काल कलुष द्यु द्युत अकाला ॥
उन वटुकों के सह मुनिवर वाल्मीकी भी व्याकुल हो गए और कहने लगे : -- वन की गहनतम मेघो के सदृश्य वन के भीतर की छाया गहनतम मेघों के सरिश्य है जहान न पथ दर्शित होता न दिखाएं जहॉं काल के सदृश्य हिँसक पशु है । कल की इस कलुषता में वहॉँ गगन की द्युति का अभाव है ॥
दावानल दह हरियर हीना । आइ नारि कस संगत बीना ।।
जेइ प्रात रोवय सिसकारै। रहस मई वाके ररिहारे ।।
अग्नि के दाह से यह अरण्य हरीयाली से विहीन है । किसी की संगती के बिना वह नारी यहॉं तक कइसे आ पहुंचीं । जो प्रात: से ही सिसकियाँ लेकर रोए जा रही है । उसकी रुदन की पीड़ा अत्यंत ही रहस्यमयी है ॥
कौन अहहि जे कहँ सौं आयीं । देखु रे बटुक तनि पहिं जायीं ॥
अस मुनिवर सिय लेन हेरवएँ । रोदन दिसा पिछु बटुक पठवएँ ॥
वह कौन है, कहाँ से आई है । रे वटुकों जाओ तुम वहां जाकर देखो तो । इस प्रकार मुनियों के नाथ माता सीता की ढूंड लेने उन बाल सन्यांसियों को क्रंदन-स्वर के दिशा के पीछे भेजा ॥
किन कारन कर भई दुखारी । आए देस को रोवनहारी ॥
का बिनसाहि किन्हनि गवाही । तरक कुतरक आए मन माही ॥
वह किस कारणवश दुखियारी हो गई । वह रोवनहारी किस देश से आई है । उसने क्या नष्ट कर दिया किसे खो दिया फ़िर ऐसे तर्क वितर्क से भरे विचार मुनिवर के मन की सरणि मेन विचरण करने लगे ॥
जहँ तिय रव रवैए बटु तहँ गवैय अनुहार गुरुबर कहे ।
पैठ पनघट निकट , चितइ चित्रित बट चित्रलिखित चितबत रहे ॥
एक पयस मयूखी मल प्रभ मूखी सरलइ सतित्वा सती ।
निज पिया प्रेम रत ररकत रअरत राम राम पुकारती ॥
जहाँ वह स्त्री स्वरुप माता सीता क्रंदन रत थीं वह बाल सन्यासी कविराज गुरुवार वाल्मीकि के कथनका अनुशरण कर वहॉं गए । और जब वह नदि के निकट पहुंचें तब चित्रमयी उस वट वृक्ष को देखकर वह स्वयं स्थिर चित्र लेख हो गए । वहां एक सरल स्वभाव वाली पतिव्रता चन्द्रानना जिसके मुख की प्रभां मलिन होगई थी । वह अपने प्राणधार के प्रेम मेन अनुरक्त हुई पीङा को प्राप्त वारंवार राम राम पुकार रही थी ॥
हे जन नेहीं बिनु हेतु सनेहीं धेनु धनबन हित करे ।
करें न्यायकरन जो बिनु कारन जगत जिउ जीवन हरे ॥
भू कलुष हरन जो लई अवतरन परमातम देह धरे ।
पुनि धनुष सिवा का तोड़ तडाखा, अजोगि कृत जोंग बरे ॥
( वह कह रही थी कि) हे सर्वप्रिय ! अकारण किसी से प्रेम करने वाले, धरती से लेकर अम्बर तक के चराचर क हित करने वाले । पृजो अकारण ही जगत के जीवों के प्राण हारते हैँ ऐसी के न्यायकर्त्ता । हे परमात्म आप भूमि की कलुषता का हरण करने हेतु ही मानव की देह धारण किये ॥ और आपने शिव जी का धनुष एक ही तडका में भङ्ग कर मुझ अयोग्य को योग्य कर मेरा वरण किया ॥
जन रँजन भारु भंजना, सरन अर्थी सुख श्राम ।
परम पवित प्रभु आचरन, सिय पिय करत प्रनाम ॥
हे जन जन को आह्लादित करने वाले उनके भरून क विभंजन करने वाले शरणार्थियों के स्युख रूपी मंडप परम पवित्र चारित्र से युक्त प्रभु आपको यह सीता प्रणाम अर्पित करती है ॥
दिए मम काहु बियोग, का रहि न तुम्हरे जोंग ।
दिए उर बिरह कुरोग, कहै सियँ बन छाड़ि दई ॥
चारि घरी यह श्रवनत हौरे । उलट बटुक पुनि चरन बहोरे ॥
गवनइ अचिरम मुनिबर पाहीं । रोवन हारिनि हेरन दाही ॥
गर्भधरा एक मुख सौं भोरी । बैसइ नदि तट दुहु कर जोरी ॥
भरे नैन जल बिगलित केसा । भरे देह माह राजसि भेसा ॥
जान परे जस बाकी बानी । जो भरि भाव बिरह रास सानी ॥
बिरहनी को पिया बियोगी । सरल सील संयोजन जोगी ॥
गावहि आपने दइत चरिता । श्रवणए तिन्ह दिए करन सरिता ।
बाके नयन भाव जस प्रबने । गुरुबर हमहि सों कहत न बने ॥
सुधा सरिस कन लस लवन, बह भर भावाबेस ।
कहत बटुक अजहुँ तहँ गत, पेखहु आपहि सेष ॥
बुधवार , ३० अप्रेल, २ ० १ ४
सुनत बटुक के कोमल बचना । किए कहनी रोवनि जस रचना ॥
बिरहाई पहि गयउ सँकोची । रहे चकित मुनि छिनु भर सोचीं।।
गर्भधारा सह राजसि भेसा । पिया बिरहनी बिगलित केसा ॥
बैठि एककी कुलिनी कूला । पीड़ित बदन चरन गह सूला ॥
केस ब्यासित तिलकित तूरा । लावनी रूप श्री सैंदूरा ॥
दुहु कर जोगित आरु सिरु नाई । निज प्रीतम जस कीर्ति गाई ॥
पेम मगन पिय दरस पयासी । राइ प्रिया को नगर निबासी ॥
भाग वती अभागिनी लेखें । कँह अधार मुनि बटु चित्ररेखे ॥
मुनिबर चरन चरए बहुरि बटु गन पच्छहि पाछ ।
बैठहि पाहन बेदिका, जहँ सिय अँसुअन छीछ ॥
बृहस्पतिवार, ०१ मई, २ ० १ ४
नाकुहु चित्रीकरन कर देखे । जिमि चित्र कारु चित्रित कृत लेखे ॥
दिस दरसन एहि तनिक सकुचाए । सोइ मुद्रा मुख सौह नियराए ॥
महर्षि वाल्मीकि ( नाकु =वाल्मीकि) भी आश्चर्य से चकित होकर माता को चित्रवत् देख रहे थे । मानो उन्हें भी किसी चित्रकार ने चित्रित कर लेखांकित किया हो । ऐसे दृश्य का दर्शन करके मुनिवर संकोचित हो गे आउर ऍसी ही मुख मुद्रा लिए माता के सम्मुख हुवे ॥
नयन सनेहिल मेघ बय छाए । मुनिबर मुख सिय सम्मुख आए ॥
बैसि सिया कर चरन सकेरे । सोक मगन तन भूसन हेरे ॥
मलिन प्रभा मुख दर्सन पावन । बदन अगहन नयन घन सावन ॥
दिरिस दुसह् दुख जेठ दुपहरी । पिय चरित राग मह फाग बरी ॥
लय लयन मगन आप धिआना । मुनि चरण धुनी देइ न काना ॥
कबिमन उपजे करनइ भावा । सील सकुच सुठि सरल सुभावा ॥
बच्छल पूरित मुख बर बानी। सौम सहज सनेह रस सानी ॥
चयन सुकथन बर्न क्रम लेई । अरु हरियर बोलइ हे देई ।।
कहत बटुक मोहि गुरुबर, रत्नाकर बल्मीकि ।
पनघट बैठि एककिहि हे , नारि नयारी नीकि ॥
कौन तुम्ह अरु कहँ सन आनी । भूर पंथ पूछे महा ज्ञानी ॥
महिक सुता कहि करत प्रनामा । किये परिहरन मम श्री रामा ॥
और मुख में वात्सल्य पूरित वाणी वरण कर महा ग्यानी ने पूछा :- " तुम कौन हो " ॥ सीता ने मुनिवर को प्रणाम करते हुवे
कहा :-- ' श्री राम जी ने मेरा परित्याग कर दिया ' ॥
एक छन मुनि अचरज कर ठाढ़े । तँह वदने अस वचन दुखारे ॥
दुखित न हो धिय धरु न उदासिहि । अजहुँत तव मम आश्रम वासिहि ॥
एक पल को तो मुनि आश्चर्य चकित होकर वहीँ ठहर गए । तत पश्चात दुःख पूरित ऐसे वचन कहे : -- हे पुत्री तुम दुखित न
होव और मन में निराशा न धरो । अब से तुम मेरे आश्रम में निवास करोगी ॥
मान धिया सिया लै गए, गुरुवर घनबन धाम ।
श्री मुखांकित कर धरे, बन देवी शुभ नाम ॥
सीता को अपनी पुत्री मान कर उसे गुरुवर उअसे घनेवन में स्थित आश्रम में ले गए । और अपने श्री मुख पर अंकित करते
हुवे सीता का शुभ नाम 'वनदेवी' रखा ॥
मंगलवार, १ ८ जून, २ ० १ ३
बसी सिया कबि बर के छाई । चरन परत बन भू हरियाई ॥
सकल प्रानि बन भए उल्लासे । पंगत पंखी कूजि अकासे ॥
माता सीता कविवर वाल्मीकि के वन आश्रम में बस गई । उनके चरण पड़ने से वन की भूमि हरि हो गई॥ वन के समस्त प्राणी भी उल्लास से भर गए । पक्षी पंक्तियों आकाश में विचरण करते हुवे कलरव करने लगे ॥
देखत रघुकुल के मुख चंदा । पाए बहुस सुख तरुबर बृंदा ॥
जे बन भू रहि कंटक करनी । उयउ तिन्ह किए कोमलि धरनी ॥
रघु के कुल की चन्द्र मुखी का इस प्रकार से दर्शन करते हुवे तरुवर समूह अत्यधिक सुख पा रहे थे ॥ जो वन भूमि पहले काँटों को उपजाति थी । वह तृनुप्जा कर अब अति कोमल हो गई ॥
साखि सुरंगत सुमन सौगंधिए । लह लह बहतिहि बहि बहु बंधिए ॥
कूल तमस अस कल कल कारे । जूँ नूपुर रुर सुर झनकारे ॥
शाखाओं पर सुन्दर वर्ण ग्रहण कर पुष्प अति सुगन्धित हो गए । उस सुगंध से बंधकर हवा भी लहलहाती हुई बहने लगी ॥ तामस नदी का किनारा, कल कल का ऐसा स्वर उत्पन्न करता जैसे की वह सुन्दर नूपुर के स्वरों की झंकार हो ॥
टूक बटुक बट बटर बिहारे । सिय कौ लागे अति मनुहारे ॥
गर्भनि के सेवा सत्कारे । मेल मिलत सब करत सँभारे ॥
आश्रम शिष्यों की टुकड़ियां में वट वृक्ष के चारों और भँवरते हुवे क्रीडा करते । जो माता सीता को अति मनोहर प्रतीत होते ॥ गर्भ वती माता की सभी बटुक मिला जुल कर देख भाल और सेवा सत्कार करते ॥
एहि किवंदती बन बन छाहीं । चर अचर सब बोल बतियाहीं ॥
हरषत करषत अस गुन गाई । अवध देस एक नारी आई ॥
यह किवंदती स्वरूप वन के समस्त स्थलों में प्रसारित हो गई चार ( समस्त जीव) अचर ( नदी पहाड़ आदि ) आपस में बातें करते हुवे बहुंत ही अनुरागित एवं आनंद मग्न होकर ऐसे गुण गाते कि अवध नामक स्थान की एक नारी वन में रहने आई हैं ॥
हरियारी छाई, रे बन भाई, एक नीरज नयनि नारि ।
एक अवध निवासी के लउरासी सुमनस सौंह सुकुमारि ॥
भगत सिरोमनि त्रिभुवन पत दसरथ नंदन की प्रान समा ।
प्रियरन कारी की धनु धारी की अति प्यारी प्रियतमा ॥
अरे भाई ! जिससे सारे वन में हरियाली छा गई है, उस एक कमल सदृश्य नारी के जो की अवध देश की निवासी तथा समस्त कामनाओं का भंडार वह कुसुम के सरिस कोमल हैं ॥ भक्तों में श्रेष्ठ त्रिभुवन के स्वामी तथा दशरथ के पुत्र की तथा सबका हीत करने वाले धनुर्धारी वीर श्री राम चन्द्र की प्रियतमा एवं अर्द्धांगिनी हैं ॥
हंसा बदन अधरामृत बिहग बिहंगम हास ।
रूप सम्पद श्री बत्स भृत बसि बन केतन बास ॥
जिसका मुख रजत के सदृश्य श्वेत है अधरों पर अमृत है और जिसकी हँसी चन्द्रमा के सदृश्य अभूतपूर्व है । जग मोहन की यह रूप सम्पदा
आज वन के आश्रम में आ बसी है ॥
दमक रह दौ दृग जाके , बानी में मधु धूर ।
लउ लब्ध दर्सन जाके, दुःख दारिद हो दूर ॥
जिनके दोनों नयन प्रभासित हो रहे हैं वाणी में मिश्री घुली है उनके दर्शन मात्र जिसको प्राप्त हो जाएं उसकी तो दुःख दरिद्रता ही दूर हो जाए ॥
स्वरूप संपद रनिबासन की । तपस्वनी तऊ तपो बन की ॥
बन बरस बरस बर तापन की । बहुरिहि तपकृस तन काँचन की ॥
महातिमह ग्रंथन रचनाकर । मन हो मन मननत रतनाकर ॥
अरथ उद्धरत बखत बिरताए । देखउत प्रसव काल नियराए ॥
उदक अर्थ उद्कत उदगारा । धरी सरिताsअमृत जल धारा ।।
चंचल चपल चली बल खाते । कूल पूल कन कन खनकाते ॥
समऊ अति सुभ मंगल कारी । चहुँत ओर बहि त्रिबिध बयारी ।।
दिवसनुकुल बहु सीत न घामे । जानकी जानि जनिमन जामे ॥
गर्भ धरा कर्निक कुटि ओटे । जनमन भए दौ जुगलित ठोटे ॥
संकुल सुर कर कौसुम साजे । गावत गुन गन गगन बिराजे ॥
दुइ पद दुइ भुज वदन एक, जन्मे जुगल जुहान ॥
लतिक बल द्रुम दल आलय, तमस तटिनी मुहान ॥
भावार्थ : -- यह तपस्वनी, स्वरूप तो रानियों के प्रासाद का है, तब पर भी यह तपोवन में रह रही है ।।
बरसों बरस वन में शरीर को कष्ट देते हुवे सोना किया , पुन:तपस्या से क्षीण होकर तन को तपाए हुवे
स्वर्ण सा अर्थात कुंदन किये है ॥
महातिम: ग्रन्थ की रचना करते हुवे रत्नाकर( महर्षि वाल्मीकि का पूर्व का नाम) ने मन ही मन में यह
चिंतन किया । और प्रयोजन उद्धृत करते समय बिता । देखते-देखते प्रसव काल भी निकट हो आया॥
जल की आकांक्षा रखते हुवे उदगार स्थल से उत्साह पूर्वक सरिता जल की अमृत धारा, धारण किये
बड़ी ही चंचलता एवं चपलता से युक्त होकर कगारों पर जल के कण समूह को खनकाती एवं बल खाती
हुई चली ॥
समय अत्यधिक शुभ एवं कल्याण कारी है । चारों और शीतल-मंद-सुगन्धित वायु प्रस्तारित हो रही है
दिवस अनुकूल है न तो अधिक शीतलता है और न ही धूप है । जानकी जिनकी पत्नी है उन रामचन्द्र की सन्तति को जन्म दे रही है ॥
गर्भवती, कर्णिक अर्थात पत्ते और शाखाओं की कुटिया के ओट में है । और दो युगल पुत्र जन्म ले रहे हैं।
देव समूहों के हाथ में पुष्प सुसज्जित हैं । और वे श्री राम चन्द्र के गुणों की स्तुति करते हुवे गगन में
विराजमान हैं ॥
दो पेर दो हाथ और एक मुख लिए, लताओं से वलयित वृक्षसमूह वन में तामस नदी के कगार पर युगल
जातक का एक साथ जन्म हुवा ॥
शनिवार, २ २ जून, २ ० १ ३
बाल मुकुंदिन रोदन बानी । कल रव जस नदिया के पानी ॥
हर्षे महर्षि बटुहु हरषाए । नंदत बिटपबर पात हिलाए ॥
भावार्थ: -- उन नन्हे बालकों की रुदन वाणी ऐसी थी जैसे की नदी का पानी कोमल मधुर ध्वनी उत्पन्न कर रहा हो ।। ( यह सुन कर ) महर्षि वाल्मिकी प्रसन्न चित हो उठे साथ ही बालक शिष्य भी आनंदित मग्न हो गए और तरुवर मुदित होकर अपनी पत्तों को हिलाने लगे ।।
जो को अनुपम बालक पेखें । रुप रासि गुन गिन गिन रेखें ॥
सकल बिपिन उर मंगल छाईं । माई कै तौ कही न जाई ॥
जो कोई भी इन अद्भुत बालकों को देखता वह इनकी सुन्दरता की राशि-समूह के गुणों को गिन गिन कर चिन्हांकित करता॥ समस्त उपवन शुभ लक्षणों से युक्त हो गया और माता ? उनके आनंद का तो वर्णन ही नहीं किया जा सकता ॥
धारे महर्षि दोनउ नामा ॥ लव अरु कुश बालक नामा ॥
नाम करन बहु कीरति कारे । सोहत सुख जननी मुख धारे ॥
महर्षि वाल्मीकि ने दोनों बालकों का नाम धरा । नाम कारन अत्यधिक कीर्ति करने वाला था जो कि माता के मुख पर उच्चारित होकर अति सुशोभित होता ॥
मोदत मंदर सुन्दर जोरी । दरसन छबि जस चाँद चकोरी ॥
कभु को कर कभु को कर लीना । पलै पलन पर पाल बिहीना ॥
दोनों बालकों का जोड़ा ऐसा सुन्दर था कि दर्पण भी मुग्ध हो उठा और उनका दर्शन प्रतिबिम्ब ऐसा हो गया मानो चाँद स्वरूप बालकों को दर्पण रूपी चकोर निहार रहा हो ॥
दोउ सिया के नैनन मोती । सूर बंस रघु के कुल जोती ।।
पिय परिहरु बन बासित किन्हें । सिया हिया पर सुत सुख दिन्हें ॥
दोनों बालक माता सीता के नयनों के अश्रु कण स्वरूप हो गए, और सूर्य वंशी राजा रघु के कुल के ज्योत रूप में जगमगाने लगे ॥ प्रियतम ने तो सीता का परित्याग कर वन का वासी बना दिया किन्तु पुत्रों ने उनके विरही ह्रदय को सुख से परिपूर्ण कर दिया ॥
भव भूयाधि भूर रघुबंस सूर दुइ कपूर कुल वर्द्धनी ।
मूर्द्धाभिषक्ति वैभव बिरक्ति रघुवर अंगिनी अर्द्धनी ॥
बिय बाल मुकुन्दे छद्मन छंदे दुइ पद पदुम चारि चरने ।
को अर्न बर्तिका बर्न बर्निका बर्नन बरनत न बने ॥
( इस प्रकार) पृथ्वी के सबसे बड़े अधिराज, रघु वंशी राजा श्री राम चन्द्र के कुल का वर्द्धन करने के लिए उस वंश के लोचन स्वरूप दो पुत्रों को श्रेष्ठ क्षत्रिय किन्तु वैभव से विरक्त रघुवर की अर्द्धांगिनी ने जन्म दिया ॥ दोनों बालक छंद का स्वरूप हैं जिसके दो पद और चार चरण होते हैं
कॊई भी अक्षर कॊई भी तुलिका कोई भी रंग की मसि से उनका वर्णन वर्णित नहीं किया जा सकता ॥
भव सागर रघु कुल मूल लिए दु कैरव अकार ।
दुनौ भइ भूषन सरूप, अस जस मनि मनियार ॥
संसार रूपी समुद्र में रघु कुल के वंश मूल से दो कुमुद प्रस्फुटित हुवे दोनों ही जगत के भूषण स्वरूप ऐसे हैं जैसे की दो मणि चमक रहे हों ॥
पिया बिरह पर को कर केही । बखत बितावति बन बैदेही ॥
दौ सुत सह सिय भइ बनबासी । पल छिनु दिनु दिनु भए मासी ॥
प्रियतम के बिछोह का दुःख किन्तु किससे कहती ? अत वैदेही अपना विरही समय वन ही में बिता रही थी ॥ दो पुत्रों के साथ वन वन की वासी हो गई और पल क्षण में,क्षण दिवस में और दिवस मॉस में परिवर्तित होने लगे ॥
लइ ललनइ छबि नयनभिरामा । प्रभा बदन प्रति बिम्बित रामा ॥
सुहासन ससी किरन सूचिते । सुधा श्रवाधर अधार सहिते ॥
दुलारों की छवियाँ नेत्र प्रिय हो गईं । और उनकी मुख की आभा श्री का ही प्रितिबिम्ब देने लगी ॥ मुख की सुन्दर मंद हँसी मानो चंद्रमा की किरणों की ही सूचक हों और अधर अमृत बरसाने वाले चन्द्रमा ही से युक्त हों ॥
नक नख सिख सह मुखारविन्दे । दिव्य दरस दृग रतनन निंदे ॥
ललित कलित कुंतल घुँघराले । घुटरु पदोपर चले मराले ॥
कमल मुख नासिका सहित नाख़ून से शीर्ष तक अलौकिक दर्शन दे रहे थे और दृष्टि मानो रत्नों की भी निंदा कर रही हों ॥ केश कुन्दलता ग्रहण किये सुशोभित हो रहे थे । और घुटनों पर चलने वाले अब हंस के जैसी मनोरम चाल चलने लगे ॥
बट रसरिहि कभु डारि उछंगे । कास कटि केरि लावन लंगे ॥
नील मनि सम सरीर सुरंगे । तूल तिलक तल निटिल नियंगे ॥
बालक,कटि ऊपर सुन्दर कछनी कसे कभी वट वृक्ष की जटा तथा कभी उसकी डालियाँ पकड़ कर उछलते ॥ शरीर ने नीलम के सदृश्य मोहक नीलवर्ण वरण कर लिया था ॥ और माथे पर लाल तिलक का चिन्ह सुशोभित हो रहा था ॥
किलकत कौतुकिय करत, बालक कुञ्ज कुटीर ।
हरि भै भूइ ब्रम्ह बरत पा हरि के दौ हीर ॥
लतागृह में दोनों बालक खिलखिलाते और कौतुहल करते , ब्रम्हा वर्त की वह भूमि, श्री हरी के उन दो रत्नों को प्राप्त कर अत्यंत प्रसन्न चित हो उठी ॥
द्रुम दल सकल फूल फल पाखे । खग मृग जीउ जंतु बन साखे ॥
पलत दोउ आश्रम सुर धामा । रघुकुल दीपक नयनभिरामा ॥
वृक्षों के दल फूल फल एवं उनकी पत्ते और पक्षी, मृग आदि समस्त जीव जंतु साथी बन गए रघु के ये नेत्रप्रिय कुल के दीपक, देव धाम स्वरूप उस वन आश्रम में पलने लगे ॥
काल चाक चर गति कर बाढ़े । हरियर सुतबर बपुधर गाढ़े ॥
बाल्मिकीहि महर्षि मंडिते। मसि पथ के रहि महा पंडिते ॥
समय का चक्र अपनी गति अनुसार बढ़ता चला गया और उन श्रेष्ठपुत्रों की सुन्दर देह आकृति, धीरे धीरे सवरुप लेने लगी ॥ महर्षि उपाधि से विभूषित वाल्मीकि ऋषि, लेखनी के महा विद्वान पंडित थे ॥
धनु बिधा तिन्ह निपुनित किन्ही । जुद्ध कला के दीक्षन दिन्ही॥
स्तुति गीत पद मुख कल नादें । निगमागम बालक वद वादें ॥
उन्होंने उन युगल पुत्रों को धनुष विद्या में निपुण किया । और युद्ध कला की दीक्षा दी । बालक स्तुति, गीत, पद आदि को मधुर स्वर में गाते, और वेद शास्त्र का कथन करते हुवे शास्त्रार्थ किया करते ॥
सिय राम कुँवर कालनुसारे । वेद बिदित बर दिए संस्कारे ॥
द्विज जाति जे शास्त्र बिहिते । बारह मनु सोलह अन्य कृते ।।
सियाराम के उन कुंवारोंको समयानुसार वेद विधान में विदित श्रेष्ठ संस्कारों दिए गए ॥ द्विजातियों के शास्त्र विहित कृत्य जो मनु अनुसार बारह और कुछ अन्य लोगों के अनुसार सोलह हैं॥
यत् गर्भाधान च पुंसवन सीमंतोन्न्यन: जातकर्म: ।
यद नाम कर्माय च निष्क्रमणाय च अन्न्प्राशनम कर्म: ॥
चूड़ाकर्मोपनयन केशान्तवं समावर्तन: विवाह: ।
अन्य: कर्णभेदम विद्यारंभ वेदारभ: अंत्येष्टि:॥
जो हैं गर्भाधान,और पुंसवन,सीमंतोन्न्यन,जातकर्म तथा नामकर्म, निष्क्रमण, अन्नप्राशन का कर्म, चूड़ाकर्म, उपनयन, केशांत, समावर्तन, विवाह; अन्य चार हैं कर्णभेद, विद्यारम्भ, वेदारम्भ, अंत्येष्टि ॥
कबि कोबिद के मुख वाद, दोनौ सुत बन लोक ।
निगमागम निगदित नाद गावहिं सकल श्लोक ॥
मंगलवार, २५ जून, २ ० १ ३
भोर साँझ साँझी भइ भोरे । दोनौ बालक भयउ किसोरे ।
दिव्य दरस दिए देह अकारे । तन स्याम मन मृदुल कुमारे ॥
बिधा निपुन बुध गुन आगारे । सकल ज्ञान गिन चितबन घारे ॥
बेद श्रुतिहि अस मधुर बखाने । सारद सेषहु अचरज माने ॥
रचे रमायन श्री गिरि बानी । बाल्मिकी कबिबर अभिधानी ॥
तेहि मह ग्रंथन दोउ भाई । कंठ कलित कल रव कर गाई ॥
मधुर गान अस तान पूरितें । कंठी ताल सकल सुर जीते ॥
मंद मधु मुख मंडित मांडे । कल सकल श्री सप्तक कांडे ॥
रुप सिन्धु ज्ञान के कुञ्ज, भयउ दूनउ किसोर ।
नयन मुँदत रयन जाके, नयन उघारे भोर ॥
आन रहहि जे पहुन दुआरे । भली भाँति सादर सत्कारे ॥
ए बिधि परिहार तुरंग, जग कारिन जज्ञ कारि ।
पैठत लखमन कौसल देसे । दिए मातिन्हिनि सिया सँदेसे ।
आह करत कहिं सबहीँ माता । जरत बिषम जर हमरी जाता ॥
लक्ष्मण ने श्री अयोध्या पुरी में प्रवेश कर माताओं को माता सीता का सन्देश दिया । क्लेश एवं विस्मय सूचक उदगार करते हुवे सभी माताओं ने कहा हाय ! हमारी पुत्री विपरीत परिस्थियों से घिरी है ॥
बिकट बिपिन अरु गर्भ अधारी । पिया बियोगित अबला नारी ॥
गहन दुखरात बिसरत आपा । बिबिध भाँति सब करै बिलापे ॥
इतना दुर्गम वन और फिर गर्भधरा । प्रियतम से वियोजित उसपर ( उस विकत विपिन में ) वह एक अबला नारी । फिर उन्होंने गहन दुःख एवं आर्त प्रकट कर अपना आपा त्याग दिया और वे विविध प्रकार से विलाप करने लगी ॥
बहोरि लखमन प्रभो पथ पाए । कलपत बिलपत चरन गहियाए ॥
दोउ नयन भर दुहु कर जोरीं । भई पुरन हुति कहि हवि तोरी ॥
फिर लक्ष्मण ने भगवान श्री रामचन्द्रजी के पंथ को पाया । और तड़पते काँपते वे प्रभु के चरणों में पड़ गए ॥ दोनों नेत्रों से अश्रुपूरित होकर दोनों हाथ जोड़कर भ्राता-भक्त लक्षमण बोले : -- हे प्रभु! आप के कथन रूपी हवन की पूर्णाहुति हुई ॥
धरे सिखर भुज प्रभु दुहु पानी । कहत लखन कर कोमलि बानी ॥
कारत जग सत कृत कल्याने । होए दुखद न सोक नहीं माने ॥
प्रभु ने अपने दोनों हाथों से भ्राता लक्ष्मण के कन्धों को धारण कर अत्यधिक कोमल वाणी से युक्त होकर बोले : - हे लक्ष्मण ! संसार के कल्याण हेतु किये गए सत्कृत्य दुखद हों तो भी उन कार्यों का शोक नहीं करना चाहिए ॥
जान बिहुर अवध निवासी, खग मृग हय सब लोग ।
जोगत हरिदै दुखारत, गहे बियोग कुरोग ॥
माता सीता के त्याग का समाचार जान कर अवध के निवासी पक्षी मृग घोड़े-हाथी आदि सभी जीव-जाति ह्रदय में दुःख एवं आर्त संयोजित कर माता सीता के वियोग के कुरोग से ग्रसित हो गए ॥
अरु आपने नर नाथ पहि, पुरजन मेलन आहि ।
जुहार जाहि न कहहिं कछु, भरे बिषाद मन माहि ॥
और अवध पुर के निवासित जन मेल-मिलाप कर शोक प्रकट करने हेतु अपने नाथ के पास आएँ । वे मन में विषाद भरकर प्रणाम करते जाते और कुछ न कहते (मानो उस त्याग प्रसंग के वही उत्तरदायी हों )॥
एहि बिधि लखन बचन सों हारे । बहुरे सिय बिठूर बैठारे ॥
जगत बंदनी जनक दुलारी । तेहि काल रहि गर्भन धारी ॥
इस प्रकार भ्राता लक्षमण वचनों से हारी हुई माता सीता को ब्रम्हवर्त ( बिठूर) नामक स्थान में बैठा कर लौट आए ॥ उस समय जगत वंदनी एवं राजा जनक की दुलारी सीता गर्भवती थीं ॥
देस काल बे के अहिराई । बात्स्यायन बिबरन दाईं ॥
तेहि काल जो भारत हेरे । नदी बहुल जुग बिपिन घनेरे ॥
अहिराज भगवान शेषजी ने मुनिश्री वात्स्यायन को देश काल एवं स्थिति का विवरण दिया । यदि तात्कालिक भारत वर्ष का निरूपण करें तो उसमें नदियों की बहुलता थी एवं वह घने वनों से युक्त था ।
बसति बसि बसे बासिन थोरे । दसक सतक सह सहसहि जोरे ॥
लहि किंचित जन संकुलताई । बन जीवन गहि रहि अधिकाई॥
वसति सुवासित थीं किन्तुं उसमें निवासियों की संख्या क्वचित ही थी । दशम,शतकम् अथवा कुछ सहस्त्र अंकों में सिमित थीं । इस प्रकार जन जीवन का घनत्व संकुचित स्वरूप में एवं वन्य जीवन विस्तारित था ॥
बिकट ब्याल रही घन बन बन । अनमोल रहहि मानस जीवन ।।
गाँव खेड़ गत नगर निकाया दोइ चारि दस लैह लघुताया ॥
वन वन में भयङकर हिंसक जंतु विचरण करते थे । मनुष्य का जीवन अनमोल था ॥ गान उपगांव से होकर नगर निकाय लघुत्तम स्वरूप में थे ॥
बाँपी कूप सरित सर नाना । सलिल सुधा सम मनि सोपाना ।।
बेदु बिहित श्रुति के अनुहारे । करमाधार बरन रहि चारे ।।
पोखरे की संरचना देखने को मिलते थी । जल अमृत के जैसे मधुर था और सरोवरों का घाट मणियों से अचित सोपान के सदृश्य थे । उस समय वेद एवं श्रुतियों विहित ज्ञान का अनुशरण होता था जनता कर्म के आधार पर चार वर्गों में विभाजित थी ॥
पछिम आगत नोन नदी, जँह करि संगथ गंग ।
रहत रहहिं तँह आदि कबि, सुधि मुनि अरु सिस संग ॥
पश्चिम से आकर तमस ( नोन) नदी जिस स्थान पर गंगा में मिलती थी उस स्थान को ब्रम्हवर्त के नाम से जाना जाता था जहां आदि कवि महर्षि वाल्मीकि अपने ज्ञानी -ध्यानी मुनियों एवं जिज्ञासु शिष्यों के साथ निवासरत थे ॥
शनिवार १९ अप्रेल, २ ० १ ४
द्रुम दल सों अरु सिया एकाकी । जो जग जीवन जानिहि जाकी ॥
बैसि हार बन पाहन ऊपर । सोचि सिया नागर बहोरि पर ॥
वृक्ष तो समूह से युक्त थे किन्तु जग के जीवन रूप जगन्नाथ की अर्द्धानिगिनी स्वरूप सीता वन में एकाकी स्वरूप में असहाए थी ॥
धीर धरे कस हिय दुःख मेटे । आन समवहु प्रियबर नहि भेंटे ॥
गहे न दिवस कंठ कर माला । लाए काल बन बीच ब्याला ॥
कैसे वह धैर्य रखे कैसे ह्रदय का दुःख मिटे । प्रस्थान करते समय भी भगवान श्रीरामचन्द्र ने उनसे भेंट नहीं की ।। दिवस ने अपने कंठ में केतु माला भी ग्रहण नहीं की थीं कि समय की वक्रगति माता सीता को वन में हिंसक पशुओं के मध्य ले आई ॥
प्रियतम प्रनयन प्रानाधारे । जिन्हनि सिया प्रान सों प्यारे ॥
भागवती भइ बहुस अभागी । जो रघुबर कर गई त्यागी ॥
जो प्रियतम हैं, प्रेमार्थी हैं, प्राणों के आधार हैं जिनको माता सीता प्राणों से भी प्रिय हैं । ऐसी भाग्यवंती अतिशय अभाग्य को प्राप्त हुईं । कि जो श्रीराम चन्द्र के द्वारा ( जनहित में ही सही ) त्याग दी गईं ॥
भरम जाल बस भइ न प्रतीती । एकै रयन गत जे का बीती ॥
प्रभो अवध मैं सघन बन माहि । देखे नयन कहिँ सपन त नाहि ॥
भ्रम जाल के वशीभूत होकर उन्हें इस त्यागकरण का विश्वास नहीं हुवा । एक ही रात्रि में ये क्या हो गया । प्रभु अयोध्या में हैं मैं सघन वन में हूँ । कहीं नयन कोई स्वपन तो नहीं देख रहे ॥
गर्भ गहे जीवन जब भँवरे । जथारथ भास तौ आह भरे ॥
कपटि जंतु अरु बिटप घनेरे । चरण पंथ प्यास जल हेरे ॥
गर्भ में धारण किये जीवन जब भ्रमण करने लगा तब माता को यथार्थ का आभास हुवा और वह दुःख सूचक उदगार व्यक्त करने लगीं ॥ मार्ग में कपटी जंतु थे वृक्षों की सघनता थी चरण पंथ को ढूंड रहे थे प्यास जल को ॥
सुधा अधारे मुख सुखत जाइ । लोयन लोयन सलिल अन्हाइ ॥
इत जनि मानस मनस बियाकुल । उत गर्भ गहे जीवन आकुल ॥
सुधा के आधार स्वरूप मुख शुष्क हुवे जा रहे थे । लोचन लवण युक्त सलिल से निमज्जन कर रहे थे । इधर जननी का मानसरोवर रूपी मन व्याकुल था उधर गर्भ में अवधारित जीवन व्याकुल हुवा जा रहा था ।।
हलफत हहरत हरि हरा बिहुरित बिरहन सोइ ।
हराहरइ भइ गर्भधरा हेर हेम बहु रोइ ॥
फिर वह भगवान श्री राम की त्यागी हुई गर्भवती विरहिन, घबराते कष्ट उठाते जल ढूंड ढूंढ कर शिथिल हो गई और क्रंदन करने लगी ॥
रवि/सोम, २०/२१ अप्रेल २०१४
नीरज बय अरु रयगत लोहा । दहय निलय गहि प्रनय बिछोहा ॥
कठिन भूमि कोमल पद गामी । हेर रत गत सुमिरत स्वामी॥
उनके नीरज संयोजित लोचन लालिमा में अनुरक्त हो गए । प्रणय के वियोग में ह्रदय में अग्नि ग्रहण किए माता कठोर भूमि में अपने कोमल चरणों से गमनशील थीं । और प्रभु श्रीरामचन्द्र का स्मरण करते हुवे जल का निरूपण कर रहीं थीं ॥
मृदुल मनोहर मंजुल गाता । सहत दुसह बन आतप बाता ॥
कहत दुखित हो हे मम नाथा । एक कर कटि धरि एक धर माथा ॥
वह मनोहारी कोमलाङ्गि मूर्ति वन के दुसह सन्तापित वायु को सहती हुई ऐसी दशा में एक कर को करधनी एवं दसरे को माथे पर धारण कर दुखित होकर बोलीं हे मेरे नाथ !
चरन सहत संकट सब भाँती । गहत अरिहि के तिखनित दाँती ॥
आह रसन अरु उदर अहारे । कंठ हेम हिअ पिआ पुकारे ॥
तीक्ष्ण मुखी कंटक ग्रहण किए उनके चरण भी सभी प्रकार के संकट को सह रहे थे ॥ जिह्वा आह! और उदार आहार कंठ जल और ह्रदय प्रभु श्री राम का गुहारी कर रहा था ॥
तिलछित अधर हरिअँ सुखि बानी । साथ कहत हाँ पानी पानी ॥
नाए माथ लपटे तन धूरी । फिरत बिपिन घन सिय पथ भूरी ॥
माता के विदीर्ण अधर एवं शुष्क वाणी , जल की पुकार कर रही थी । उनकी पुकार के सम्मुख धूल भी नतमस्तक गई और उनकी देह से लिपट गईं ऐसी दुरवस्था में अयोध्या के पंथ को भूल उस घने बीहड़ वन में विचरण कर रहीं थीं ॥
ब्रह्मा सुख बाँटे उलटे काँटें करि कस रैनि साँवरी ।
गर्भ जीउ साथा परिहरि पाँथा सिया बन घन भाँवरी ॥
घाम घोर घारी तपित बयारी अरु चारि कोस चलके ।
बोझिल भइ पलकें हलके हलके दुःख धर दिनकर ढलके ॥
विधाता ने सुख बाँटा सो वो काँटा उलटा करके रायणी को कैसा सांवला कर दिया ।और माता सीता गर्भ में गृहीत जीवन के सह त्याग और वियोग से युक्त होकर घने बीहड़ वन में फि रहीं हैं ॥
बन बिचरत पंथ भँवरत भइ सिय भ्रांतिमान ।
गिरत परत साखी धरत रहहि चलाई मान ॥
वन में विचरण करते मार्ग से भ्रमित होकर मेटा सीता विभ्रमित हो गईं ॥ प्राण थे की पयस की आस कर रहे थे वह गिरती पड़ती शाखा पकड़े गतिशील रहीं॥
सोमवार, २१ अप्रेल २० १ ४
डगरी डगरी घन बन भीते । जलकन नयनन गर्भ गृहीते ॥
सिथिल सूल थरि सिख जरि सीला । फिरत रहहीं रघुकुल सुसीला ॥
घने वन के भीतर डगर डगर नैनों में जलकण एवं उदर में गर्भ ग्रहण कर शिथिल होकर काँटों से युक्त वनस्थली और प्रकाश
की किरणों से उष्ण हुई शिलाओं पर रघुकुल की शीलवान वधू यूँ ही फिरती रही ॥
नाना मत मति सरनि बिहारे । प्रान पखेरू पाखिन धारे ॥
हिय लय लीन ए संसय माही । मोर प्रान तनु अहहि कि नाहीँ ॥
मति की सरणि में विभिन्न विचार विहार रत थे । प्राण रूपी पखेरू के पंख निकल आए थे । ह्रदय इसी संशय के लय में लींन था कि देह में प्राण हैं अथवा नहीं ॥
आह करत कर उर धरि सीता । परत भूमि भइ पुनि मूरछीते ॥
गर्भ जिय किए त्राहि मम त्राहि । बही मृदु सीतर सुरभित बाहि ॥
तब दुःख सूचक उदगार व्यक्त करते माता ने ह्रदय ऊपर हाथ रखा और वह पून: भूमि पर गिरते हुवे मूर्छा को प्राप्त हो गई ॥ जब गर्भस्थ जीव रक्षा की गोहार लगाने लगे । तब औचक ही मंद सुगंहित शीतल त्रिबिध वायु चलने लगी ॥
तेहि काल एक मंजु मराला । देख सिया पख भर जल झाला ॥
गाहे मात मुख सीतल बिंदु । हहरि तनि पलक पत्रार्विन्दु ।।
उसी समय एक सुन्दर कलहंस ने माता को मूर्छित अवस्था में देखा और अपने पंखों में जल भर कर उनपर सीकर झींसने लगा ॥ माता के मुखार्विन्द ने जब उस झींसा की सीतल बिन्दुओं को ग्रहण किया तब पद्म पत्रों के सरिस उनके नयन पलक किंचित स्फुरित हुवे ॥
गह जर कुंजर हस्त स्थूरे । धरा सुता जस धोवन धूरे ॥
जूहिं सिया भइ चेतनहारी । दीन बंधु हाँ राम पुकारी ॥
एक हथिनी भी अपने स्त्रोत में जल लिए हुई थीं मानो वह माता के देह से धूल के कणों से मुक्त करना चाहती हो ॥
जल से सिक्त होकर माता की अवचेतना ज्यूँ ही अविच्छिन्न हुई वह पुनश्च दीन बंधु श्री रामचन्द्रजी का आह्वान करने लगी ॥
करुना निधि हे दया निधाने । दोष बिहिन सिय बिहुरन दाने ॥
एकै बचन कहि बन दिए छाँड़े । ए सुनि गोचर नयन जल गाढ़े ॥
और कहने लगी हे करुणा निधि हे दया के सागर आपने दोष से विहीन सीता को त्याग से अभिशप्त कर दिया ॥ केवल एक वचन के आधार पर इस बीहड़ वन में लाकर छोड़ दिया । उन्हें घेरे हुवे वन गोचर ने जब यह विलाप सुना तब माता के भाव में प्रवण होकर उनकी आँखों में जल भर आया ॥
दिए जन जे कस बरदान, मोहि कैसेउ श्राप ।
ऐसेउ बिबिध बचन कह, सिय बन करति बिलाप ॥
हे प्रभु प्रजा को ये कैसा वरदान दिया और मुझे कैसा अभिशाप । इस प्रकार की विविध वचन कहते हुवे ( उन वन गोचर पर ध्यान दिए बिना ) माता विलाप करती रही ॥
मंगलवार, २२ अप्रेल, २ ० १४
झारि वारि सौं सिय तन रेनू । करुन पुकारत कंठ करेनू ॥
बिलपन रत मुख धरि उरगाने। तब गोचर पर देइ धिआने ॥
वारि से माता सीता के देह के रज-रेणु झाड़ कर उनकी दुर्दशा देख हथिनी का कंठ करुण पुकार करने लगा ॥ माता का मुख जो विलाप क्रिया में अनुरक्त था औचक ही मौन विराजित हो गया । तब उन्होंने वन गोचर पर ध्यान केन्द्रित किया ॥
भई देहि कल मुख भै सीतल । फेर फिरैं भए करतल जल जल ॥
बहुरि सिया मत सरनि बिहारे । तापित तल जे सुखद बिचारे ॥
उस जल की सिक्तता से माता की देह से सुख स्पर्श करने लगा और मुख शीतल हो गया जब अपना करतल मुख पर फेरा तो वह जल-जल हो उठा फिर उनके मानस सरणि के संतापित सतह पर यह सुखद विचार विहार करने लगा कि : --
अवसि अहहि कहि सर को सोता । सरसइ सरिलइ थर सरसोता॥
धरत चरन पथ चरत सँभारी । विचरन्हि पद चिन्ह अनुहारी ।।
अवश्य ही यहाँ कहीं कोई सरोवर है कोई स्रव है कोई सरिता है सरसता एवम जल युक्त कोई हरि-भरी स्थली है ॥ तत्पश्चात माता वन पंथ पर चरण धरते एवँ सँभल कर चलते हुवे वन में विचरण करने वाले उन पशुओं के पद चिन्हों का अनुशरण करने लगी ॥
आगीं बन गोचर सिय पाछे । डरपत सकुचत बिच घन गाछे ॥
करन परए पल कल कल बानी । देखि निकट बटु झल झल पानी ॥
आगे आगे वन गोचर चल रहे थे, डरते संकोच करते घने वृक्षों के मध्य से माता सीता चल रही थीं । कुछ पलक में ही कल-कल की सुमधुर वाणी कर्णस्थ हुई । उन्होंने देखा निकट ही एक वट का विशाल वृक्ष है और जल प्रवाहित है ॥
नभो बीथि बहुरत करत कोलाहल दल पाख ।
बिरहित बेर प्रेम मुदित सारंगज रहि भाख ।।
संध्या की सुन्दर बेला थी नभो वीथि पर गमनरत पक्षी-दल कोलाहल करते हूवे करते लौत रहे थे । मृग,सिंह, हाथी अपने स्वाभाविक वैर का त्याग कर प्रेम में प्रमुदित हो परस्पर वार्तालाप कर रहे थे ॥
बुधवार, २३ अप्रेल, २ ० १ ४
फूरहिं फरहिं बिटप बिधि नाना । बलिहारि बलित बेलि बिताना ।।
रजित सांति चहुँ दिसा सुपासू । सुरमुनि गन के जोग निबासू ॥
जो अनेकों प्रकार के फलते फूलते वृक्ष थे । सुन्दर बेलियों के मंडप वलयित होकर उन वृक्षो पर न्यौछावर हो रहे थे । चारों ओर सुख प्रदान करने वाली शान्ति विराजित थी । वह स्थान देवताओं मुनिगणों के निवास के योग्य था ॥
चरत पवन बहु सुभग सुबासा । सीत सुखद सुवतित चहुँ पासा ॥
पिया परिहरि चरन रिपु हारी । नॉन नदी के तीर पधारी ॥
चारों ओर मन को प्रिय लगने वाली शीतल मंद सुंगंधित सुखद वायु प्रवाहित हो रही थी । प्रियतम द्वारा त्याग को प्राप्त कंटको से घाव युक्त चरणों से नोन नदी के तट पर माता सीता का आगमन हुवा ॥
चरत नदि दोई कूल समाए । सुरगा सखि संग मेलन जाए ॥
सम्मुख सिया सोचत मन माहि । ऐसु दिरिस सपन मैं नहि आहि ॥
नदी दो करारों में समाई हुई अपनी सखी भागीरथी के संग मिलन हेतु बही चली जा रही थी ॥ सम्मुख माता थीं और मन ही मन विचार कर रहीँ थीं । ऐसा जलयुक्त दृश्य की मैने कल्पना भी नहीं की थी ॥
कंठ प्यास सुख होठ गुँठाए । पीर गहि नयन पयस दरसाए ।।
एक कन पुट तज बचन करराए । अवर कल कल की धुनी सुनाए ॥
कंठ की प्यास शुष्क अधरों से अवगुंठित थीं । पीड़ा ग्रहण किये नैनों ने यह पयदमयी दृश्य दर्शाया ।। एक श्रुति पुट में त्याग के वचन कर्कश ध्वनि कर रहे थे तो दुसरे में कल-कल की मधुर ध्वनि गोचर थी ॥
पाए पयस जो राम राम की । भइ महिमा महत उस नाम की ॥
गुहारहि जोइ कंठ प्यासे । होहि पूरनित जल प्रत्यासे ।।
राम नाम का स्मरण किया उस श्रेष्ठ नाम की यह महिमा हुई जीवन क सनरकशन करने वाले जल की प्राप्ति हुई । जो कोई तृष्णालु जल की आस किए इस एक नाम को स्मरण करता है फ़िर उसकी प्रत्याशा पूर्ण हो जाती है ॥
कंठ कँटकी प्यास है, पटतर पयस मयूख ।
घट को पय की आस है, पनघट में पेयूख ।।
जो स्वयं सुधाके आधार चन्द्रमा का ही स्वरुप है उस माता के कंठ में प्यास की पीड़ा है ॥ देह को जल की आस है । और पनघट में अमृत प्रवाहित हो रहा है ॥
पीर लोचन तृषा बदन, हृदय हरि के नाम ।
नदि दर्पन मुख छबि दरस, सिरु नत करत प्रनाम ॥
नयनों में पीड़ा मुख में तृष्णा हृदय में ईश्वर का नाम है । नदी के दर्पण ने प्रभु के सुन्दर मुख की छवि दिखाई, माता ने तब नमित शीश से उन्हें प्रणाम अर्पित किया ॥
बृहस्पतिवार, २४ अप्रेल, २०१४
कोष कलस कृत कर जुग हाथे । सजल नयन भरि जल धर माथे ॥
उतरे कंठ जलज सुख रासी । पैह गर्भ जी पाए सुपासी॥
जुड़े हुवे हस्त-तल को हस्त-मुकुल का स्वरुप देकर माता ने सजल नयनो से उसमेँ जल भर कर अपने मस्तक पर धारण किया ॥ एवं प्रथम कलश की मुक्ता सुख राशि कंठ से उतरी वह गर्भस्थ जीवन को प्राप्त हुई जिसे प्राप्तकर उस कष्टमयी जीवन को सुख की अनुभूति हुई ॥
दूजे कलस गहे नल अंगे । तीजे ह्रदय पुरुष मंगे ॥
आतर्पन कर कन तृष्नालू । करतब पूरित राम कृपालू ।
दुसरा कलश गर्भ नाल ने प्राप्त किया । तीसरा कलश हृदय के स्पंदन ने माँगा ॥ इस प्रकार भगवान श्री राम की कृपा से जल के कण ने तृष्णालु को तृप्त कर अपने कर्त्तव्य पूर्ण कर अपनी व्युत्पत्ति को सफल किया ॥
नाउ हरि हरे कंठ बिषादा । पैहहि पयसन नाथ प्रसादा ॥
चरन हराहर गहि अरि तापर । बैठी हरी बृहद सीला पर ॥
भगवान श्रीराम का नाम कंठ की प्यास रूपी पीड़ा को हरने वाला है नाथ के कृपा प्रसाद से माता को जल प्राप्य हुवा॥ चरणों से शिथिल उसपर कंटकों को ग्रहन किये माता तृप्त होकर एक वृहद शिला पर आसीन हो गई और उन कंटकों को अपने चरणों से दूर करने लगी ॥
जहँ जहँ चारी तहँ तहँ हारी । घात सहत झरि लोचन बारी ॥
घाउ देत दुख रुधिरू बहाई । रोध नीर दिए सीतलताई ॥
माता जिन जिन मार्गों से चल कर आई सभी मार्गो पर रिपु रूपी कंटको के घात सहीं उन्हेँ अपने चरणों से दूर करते हुवे उनके नयनों से अश्रु की वर्षा होने लगी इन्होने दुख और घाव देते हुवे रुधिर बहाया किन्तु जल ने उन घावो को भरकर शीतलता प्रदान की ॥
नियति प्रति आभार प्रगसि दाए हृदए सुख छद्म ।
भर नैन सनेह जल जस, सरद काल पत पद्म ॥
माता ने नैनों के स्नेहिल नैणां मेँ शरद -कालिन पद्म पत्र के सरिस जल भर लाईं और उन्होने प्रकृति के प्रति अपना आभार व्यक्त किया । जिसने उन्हें छद्म ही सही कुछ सुख तो प्राण किया ॥
शुक्रवार, २५ अप्रेल, २ ० १ ४
पीर परी पर पय संतोषी । गर्भ भवन भित जीवन पोषी ॥
पंथ चरत पद रिपु हत बाधा । लह अवसाद कलेस अगाधा ।।
इस प्रकार पीड़ा में व्याकुल हुई माता जल से तृप्त होकर गर्भ गृह में स्थित जीवन का पोषण किया । पथ पर विचरण करते प्रथमक कंटको से हत बाधित होना फ़िर अवसाद एवम क्लेश को प्राप्त होना ॥
श्रमित भ्रमित दिनु भर की रोई । मूदि पलक पल भर मह सोई ॥
दूर गगन कहुँ चंदु चकासे । दरसत नदि सुठि जलाकासे ॥
दिन भर का भ्रमरण एवं क्रंदन से वह शिथिल हो गईं उनकी पलकें मूंद कर पल भर मे वह निद्रा मग्न हो गई ॥ दूर गगन में कहीं चन्द्रमा प्रकाशीत हो रहा था, उसकी सुन्दर छवि नदि मेँ दर्शित हो रही थी ॥
बिकरित किरन हिरन सँकासे । बर्ना बन के कन कन कासे ॥
निरखे रैनि सिया मुख मोहीं । प्रात पिया अरु अगुवन जोही ॥
बिखरी हुई किरणे स्वर्णमयी आभा लिये थीं उसके उद्भास से नदी और वन के कन कन भासित हो रहे थे ॥ रैनी जो अपने प्रियतम प्रभात के आगमन की प्रतीक्षा कर रही थी वह माता सीता का श्री मुख देख कर मोहित सी हो गई ॥
नौग्रह भँवर पंथ के राजा । सात अस्व रथ बाहि बिराजा ॥
सारथि अरुन रस्मी सँभारे । महि नगरी मह चरन उतारे ।।
नौग्रही भ्रमर पँथ के राजा अपने सप्ताश्व रथ मेन विराजमान हुवे । सारथी अरुण ने रथ की रश्मियां को वश मेन किया । और उसके चरण मही नमक नगरी मेन उतरते चले गए ॥
भ्रमर कल गुंजार करत, फुरे पद्म पौनार ।
अरुन चूढ़ पुकार करत, जगु रे भए भिनुसार ॥
पद्म अपने पौनारों पर प्रस्फुटित हुवे उसपे काले काले भवरे मधुर गुंजार करने लगे । सुन्दर मुर्गे पुकार करने लगे जागो रे जग सुबह हुई ॥
शनिवार, २६ अप्रेल २ ० १ ४
जागती कला जरत बुझी रे । निदिया निबुकत धीरहि धीरे ।
छाजहि संग प्रात रयनी रे । परबत ऊपर नदि के तीरे ॥
जलती हुई ज्योत जल जल कर बुझ गई । और निद्रा धीरे से पलकों के विबंधन से विमुक्त हुई ॥ कहीं पर्वतों के ऊपर तो कहिन नदी के तट पर प्रात के प्रसंग कर रयनी सुशोभित हो रही है ।।
धीरहि धीरहि तरत दिनेसा । नीक निसा नभ रहि लवलेसा ॥
बिकरित किरन उबटना सानै । छूट मल भए पूरन बिहाने ॥
जब लावण्यमयी निशा नभ की नभ में उपस्थिति किंचित भर थी तब दिन का स्वामी अपने मनियुक्त रथ से धीरे से उतरा । बिखरी हुई किरणों का उबटन सान कर विहान मलिनता से मुक्त होकरपूर्ण-उज्जवल हो गया ॥
सयनय सिया सदन पथबारी । धीरहि धीरहि पलक उघारी ॥
एक छनु लग तउ भई अचंभा । निरख बिपिन गोचर नदि जंभा ॥
माता भौमी जो पाषाण रूपी सदन मेँ शयनरत थीँ । उन्होंने धीरे से पलकों को नयनों से अनावरित किया ॥ गंभीर वन एवं उसके वनगोचर एवं अंगड़ाई लेती हुई सलिता को दृष्टिगत कर एक क्षं के लिए तो वह चित्रीकृत /चकित रह गई ॥
जथारथ सपन सयनि कि जागी । धीरहि धीरहि चेति अभागी ॥
सोक बिषाद रहे अग्याना । प्रगसे चिद गगन भगवाना ॥
यह यथार्थ है कि कोई है मैं सुप्त हूँ कि जागृत हूँ । फिर धीरे-धीरे उस हतभागी की चेतना लौटी ॥ जो शोक एवं विषाद के कारण सुसुप्ता को प्राप्त थी । मानो ज्ञानमय भगवान स्वयं प्रकट हो गए हों ॥
उतर तीर लिए जल मुख धोई । नमनत प्रभु बहु सिसकत रोई ॥
अश्रुकन बहुत नयन कुल दोई । मर्म घन अरन सुने न कोई ॥
तट पर उतर कर उन्होंने जल से मुख प्रक्षालन किया । और प्रभु को प्राणकर सिसक कर वह क्रंदन करने लगीं ॥ अश्रु कण बहुंत अधिक थे लोचन थे कुल दो । उनका मर्म ऐसा था कि जिसे सुनने के लिए उस गंभीत अरण्य में एक प्रभु के अतिरिक्त और कोई न था ॥
हे मुनिबर मनीषी मह बुध सुबिद सुजान ।
जहँ बात हो दसा निरब, तहँ जग सहसै कान ॥
फिर अहियों के नाथ भगवान शेष बोले : -- हे मुनिवर ! विचारशील महापुरुष हे पाण्डित्य को प्राप्त विद्वान ज्ञानी । जहां का वातावरण, निरव होकर शान्त स्वरुपी हो,वहां उस वातावरण के सहस्त्र कर्ण उदयित हो जाते हैं ॥
रविवार, २७ अप्रेल, २०१४
सोइ दिन काल कबि बर कंथा। रचन उद्यत रत मह ग्रंथा ॥
भइ सुरंगिनि साँझ सिन्दूरी । लसी लही लउ लोहित धूरी ॥
उस दिवावधि में जब संतश्री वाल्मीकि महा काव्य ग्रन्थ की रचना करने हेतु उद्यत एवं अनुरक्त थे । तब सुन्दर रंग से रंगी सिंदूरी संध्या
हुई । सिंदूरी रंग को प्राप्त कर उस वन की धूलि के कण कण, लाल माणिक्य के जैसे चमक रहे थे ॥
बलमीकि मुनि पुनि आए बन मेँ । सुजोग समिधि लगे हेरन में ।।
जाग उषा नभ लाली रंगे । धरे द्विज के सकल नियंगे ।।
उषा जागृत हुई नभ उसके लावण्य से अनुरक्त हो गया महर्षि वाल्मीकि तत्पश्चात वन में आए और हवन हेतु सुयोग्य ईंधन की टोह करने लगे । उन्होंने द्विज के समस्त चिन्ह धृत किये हउवें हैँ ॥
रहे बटुक गन के कल साथा । तीनि पुण्ड्र लिखि चंदन माथा ॥
भद्रा काइ भुज सिखर जनेऊ । पीताम्बरी पटतर देऊ ।।
मस्तक पर चंदन से त्रिपुंड्र उल्लखित है । बाल अवधूतों का सुन्दर साथ है । भव्य देह धारी की भुजा शिखर यज्ञोपवीत संस्कार से युक्त है । जिसपर पीले अम्बर से रचित पटोलक दिया हुवा है ॥
श्रृंग सरिस सिरु सेखरित सिखा । अम्बराम्बर हरि नाउ लिखा ॥
साधू सरल जहँ के निबासी । फिरैं बिकट बट बहुँत सुपासी ॥
पर्वत के शिखर के सदृश्य शीश पर शिरोभूषण के सदृश्य शिखा विराजित है । अम्बरों पर हरि का नाम लिखा हुवा है ।वह सीधे साधे संत पुरुष उक्त विपिन के अन्तर के वासी हैं । और ऐसे औघट वन में अत्यंत विश्राम पूर्वक विचरण कर रहे हैं ॥
परे मरम तब मुनिबर काना । सुने धुनी बहु देइ धिआना ॥
तरुना करुनामई पुकारी । कह रे बटु क्रन्दत को नारी ॥
जब माता सीता का मर्म मुनिवर के श्रुति साधन में संधित हुवा । तब उन्होंने उस संधि स्वर को अत्यन्त ध्यान पूर्वक श्रवण किया ॥ वे स्वर किसी करूणामयी तरुणा के जान पडते थे । उन्होंने कहा रे बाल संन्यासियों कोई नारी क्रंदन कर रही है ॥
जोइ धवन मम करन सुनावै । सोई रुदन तुहहि सुनि पावै ॥
सुनि कातर करनन धर हाथा । कहत बटुक हाँ हाँ मुनिनाथा ॥
जो रोदन स्वर मेरे श्रुति साधन द्वारा संधित हो रहे है । क्या वह रुदन तुम्हें भी श्रव्य है ॥ तब उन बाल सन्यासियों ने अपनि-अपनी श्रवणेंद्रियों से हस्त संयोजित कर उस स्वर को उत्सुक होकर श्रवण करने लगे । और फिर कहा हाँ हाँ मुनिवर हाँ मुनियों के नाथ यह रोदन श्रवणीय है ॥
रोदन आकुल दून बियाकुल करुनामई कोमलई ।
गाँव गहावा भेद लहावा सकल दीग भय दुखमई ॥
जल कल बानिहु कल बन धानिहु, करे क्रंदन संगती ।
जस कलपत घायल हहरत कलबल तस को सौभागवती ॥
वह करुणामयी कोमल रोदन उद्विग्न है दोहरे स्वरुप में व्यग्र है । जिसके दुःख ग्राम को ग्रहण किये जिसकी कठिनता को वरण किये समस्त दिशाएं दुःखमयी हो गई है ॥ जल की सुमधुर वाणी एवं यह सुहावनी वन धानी भी उसकी क्रंदन स्वर की संगति कर रहे हैं । ऐसा प्रतीत हो रहा है कि जैसे कोई घायल कल्पता है वैसे ही कोई सौभाग्यवती पीड़ा से योगित होकर अस्पष्ट सी ध्वनि उत्पन्न कर कलप रही है ॥
गहे सुर सिंगारी रस, बिरहा ओट गुठाए।
वासो हमरी रुराई, फूट परन अकुलाए ।।
क्रंदन स्वर श्रृंगार रस से ओतप्रोत हैं और जिसकी ओत किये कोई अवगुंठनवती विरहणी है ॥ ( स्वर इतने उद्वेलित है कि ) उसके संग हमारी भी रुलाई प्रस्फुटित होने को व्याकुल हो रही है ॥
सोम/मंग, २८/२९ अप्रेल, २ ० १ ४
होए बिकल बहु कहि मुनिराई । गहनतम घन भीत बन छाई ॥
अदरस दिसि पथ विपद ब्याला । काल कलुष द्यु द्युत अकाला ॥
उन वटुकों के सह मुनिवर वाल्मीकी भी व्याकुल हो गए और कहने लगे : -- वन की गहनतम मेघो के सदृश्य वन के भीतर की छाया गहनतम मेघों के सरिश्य है जहान न पथ दर्शित होता न दिखाएं जहॉं काल के सदृश्य हिँसक पशु है । कल की इस कलुषता में वहॉँ गगन की द्युति का अभाव है ॥
दावानल दह हरियर हीना । आइ नारि कस संगत बीना ।।
जेइ प्रात रोवय सिसकारै। रहस मई वाके ररिहारे ।।
अग्नि के दाह से यह अरण्य हरीयाली से विहीन है । किसी की संगती के बिना वह नारी यहॉं तक कइसे आ पहुंचीं । जो प्रात: से ही सिसकियाँ लेकर रोए जा रही है । उसकी रुदन की पीड़ा अत्यंत ही रहस्यमयी है ॥
कौन अहहि जे कहँ सौं आयीं । देखु रे बटुक तनि पहिं जायीं ॥
अस मुनिवर सिय लेन हेरवएँ । रोदन दिसा पिछु बटुक पठवएँ ॥
वह कौन है, कहाँ से आई है । रे वटुकों जाओ तुम वहां जाकर देखो तो । इस प्रकार मुनियों के नाथ माता सीता की ढूंड लेने उन बाल सन्यांसियों को क्रंदन-स्वर के दिशा के पीछे भेजा ॥
किन कारन कर भई दुखारी । आए देस को रोवनहारी ॥
का बिनसाहि किन्हनि गवाही । तरक कुतरक आए मन माही ॥
वह किस कारणवश दुखियारी हो गई । वह रोवनहारी किस देश से आई है । उसने क्या नष्ट कर दिया किसे खो दिया फ़िर ऐसे तर्क वितर्क से भरे विचार मुनिवर के मन की सरणि मेन विचरण करने लगे ॥
जहँ तिय रव रवैए बटु तहँ गवैय अनुहार गुरुबर कहे ।
पैठ पनघट निकट , चितइ चित्रित बट चित्रलिखित चितबत रहे ॥
एक पयस मयूखी मल प्रभ मूखी सरलइ सतित्वा सती ।
निज पिया प्रेम रत ररकत रअरत राम राम पुकारती ॥
जहाँ वह स्त्री स्वरुप माता सीता क्रंदन रत थीं वह बाल सन्यासी कविराज गुरुवार वाल्मीकि के कथनका अनुशरण कर वहॉं गए । और जब वह नदि के निकट पहुंचें तब चित्रमयी उस वट वृक्ष को देखकर वह स्वयं स्थिर चित्र लेख हो गए । वहां एक सरल स्वभाव वाली पतिव्रता चन्द्रानना जिसके मुख की प्रभां मलिन होगई थी । वह अपने प्राणधार के प्रेम मेन अनुरक्त हुई पीङा को प्राप्त वारंवार राम राम पुकार रही थी ॥
हे जन नेहीं बिनु हेतु सनेहीं धेनु धनबन हित करे ।
करें न्यायकरन जो बिनु कारन जगत जिउ जीवन हरे ॥
भू कलुष हरन जो लई अवतरन परमातम देह धरे ।
पुनि धनुष सिवा का तोड़ तडाखा, अजोगि कृत जोंग बरे ॥
( वह कह रही थी कि) हे सर्वप्रिय ! अकारण किसी से प्रेम करने वाले, धरती से लेकर अम्बर तक के चराचर क हित करने वाले । पृजो अकारण ही जगत के जीवों के प्राण हारते हैँ ऐसी के न्यायकर्त्ता । हे परमात्म आप भूमि की कलुषता का हरण करने हेतु ही मानव की देह धारण किये ॥ और आपने शिव जी का धनुष एक ही तडका में भङ्ग कर मुझ अयोग्य को योग्य कर मेरा वरण किया ॥
जन रँजन भारु भंजना, सरन अर्थी सुख श्राम ।
परम पवित प्रभु आचरन, सिय पिय करत प्रनाम ॥
हे जन जन को आह्लादित करने वाले उनके भरून क विभंजन करने वाले शरणार्थियों के स्युख रूपी मंडप परम पवित्र चारित्र से युक्त प्रभु आपको यह सीता प्रणाम अर्पित करती है ॥
दिए मम काहु बियोग, का रहि न तुम्हरे जोंग ।
दिए उर बिरह कुरोग, कहै सियँ बन छाड़ि दई ॥
चारि घरी यह श्रवनत हौरे । उलट बटुक पुनि चरन बहोरे ॥
गवनइ अचिरम मुनिबर पाहीं । रोवन हारिनि हेरन दाही ॥
गर्भधरा एक मुख सौं भोरी । बैसइ नदि तट दुहु कर जोरी ॥
भरे नैन जल बिगलित केसा । भरे देह माह राजसि भेसा ॥
जान परे जस बाकी बानी । जो भरि भाव बिरह रास सानी ॥
बिरहनी को पिया बियोगी । सरल सील संयोजन जोगी ॥
गावहि आपने दइत चरिता । श्रवणए तिन्ह दिए करन सरिता ।
बाके नयन भाव जस प्रबने । गुरुबर हमहि सों कहत न बने ॥
सुधा सरिस कन लस लवन, बह भर भावाबेस ।
कहत बटुक अजहुँ तहँ गत, पेखहु आपहि सेष ॥
बुधवार , ३० अप्रेल, २ ० १ ४
सुनत बटुक के कोमल बचना । किए कहनी रोवनि जस रचना ॥
बिरहाई पहि गयउ सँकोची । रहे चकित मुनि छिनु भर सोचीं।।
गर्भधारा सह राजसि भेसा । पिया बिरहनी बिगलित केसा ॥
बैठि एककी कुलिनी कूला । पीड़ित बदन चरन गह सूला ॥
केस ब्यासित तिलकित तूरा । लावनी रूप श्री सैंदूरा ॥
दुहु कर जोगित आरु सिरु नाई । निज प्रीतम जस कीर्ति गाई ॥
पेम मगन पिय दरस पयासी । राइ प्रिया को नगर निबासी ॥
भाग वती अभागिनी लेखें । कँह अधार मुनि बटु चित्ररेखे ॥
मुनिबर चरन चरए बहुरि बटु गन पच्छहि पाछ ।
बैठहि पाहन बेदिका, जहँ सिय अँसुअन छीछ ॥
बृहस्पतिवार, ०१ मई, २ ० १ ४
नाकुहु चित्रीकरन कर देखे । जिमि चित्र कारु चित्रित कृत लेखे ॥
दिस दरसन एहि तनिक सकुचाए । सोइ मुद्रा मुख सौह नियराए ॥
महर्षि वाल्मीकि ( नाकु =वाल्मीकि) भी आश्चर्य से चकित होकर माता को चित्रवत् देख रहे थे । मानो उन्हें भी किसी चित्रकार ने चित्रित कर लेखांकित किया हो । ऐसे दृश्य का दर्शन करके मुनिवर संकोचित हो गे आउर ऍसी ही मुख मुद्रा लिए माता के सम्मुख हुवे ॥
नयन सनेहिल मेघ बय छाए । मुनिबर मुख सिय सम्मुख आए ॥
बैसि सिया कर चरन सकेरे । सोक मगन तन भूसन हेरे ॥
मलिन प्रभा मुख दर्सन पावन । बदन अगहन नयन घन सावन ॥
दिरिस दुसह् दुख जेठ दुपहरी । पिय चरित राग मह फाग बरी ॥
लय लयन मगन आप धिआना । मुनि चरण धुनी देइ न काना ॥
कबिमन उपजे करनइ भावा । सील सकुच सुठि सरल सुभावा ॥
बच्छल पूरित मुख बर बानी। सौम सहज सनेह रस सानी ॥
चयन सुकथन बर्न क्रम लेई । अरु हरियर बोलइ हे देई ।।
कहत बटुक मोहि गुरुबर, रत्नाकर बल्मीकि ।
पनघट बैठि एककिहि हे , नारि नयारी नीकि ॥
कौन तुम्ह अरु कहँ सन आनी । भूर पंथ पूछे महा ज्ञानी ॥
महिक सुता कहि करत प्रनामा । किये परिहरन मम श्री रामा ॥
और मुख में वात्सल्य पूरित वाणी वरण कर महा ग्यानी ने पूछा :- " तुम कौन हो " ॥ सीता ने मुनिवर को प्रणाम करते हुवे
कहा :-- ' श्री राम जी ने मेरा परित्याग कर दिया ' ॥
एक छन मुनि अचरज कर ठाढ़े । तँह वदने अस वचन दुखारे ॥
दुखित न हो धिय धरु न उदासिहि । अजहुँत तव मम आश्रम वासिहि ॥
एक पल को तो मुनि आश्चर्य चकित होकर वहीँ ठहर गए । तत पश्चात दुःख पूरित ऐसे वचन कहे : -- हे पुत्री तुम दुखित न
होव और मन में निराशा न धरो । अब से तुम मेरे आश्रम में निवास करोगी ॥
मान धिया सिया लै गए, गुरुवर घनबन धाम ।
श्री मुखांकित कर धरे, बन देवी शुभ नाम ॥
सीता को अपनी पुत्री मान कर उसे गुरुवर उअसे घनेवन में स्थित आश्रम में ले गए । और अपने श्री मुख पर अंकित करते
हुवे सीता का शुभ नाम 'वनदेवी' रखा ॥
मंगलवार, १ ८ जून, २ ० १ ३
बसी सिया कबि बर के छाई । चरन परत बन भू हरियाई ॥
सकल प्रानि बन भए उल्लासे । पंगत पंखी कूजि अकासे ॥
माता सीता कविवर वाल्मीकि के वन आश्रम में बस गई । उनके चरण पड़ने से वन की भूमि हरि हो गई॥ वन के समस्त प्राणी भी उल्लास से भर गए । पक्षी पंक्तियों आकाश में विचरण करते हुवे कलरव करने लगे ॥
देखत रघुकुल के मुख चंदा । पाए बहुस सुख तरुबर बृंदा ॥
जे बन भू रहि कंटक करनी । उयउ तिन्ह किए कोमलि धरनी ॥
रघु के कुल की चन्द्र मुखी का इस प्रकार से दर्शन करते हुवे तरुवर समूह अत्यधिक सुख पा रहे थे ॥ जो वन भूमि पहले काँटों को उपजाति थी । वह तृनुप्जा कर अब अति कोमल हो गई ॥
साखि सुरंगत सुमन सौगंधिए । लह लह बहतिहि बहि बहु बंधिए ॥
कूल तमस अस कल कल कारे । जूँ नूपुर रुर सुर झनकारे ॥
शाखाओं पर सुन्दर वर्ण ग्रहण कर पुष्प अति सुगन्धित हो गए । उस सुगंध से बंधकर हवा भी लहलहाती हुई बहने लगी ॥ तामस नदी का किनारा, कल कल का ऐसा स्वर उत्पन्न करता जैसे की वह सुन्दर नूपुर के स्वरों की झंकार हो ॥
टूक बटुक बट बटर बिहारे । सिय कौ लागे अति मनुहारे ॥
गर्भनि के सेवा सत्कारे । मेल मिलत सब करत सँभारे ॥
आश्रम शिष्यों की टुकड़ियां में वट वृक्ष के चारों और भँवरते हुवे क्रीडा करते । जो माता सीता को अति मनोहर प्रतीत होते ॥ गर्भ वती माता की सभी बटुक मिला जुल कर देख भाल और सेवा सत्कार करते ॥
एहि किवंदती बन बन छाहीं । चर अचर सब बोल बतियाहीं ॥
हरषत करषत अस गुन गाई । अवध देस एक नारी आई ॥
यह किवंदती स्वरूप वन के समस्त स्थलों में प्रसारित हो गई चार ( समस्त जीव) अचर ( नदी पहाड़ आदि ) आपस में बातें करते हुवे बहुंत ही अनुरागित एवं आनंद मग्न होकर ऐसे गुण गाते कि अवध नामक स्थान की एक नारी वन में रहने आई हैं ॥
हरियारी छाई, रे बन भाई, एक नीरज नयनि नारि ।
एक अवध निवासी के लउरासी सुमनस सौंह सुकुमारि ॥
भगत सिरोमनि त्रिभुवन पत दसरथ नंदन की प्रान समा ।
प्रियरन कारी की धनु धारी की अति प्यारी प्रियतमा ॥
अरे भाई ! जिससे सारे वन में हरियाली छा गई है, उस एक कमल सदृश्य नारी के जो की अवध देश की निवासी तथा समस्त कामनाओं का भंडार वह कुसुम के सरिस कोमल हैं ॥ भक्तों में श्रेष्ठ त्रिभुवन के स्वामी तथा दशरथ के पुत्र की तथा सबका हीत करने वाले धनुर्धारी वीर श्री राम चन्द्र की प्रियतमा एवं अर्द्धांगिनी हैं ॥
हंसा बदन अधरामृत बिहग बिहंगम हास ।
रूप सम्पद श्री बत्स भृत बसि बन केतन बास ॥
जिसका मुख रजत के सदृश्य श्वेत है अधरों पर अमृत है और जिसकी हँसी चन्द्रमा के सदृश्य अभूतपूर्व है । जग मोहन की यह रूप सम्पदा
आज वन के आश्रम में आ बसी है ॥
दमक रह दौ दृग जाके , बानी में मधु धूर ।
लउ लब्ध दर्सन जाके, दुःख दारिद हो दूर ॥
जिनके दोनों नयन प्रभासित हो रहे हैं वाणी में मिश्री घुली है उनके दर्शन मात्र जिसको प्राप्त हो जाएं उसकी तो दुःख दरिद्रता ही दूर हो जाए ॥
स्वरूप संपद रनिबासन की । तपस्वनी तऊ तपो बन की ॥
बन बरस बरस बर तापन की । बहुरिहि तपकृस तन काँचन की ॥
महातिमह ग्रंथन रचनाकर । मन हो मन मननत रतनाकर ॥
अरथ उद्धरत बखत बिरताए । देखउत प्रसव काल नियराए ॥
उदक अर्थ उद्कत उदगारा । धरी सरिताsअमृत जल धारा ।।
चंचल चपल चली बल खाते । कूल पूल कन कन खनकाते ॥
समऊ अति सुभ मंगल कारी । चहुँत ओर बहि त्रिबिध बयारी ।।
दिवसनुकुल बहु सीत न घामे । जानकी जानि जनिमन जामे ॥
गर्भ धरा कर्निक कुटि ओटे । जनमन भए दौ जुगलित ठोटे ॥
संकुल सुर कर कौसुम साजे । गावत गुन गन गगन बिराजे ॥
दुइ पद दुइ भुज वदन एक, जन्मे जुगल जुहान ॥
लतिक बल द्रुम दल आलय, तमस तटिनी मुहान ॥
भावार्थ : -- यह तपस्वनी, स्वरूप तो रानियों के प्रासाद का है, तब पर भी यह तपोवन में रह रही है ।।
बरसों बरस वन में शरीर को कष्ट देते हुवे सोना किया , पुन:तपस्या से क्षीण होकर तन को तपाए हुवे
स्वर्ण सा अर्थात कुंदन किये है ॥
महातिम: ग्रन्थ की रचना करते हुवे रत्नाकर( महर्षि वाल्मीकि का पूर्व का नाम) ने मन ही मन में यह
चिंतन किया । और प्रयोजन उद्धृत करते समय बिता । देखते-देखते प्रसव काल भी निकट हो आया॥
जल की आकांक्षा रखते हुवे उदगार स्थल से उत्साह पूर्वक सरिता जल की अमृत धारा, धारण किये
बड़ी ही चंचलता एवं चपलता से युक्त होकर कगारों पर जल के कण समूह को खनकाती एवं बल खाती
हुई चली ॥
समय अत्यधिक शुभ एवं कल्याण कारी है । चारों और शीतल-मंद-सुगन्धित वायु प्रस्तारित हो रही है
दिवस अनुकूल है न तो अधिक शीतलता है और न ही धूप है । जानकी जिनकी पत्नी है उन रामचन्द्र की सन्तति को जन्म दे रही है ॥
गर्भवती, कर्णिक अर्थात पत्ते और शाखाओं की कुटिया के ओट में है । और दो युगल पुत्र जन्म ले रहे हैं।
देव समूहों के हाथ में पुष्प सुसज्जित हैं । और वे श्री राम चन्द्र के गुणों की स्तुति करते हुवे गगन में
विराजमान हैं ॥
दो पेर दो हाथ और एक मुख लिए, लताओं से वलयित वृक्षसमूह वन में तामस नदी के कगार पर युगल
जातक का एक साथ जन्म हुवा ॥
शनिवार, २ २ जून, २ ० १ ३
बाल मुकुंदिन रोदन बानी । कल रव जस नदिया के पानी ॥
हर्षे महर्षि बटुहु हरषाए । नंदत बिटपबर पात हिलाए ॥
भावार्थ: -- उन नन्हे बालकों की रुदन वाणी ऐसी थी जैसे की नदी का पानी कोमल मधुर ध्वनी उत्पन्न कर रहा हो ।। ( यह सुन कर ) महर्षि वाल्मिकी प्रसन्न चित हो उठे साथ ही बालक शिष्य भी आनंदित मग्न हो गए और तरुवर मुदित होकर अपनी पत्तों को हिलाने लगे ।।
जो को अनुपम बालक पेखें । रुप रासि गुन गिन गिन रेखें ॥
सकल बिपिन उर मंगल छाईं । माई कै तौ कही न जाई ॥
जो कोई भी इन अद्भुत बालकों को देखता वह इनकी सुन्दरता की राशि-समूह के गुणों को गिन गिन कर चिन्हांकित करता॥ समस्त उपवन शुभ लक्षणों से युक्त हो गया और माता ? उनके आनंद का तो वर्णन ही नहीं किया जा सकता ॥
धारे महर्षि दोनउ नामा ॥ लव अरु कुश बालक नामा ॥
नाम करन बहु कीरति कारे । सोहत सुख जननी मुख धारे ॥
महर्षि वाल्मीकि ने दोनों बालकों का नाम धरा । नाम कारन अत्यधिक कीर्ति करने वाला था जो कि माता के मुख पर उच्चारित होकर अति सुशोभित होता ॥
मोदत मंदर सुन्दर जोरी । दरसन छबि जस चाँद चकोरी ॥
कभु को कर कभु को कर लीना । पलै पलन पर पाल बिहीना ॥
दोनों बालकों का जोड़ा ऐसा सुन्दर था कि दर्पण भी मुग्ध हो उठा और उनका दर्शन प्रतिबिम्ब ऐसा हो गया मानो चाँद स्वरूप बालकों को दर्पण रूपी चकोर निहार रहा हो ॥
दोउ सिया के नैनन मोती । सूर बंस रघु के कुल जोती ।।
पिय परिहरु बन बासित किन्हें । सिया हिया पर सुत सुख दिन्हें ॥
दोनों बालक माता सीता के नयनों के अश्रु कण स्वरूप हो गए, और सूर्य वंशी राजा रघु के कुल के ज्योत रूप में जगमगाने लगे ॥ प्रियतम ने तो सीता का परित्याग कर वन का वासी बना दिया किन्तु पुत्रों ने उनके विरही ह्रदय को सुख से परिपूर्ण कर दिया ॥
भव भूयाधि भूर रघुबंस सूर दुइ कपूर कुल वर्द्धनी ।
मूर्द्धाभिषक्ति वैभव बिरक्ति रघुवर अंगिनी अर्द्धनी ॥
बिय बाल मुकुन्दे छद्मन छंदे दुइ पद पदुम चारि चरने ।
को अर्न बर्तिका बर्न बर्निका बर्नन बरनत न बने ॥
( इस प्रकार) पृथ्वी के सबसे बड़े अधिराज, रघु वंशी राजा श्री राम चन्द्र के कुल का वर्द्धन करने के लिए उस वंश के लोचन स्वरूप दो पुत्रों को श्रेष्ठ क्षत्रिय किन्तु वैभव से विरक्त रघुवर की अर्द्धांगिनी ने जन्म दिया ॥ दोनों बालक छंद का स्वरूप हैं जिसके दो पद और चार चरण होते हैं
कॊई भी अक्षर कॊई भी तुलिका कोई भी रंग की मसि से उनका वर्णन वर्णित नहीं किया जा सकता ॥
भव सागर रघु कुल मूल लिए दु कैरव अकार ।
दुनौ भइ भूषन सरूप, अस जस मनि मनियार ॥
संसार रूपी समुद्र में रघु कुल के वंश मूल से दो कुमुद प्रस्फुटित हुवे दोनों ही जगत के भूषण स्वरूप ऐसे हैं जैसे की दो मणि चमक रहे हों ॥
पिया बिरह पर को कर केही । बखत बितावति बन बैदेही ॥
दौ सुत सह सिय भइ बनबासी । पल छिनु दिनु दिनु भए मासी ॥
प्रियतम के बिछोह का दुःख किन्तु किससे कहती ? अत वैदेही अपना विरही समय वन ही में बिता रही थी ॥ दो पुत्रों के साथ वन वन की वासी हो गई और पल क्षण में,क्षण दिवस में और दिवस मॉस में परिवर्तित होने लगे ॥
लइ ललनइ छबि नयनभिरामा । प्रभा बदन प्रति बिम्बित रामा ॥
सुहासन ससी किरन सूचिते । सुधा श्रवाधर अधार सहिते ॥
दुलारों की छवियाँ नेत्र प्रिय हो गईं । और उनकी मुख की आभा श्री का ही प्रितिबिम्ब देने लगी ॥ मुख की सुन्दर मंद हँसी मानो चंद्रमा की किरणों की ही सूचक हों और अधर अमृत बरसाने वाले चन्द्रमा ही से युक्त हों ॥
नक नख सिख सह मुखारविन्दे । दिव्य दरस दृग रतनन निंदे ॥
ललित कलित कुंतल घुँघराले । घुटरु पदोपर चले मराले ॥
कमल मुख नासिका सहित नाख़ून से शीर्ष तक अलौकिक दर्शन दे रहे थे और दृष्टि मानो रत्नों की भी निंदा कर रही हों ॥ केश कुन्दलता ग्रहण किये सुशोभित हो रहे थे । और घुटनों पर चलने वाले अब हंस के जैसी मनोरम चाल चलने लगे ॥
बट रसरिहि कभु डारि उछंगे । कास कटि केरि लावन लंगे ॥
नील मनि सम सरीर सुरंगे । तूल तिलक तल निटिल नियंगे ॥
बालक,कटि ऊपर सुन्दर कछनी कसे कभी वट वृक्ष की जटा तथा कभी उसकी डालियाँ पकड़ कर उछलते ॥ शरीर ने नीलम के सदृश्य मोहक नीलवर्ण वरण कर लिया था ॥ और माथे पर लाल तिलक का चिन्ह सुशोभित हो रहा था ॥
किलकत कौतुकिय करत, बालक कुञ्ज कुटीर ।
हरि भै भूइ ब्रम्ह बरत पा हरि के दौ हीर ॥
लतागृह में दोनों बालक खिलखिलाते और कौतुहल करते , ब्रम्हा वर्त की वह भूमि, श्री हरी के उन दो रत्नों को प्राप्त कर अत्यंत प्रसन्न चित हो उठी ॥
द्रुम दल सकल फूल फल पाखे । खग मृग जीउ जंतु बन साखे ॥
पलत दोउ आश्रम सुर धामा । रघुकुल दीपक नयनभिरामा ॥
वृक्षों के दल फूल फल एवं उनकी पत्ते और पक्षी, मृग आदि समस्त जीव जंतु साथी बन गए रघु के ये नेत्रप्रिय कुल के दीपक, देव धाम स्वरूप उस वन आश्रम में पलने लगे ॥
काल चाक चर गति कर बाढ़े । हरियर सुतबर बपुधर गाढ़े ॥
बाल्मिकीहि महर्षि मंडिते। मसि पथ के रहि महा पंडिते ॥
समय का चक्र अपनी गति अनुसार बढ़ता चला गया और उन श्रेष्ठपुत्रों की सुन्दर देह आकृति, धीरे धीरे सवरुप लेने लगी ॥ महर्षि उपाधि से विभूषित वाल्मीकि ऋषि, लेखनी के महा विद्वान पंडित थे ॥
धनु बिधा तिन्ह निपुनित किन्ही । जुद्ध कला के दीक्षन दिन्ही॥
स्तुति गीत पद मुख कल नादें । निगमागम बालक वद वादें ॥
उन्होंने उन युगल पुत्रों को धनुष विद्या में निपुण किया । और युद्ध कला की दीक्षा दी । बालक स्तुति, गीत, पद आदि को मधुर स्वर में गाते, और वेद शास्त्र का कथन करते हुवे शास्त्रार्थ किया करते ॥
सिय राम कुँवर कालनुसारे । वेद बिदित बर दिए संस्कारे ॥
द्विज जाति जे शास्त्र बिहिते । बारह मनु सोलह अन्य कृते ।।
सियाराम के उन कुंवारोंको समयानुसार वेद विधान में विदित श्रेष्ठ संस्कारों दिए गए ॥ द्विजातियों के शास्त्र विहित कृत्य जो मनु अनुसार बारह और कुछ अन्य लोगों के अनुसार सोलह हैं॥
यत् गर्भाधान च पुंसवन सीमंतोन्न्यन: जातकर्म: ।
यद नाम कर्माय च निष्क्रमणाय च अन्न्प्राशनम कर्म: ॥
चूड़ाकर्मोपनयन केशान्तवं समावर्तन: विवाह: ।
अन्य: कर्णभेदम विद्यारंभ वेदारभ: अंत्येष्टि:॥
जो हैं गर्भाधान,और पुंसवन,सीमंतोन्न्यन,जातकर्म तथा नामकर्म, निष्क्रमण, अन्नप्राशन का कर्म, चूड़ाकर्म, उपनयन, केशांत, समावर्तन, विवाह; अन्य चार हैं कर्णभेद, विद्यारम्भ, वेदारम्भ, अंत्येष्टि ॥
कबि कोबिद के मुख वाद, दोनौ सुत बन लोक ।
निगमागम निगदित नाद गावहिं सकल श्लोक ॥
मंगलवार, २५ जून, २ ० १ ३
भोर साँझ साँझी भइ भोरे । दोनौ बालक भयउ किसोरे ।
दिव्य दरस दिए देह अकारे । तन स्याम मन मृदुल कुमारे ॥
बिधा निपुन बुध गुन आगारे । सकल ज्ञान गिन चितबन घारे ॥
बेद श्रुतिहि अस मधुर बखाने । सारद सेषहु अचरज माने ॥
रचे रमायन श्री गिरि बानी । बाल्मिकी कबिबर अभिधानी ॥
तेहि मह ग्रंथन दोउ भाई । कंठ कलित कल रव कर गाई ॥
मधुर गान अस तान पूरितें । कंठी ताल सकल सुर जीते ॥
मंद मधु मुख मंडित मांडे । कल सकल श्री सप्तक कांडे ॥
रुप सिन्धु ज्ञान के कुञ्ज, भयउ दूनउ किसोर ।
नयन मुँदत रयन जाके, नयन उघारे भोर ॥
बिधि पूरनित पूजन बिधाने । सकल द्विज पति बहु सनमाने ॥
बिप्रबधु सुआसिनि जे बुलाईं । चैल चारु भूषन दिए दाईं ॥
बिधि विहित विधानों के अनुसार यज्ञ पूजा पूर्णकर भगवान् राम चन्द्र ने सभी श्रेष्ठ ब्राम्हण को अतिशय सम्मानित किया । और जिन ब्राम्हण वधुओं एवं पास पड़ोसिनों को निमंत्रित किया गया था उन्हें सुन्दर वस्त्र और आभूषण उपहार स्वरूप प्रदान किये ॥
आन रहहि जे पहुन दुआरे । भली भाँति सादर सत्कारे ॥
समदि सकल बिधि सबहि उयंगे । ह्रदय भीत भरि मोद तरंगे ॥
और जो आगन्तुक आए हुवे थे उनका उनका भली भांति आदर सत्कार किया ॥ सभी प्रकार से सम्मानित होकर सभी जनों के हृदयांतर में हर्ष और प्रसन्नता की तरंगे उठने लगीं ॥
पूरनतस बिधि बोधनुसारे । अश्व मेध यज्ञ पूरन कारे ॥
रघुकुल कैरव गौरव नाथा । यज्ञ परतस ले एक हय हाथा ॥
ए बिधि परिहार तुरंग, जग कारिन जज्ञ कारि ।
अगहुँड़ हय पिछउ वाकी, पिछु कर धारिन धारि ॥
इसी विध्यनुसार जगत के पालन हार ने यज्ञ कार्य पूर्ण कर एक घोड़ा छोड़ा । आगे आगे घोड़ा चलता पीछे पीछे उस घोड़े की रस्सियों को संभाले, पीछे श्री राम की सेना चली ॥
शनिवार, २१ सितम्बर, २ ० १ ३
यज्ञ कर्म करने के उद्देश्य से उसके योग्य समिधाएँ लाने के लिए वन में गये थे ॥ वहां उन्होंने, स्वर्ण पत्र से चिह्नित उस य्स्ग्य सम्बंधित घोड़े को देखा ॥ शनिवार, २१ सितम्बर, २ ० १ ३
तुराबान रहि लहि गुन ग्रामा। स्याम करन रहहि तेइ नामा ॥
धरे किरन धरनी परिहारीं । चलइ धारि सन धारित धारी ॥
बाजी जिन जिन देस प्रबेसे । तेइ मेले राघव महि देसे ॥
जे राजन तिन कर पाहहिं । ते राम चन्द्र धारि जुधाहहिं ॥
(गुरूवार, २४ अक्तूबर, २ ० १ ३)
बहुरि एक दिन रयनि भुज घेरी। हेर प्रात के हिय पग फेरी ॥
सहस लोचन सन किरन जागी । सोए जगत जगावन लागी ॥
फिर एक दिन रात्रि,प्रभात को भुजाओं में घेरी उसका चितवन हरण कर लौट गई ॥ ( तब) सूर्य के साथ उसकी अर्द्धांगिनी प्रभा जागृत हुई और सुषुप्त संसार को जगाने लगी ॥
फिरत तपोबन है पथ भूला । गवन पैठ सों तमसा कूला ॥
जँह मह रिषि बाल्मीकि जी की । रह घिरी कर्नक कुटी नीकी ॥
उधर उस तपोवन में यज्ञ का अश्व पथ भूल गया ,और वहां जा पहुंचा जहाँ तमस नदी (जो गंगा में जा मिलती है ) के किनारे महर्षि वाल्मीकि जी का पत्तों,टहनियों एवं शाखाओं से घिरा सुन्दर आश्रम था ॥
तँह बहु रिषि मुनि रहत निवासे । हविर गेह गहि धूम अगासे ॥
अरु लव जात जानकी जी के । कुमारिन्ह सन मह मुनिही के ॥
वहाँ अनेकों ऋषि-मुनि निवास करते थे और आकाश यज्ञ कुंड का धुआँ ग्रहण किये हुवे था ॥ और माता जानकी जी का पुत्र लव और साथ में मुनि कुमार : --
जोग रसन जे जोजन हवने । प्रातकाल बन लेवन गवने ॥
तहाँ सुबरन पाति ते चिन्ही । ते अस्व तिन्ह दरसन दिन्ही ॥
(गुरूवार, २४ अक्तूबर, २ ० १ ३)
बहुरि एक दिन रयनि भुज घेरी। हेर प्रात के हिय पग फेरी ॥
सहस लोचन सन किरन जागी । सोए जगत जगावन लागी ॥
फिर एक दिन रात्रि,प्रभात को भुजाओं में घेरी उसका चितवन हरण कर लौट गई ॥ ( तब) सूर्य के साथ उसकी अर्द्धांगिनी प्रभा जागृत हुई और सुषुप्त संसार को जगाने लगी ॥
फिरत तपोबन है पथ भूला । गवन पैठ सों तमसा कूला ॥
जँह मह रिषि बाल्मीकि जी की । रह घिरी कर्नक कुटी नीकी ॥
उधर उस तपोवन में यज्ञ का अश्व पथ भूल गया ,और वहां जा पहुंचा जहाँ तमस नदी (जो गंगा में जा मिलती है ) के किनारे महर्षि वाल्मीकि जी का पत्तों,टहनियों एवं शाखाओं से घिरा सुन्दर आश्रम था ॥
तँह बहु रिषि मुनि रहत निवासे । हविर गेह गहि धूम अगासे ॥
अरु लव जात जानकी जी के । कुमारिन्ह सन मह मुनिही के ॥
वहाँ अनेकों ऋषि-मुनि निवास करते थे और आकाश यज्ञ कुंड का धुआँ ग्रहण किये हुवे था ॥ और माता जानकी जी का पुत्र लव और साथ में मुनि कुमार : --
जोग रसन जे जोजन हवने । प्रातकाल बन लेवन गवने ॥
तहाँ सुबरन पाति ते चिन्ही । ते अस्व तिन्ह दरसन दिन्ही ॥
अस्व अठ गंध अरु कस्तूरी । बासत मधुर देह सन जूरी ॥
गाँठ गरु तन चरन गति तूरी । चरत उरि कनक सों धूरी ॥
वह अश्व अष्टगंध ( चन्दन, अगुरु, कर्पूर, तमाल, जल,कुंकुम, कुशीत, कुष्ठ इन आठ प्रकार के सुगन्धित पदार्थों के सार समिश्रण को अष्ट गंध कहते हैं ) और कस्तूरी की मधुर सुरभी उस घोड़े की देह से संयुक्त थी ॥ वह घोड़ा गठीला और तेजवान था चलते समय उसके चरणों से उठती धूल स्वर्ण कानों के सदृश्य प्रतीत होती थी ।
आनन महा तेजोमइ, चाल चलन तुरवाइ ॥
दरस तासु तिन्ह चितबन, उपजी कौतूहाइ ॥
उस घोड़े की मुखाकृति, महा तेजोमय थी और चालढाल तो तीव्र थी ही अत: उसके दर्शन प्राप्त कर लव सहित उन मुनि पुत्रों के चित्त में घोड़े के प्रति कौतूहल जगा ॥
लिए मुख चौंक चकित भाव , जोखत जवन तुरंग ।
भलबिधि परखन लउ तेइ,धर कर सोन सुरंग ॥
और उस तीव्रगामी अश्व का निरिक्षण करते हुवे उनके मुख पर विस्मय का भाव छा गया । फिर भली भाँती परीक्षण करने के पश्चात उनहोंने उस अश्व की स्वर्ण जैसी रस्सियों को पकड़ लिया ॥
शुक्रवार, २५ अक्टूबर , २ ० १ ३
अखिगत तिन लव पलक झपाई । मुनिहि कुँवरिन्ह पूछ बुझाई ॥
तुरंग सम यहु तूर तुरंगा । चरन हिरन रज बासित अंगा ॥
उसे देखते हुवे लव बस पलकें झपका कर मुनि कुमारों से पूछते हैं कि जिसके चरणों से धूलिका स्वर्ण सी हो गई जिसके अंग अंग से सुवासित यह घोड़ा, चित्त के समतुल्य है :--
चारु चँवर सन छबि छिनके । जे तुरगम कहु तो भए किनके ॥
आए तपोबन सों संजोगे । भूरि पथ का छत पत बिजोगे ॥
सुन्दर चँवर बंधे होने से इसकी शोभा जैसे छलक रही है यह तुरंगा कहो तो किसका है ॥ (तब मुनि पुत्रों ने कहा) यह तुरंग इस तपोवन में संयोग वश ही आ पहुंचा है । लगता है यह अपने छत्रपति से वियोगित होकर पथ भूल गया है ॥
सूर बंस रघुकुल के जातक । धनुर्धारिन प्रदल अति घातक ॥
तिन तुरग सन ऐसेउ सोहें । मनहु दुर्जय जयंतहिं होहें ॥
सूर्य वंश और रघुकुल का जातक धनुर धारी धातक बाणों के साथ उस तुरंग के समीप इस भांति से सुशोभित हो रहे थे जिसे जीता न जा सके मानो वह ऐसे राजा के पुत्र ही हों ॥
दस ध्रुवक के पटल ललाटे । बहत मसि पत आख़री लाटे ॥
धौल बदन जस पुष्कर नीके । जल पुष्कल सुदल पुंडरीके ॥
दस चिन्हों से युक्त उस अश्व के ललाट पटल पर अंजन के प्रवाह को अक्षरों की भित्तिका से बांधता हुवा एक पत्र था ॥ उसके श्वेत मुख पर वह पत्र जल से परिपूर्ण सुन्दर सरोवर में श्वेत कमल के पत्र सदृश्य प्रतीत होता था ॥
आखर आखर ओह , बादन धुनी अलंकरे ।
सिंधु सुता सुत सौंह, पत पंगत कंठ उतरे ॥
और अक्षर माला ? अहा ! यह शब्दायमान हो मोती मोती कर मानो पत्र की पंक्तियों के कंठ को अलंकृत कर रहे हों ॥
रवि/शनि , २२/२६ सितम्ब/अक्तूबर, २ ० १ ३
और उस तीव्रगामी अश्व का निरिक्षण करते हुवे उनके मुख पर विस्मय का भाव छा गया । फिर भली भाँती परीक्षण करने के पश्चात उनहोंने उस अश्व की स्वर्ण जैसी रस्सियों को पकड़ लिया ॥
शुक्रवार, २५ अक्टूबर , २ ० १ ३
अखिगत तिन लव पलक झपाई । मुनिहि कुँवरिन्ह पूछ बुझाई ॥
तुरंग सम यहु तूर तुरंगा । चरन हिरन रज बासित अंगा ॥
उसे देखते हुवे लव बस पलकें झपका कर मुनि कुमारों से पूछते हैं कि जिसके चरणों से धूलिका स्वर्ण सी हो गई जिसके अंग अंग से सुवासित यह घोड़ा, चित्त के समतुल्य है :--
चारु चँवर सन छबि छिनके । जे तुरगम कहु तो भए किनके ॥
आए तपोबन सों संजोगे । भूरि पथ का छत पत बिजोगे ॥
सुन्दर चँवर बंधे होने से इसकी शोभा जैसे छलक रही है यह तुरंगा कहो तो किसका है ॥ (तब मुनि पुत्रों ने कहा) यह तुरंग इस तपोवन में संयोग वश ही आ पहुंचा है । लगता है यह अपने छत्रपति से वियोगित होकर पथ भूल गया है ॥
सूर बंस रघुकुल के जातक । धनुर्धारिन प्रदल अति घातक ॥
तिन तुरग सन ऐसेउ सोहें । मनहु दुर्जय जयंतहिं होहें ॥
सूर्य वंश और रघुकुल का जातक धनुर धारी धातक बाणों के साथ उस तुरंग के समीप इस भांति से सुशोभित हो रहे थे जिसे जीता न जा सके मानो वह ऐसे राजा के पुत्र ही हों ॥
दस ध्रुवक के पटल ललाटे । बहत मसि पत आख़री लाटे ॥
धौल बदन जस पुष्कर नीके । जल पुष्कल सुदल पुंडरीके ॥
दस चिन्हों से युक्त उस अश्व के ललाट पटल पर अंजन के प्रवाह को अक्षरों की भित्तिका से बांधता हुवा एक पत्र था ॥ उसके श्वेत मुख पर वह पत्र जल से परिपूर्ण सुन्दर सरोवर में श्वेत कमल के पत्र सदृश्य प्रतीत होता था ॥
आखर आखर ओह , बादन धुनी अलंकरे ।
सिंधु सुता सुत सौंह, पत पंगत कंठ उतरे ॥
और अक्षर माला ? अहा ! यह शब्दायमान हो मोती मोती कर मानो पत्र की पंक्तियों के कंठ को अलंकृत कर रहे हों ॥
रवि/शनि , २२/२६ सितम्ब/अक्तूबर, २ ० १ ३
जब लेइ कर भाल पत देखे । पटीरिहि पटल रहि जो लेखे ॥
लोकत लव अखि कूटक लोले । घोरइँ रोषन राग कपोले ॥
लव ने जब उस भाल पत्र के सुन्दर पटल पर उल्लेखित सन्देश का अवलोकन किया ॥ उसे देखते ही उसकी आँखों के कोटर जो अब तक स्थिर थे, हिलने-डुलने लग गए । और गालों पर क्रोधवश अति गहरा राग छिटक गया ॥
दरसत दरसत मुष्टिक कासे । चरि साँस जस बायुर अगासे ॥
रद छादन पत फरकत लोले । धार धनु कर कुँवर सों बोले ॥
आऔर देखते ही देखते उसकी मुट्ठी कसने लगी । सांस ऐसे चलने लगी जैसे आकाश में आंधी चल रही हो । उस आन्ही से मुख पत्र फड़फड़ाने लगे । और हाथ में धनुष धारण कर लव मुनि कुमारों से इंगित होकर बोले : -
अह तासु पत भरे अभिमाने । आपनाप का मान न जाने ॥
कहत बचन एहि भरे अँगीठे । लाल लवन लव लोचन दीठे ॥
ओह ! इसका स्वामी तो घमंड से भरा हुवा बड़ा ही ढीठ है । न जाने अपने आप को क्या समझता है ॥ ऐसे वचन कहते हुवे लव की दृष्टी, भरी हुई अंगीठी के सदृश्य रक्त वर्ण सी किन्तु सुन्दर दिखाई दे रही थीं ॥
अरु तिरछन कर कहि तनि देखें । ताप बल पत जे महि लेखे ॥
कौन सत्रुहन कौन श्री रामा । का जेइ करि छत्रिहि कुल नामा ॥
और फिर तिरछि दृष्टी करते हुवे लव ने संकेत किया । और उस स्वामी का अपने बल और प्रताप का महिमा मंडन तो देखो ॥ ये शत्रुहन कौन है कौन है हैं ये शत्रुहन ? श्री राम वो कौन हैं ? छत्रिय वंश का नाम क्या इन्हीं के हाथों में है?
बीर छत्रिहि बर का हम नाहीं । अस बहुलित लव बचनन काहीं ॥
अरु अस्व किरन कस कै धारे । काख नयन है फेर निहारे ॥
क्या हम (दोनों भाई) श्रेष्ठ छत्रिय नहीं हैं ? ऐसे बहुंत -सी बातें सिय कुमार लव अपने मुख से उच्चारित करने लगे ॥ और अश्व की रस्सियों को कास के पकड़ते हुवे नयन और भौंहे तिरछे करते हुवे उस अश्व का चारों और से अवलोकन करते हुवे : --
सकल जग सूरन्ह जान, समतुल तृन तुष धान ।
जोगत पंथ कारिन रन, धनुर बान संधान ॥
जगत के समस्त राजाओं को तृण और धन्य -कवच के सदृश्य तुच्छ समझ कर धनुष में बाण संधान करते हुवे युद्ध हेतु उन राजाओं की प्रतीक्षा करने लगा ॥
रवि/सोम, २७/२८ अक्तूबर, २ ० १ ३
मुनि अंगज दृग जब जे दरसे । करन हरन लव है कर करसे ॥
चित के सुधी वदन के भोले । बचन रसन अस मधुरित बोले ॥
मुनि पुत्रों के लोचन ने जब यह देखा कि लव के हशव के हरण करने के विचार से उसकी रस्सियाँ हाथ में कासी हैं ॥ तब बुद्धि से समझदार और मुख के अबोध दिखने वाले उन मुनि कुमारों की जिह्वा ऐसे मधुरित वचन बोली : --
रे कुसानुज रे सिय कुँआरे । कृपा करत श्रुतु कथन हमारे ॥
कहें एक बचन तव हितकारी । जे कारज परि बहुसहि भारी ॥
हे! कुश के अनुज हे माता सीता के वत्स कृपया करके हमारे कथन को सुनो हम तुम्हारे हित करने वाली एक बात कहते हैं । यह अश्व हरण करने का कार्य तुम ना करो क्योंकि इस कार्य से तुम्हारी बहुंत हानि हो सकती है ॥
भए मह बिक्रमी बर बलबाने । अवध राउ गहि बहु सनमाने ॥
जासु जाल सकल जग ब्यापा । घन घमंड निज किए बल आपा । ॥
ये जो अवध के राजा श्री रामचंद्र हैं उनकी सैन्य शक्ति बहुंत अधिक है वह न केवल पराक्रमी है अपितु बहुंत बलशाली भी हैं ॥ जिनका रण कौशल सारे जग में प्रसिद्द है और जो अपने बल पर अत्यधिक घमंड करने वाले हैं
सोइ सुर पतहु जानत हेसी । हहरें धारन तिनके केसी ॥
कहत कुँवर तज हरन बिचारे । तिन है कर छोरें परिहारें ॥
वे देव् पति राजा इंद्र भी उसकी किरणों को पकड़ते हुवे कांपते यह जानते हुवे कि ये श्रेष्ठ अश्व उन राजा राम चन्द्र का है ॥ फिर मुनि कुमार कहते हैं : -- हे ! लव अब तुम इस अश्व के हरण का विचार त्याग कर इसकी किरणों को छोड़ दो और इसे जाने दो ॥
कहत लव तुम बेद बिदित, धर्म धुरंधर धीर ।
तव रच्छन मम धरम मैं, कुल जात रन बीर ॥
तब लव प्रतिउत्तर में कहते हैं : -- तुम मुनिकुमार वेद के ज्ञान में प्रकांड हो, और तुम धर्म के रक्षक हो । किन्तु मैं क्षत्रि कुल में उत्पन्न हुवा हूँ जिसका धर्म तुम्हारी रक्षा करना है ॥
श्रवनु जे तपोबन एक प्रदेसा । आश्रम धानिहि बन भू देसा ।।
अंत नेमि बन सींव सुधीते । हमरे गुरुकुल नेम बंधिते ॥
अब सुनो यह तपोवन एक प्रदेस है । और हमारा आश्रम इस वन देश की राजधानी है ॥ इसकी अंतिम परिधि तक हमने सीमाएं निबंध की हुई हैं ।जो हमारे गुरुकुल के विधानों से आबद्ध है ॥
चढ़ि हम पर तिनके बल दामे । गुरु के बिद्या बल किन कामे ॥
अजहुँ तिनके है हरे सीवाँ । पहले प्रगंड पुनि धरि गीवाँ ॥
यदि यह यज्ञ कर्त्ता हम पर चढ़ाई करते हुवे हमारा दमन करता है तब गुरु की दी हुई विद्या और यह बल किस काम आएगा । अभी तो इनके अश्व ने ही हमारी सीमाओं का व्यपहरण किया है फिर पहुंचा पकड़ते कहीं ये हमारे ग्रीवा तक न पहुँच जाएं ॥
अस कह ऊँटक केसरि काँधे । एक तरु लव ले रसरी बाँधे ॥
लव ने जब उस भाल पत्र के सुन्दर पटल पर उल्लेखित सन्देश का अवलोकन किया ॥ उसे देखते ही उसकी आँखों के कोटर जो अब तक स्थिर थे, हिलने-डुलने लग गए । और गालों पर क्रोधवश अति गहरा राग छिटक गया ॥
दरसत दरसत मुष्टिक कासे । चरि साँस जस बायुर अगासे ॥
रद छादन पत फरकत लोले । धार धनु कर कुँवर सों बोले ॥
आऔर देखते ही देखते उसकी मुट्ठी कसने लगी । सांस ऐसे चलने लगी जैसे आकाश में आंधी चल रही हो । उस आन्ही से मुख पत्र फड़फड़ाने लगे । और हाथ में धनुष धारण कर लव मुनि कुमारों से इंगित होकर बोले : -
अह तासु पत भरे अभिमाने । आपनाप का मान न जाने ॥
कहत बचन एहि भरे अँगीठे । लाल लवन लव लोचन दीठे ॥
ओह ! इसका स्वामी तो घमंड से भरा हुवा बड़ा ही ढीठ है । न जाने अपने आप को क्या समझता है ॥ ऐसे वचन कहते हुवे लव की दृष्टी, भरी हुई अंगीठी के सदृश्य रक्त वर्ण सी किन्तु सुन्दर दिखाई दे रही थीं ॥
अरु तिरछन कर कहि तनि देखें । ताप बल पत जे महि लेखे ॥
कौन सत्रुहन कौन श्री रामा । का जेइ करि छत्रिहि कुल नामा ॥
और फिर तिरछि दृष्टी करते हुवे लव ने संकेत किया । और उस स्वामी का अपने बल और प्रताप का महिमा मंडन तो देखो ॥ ये शत्रुहन कौन है कौन है हैं ये शत्रुहन ? श्री राम वो कौन हैं ? छत्रिय वंश का नाम क्या इन्हीं के हाथों में है?
बीर छत्रिहि बर का हम नाहीं । अस बहुलित लव बचनन काहीं ॥
अरु अस्व किरन कस कै धारे । काख नयन है फेर निहारे ॥
क्या हम (दोनों भाई) श्रेष्ठ छत्रिय नहीं हैं ? ऐसे बहुंत -सी बातें सिय कुमार लव अपने मुख से उच्चारित करने लगे ॥ और अश्व की रस्सियों को कास के पकड़ते हुवे नयन और भौंहे तिरछे करते हुवे उस अश्व का चारों और से अवलोकन करते हुवे : --
सकल जग सूरन्ह जान, समतुल तृन तुष धान ।
जोगत पंथ कारिन रन, धनुर बान संधान ॥
जगत के समस्त राजाओं को तृण और धन्य -कवच के सदृश्य तुच्छ समझ कर धनुष में बाण संधान करते हुवे युद्ध हेतु उन राजाओं की प्रतीक्षा करने लगा ॥
रवि/सोम, २७/२८ अक्तूबर, २ ० १ ३
मुनि अंगज दृग जब जे दरसे । करन हरन लव है कर करसे ॥
चित के सुधी वदन के भोले । बचन रसन अस मधुरित बोले ॥
मुनि पुत्रों के लोचन ने जब यह देखा कि लव के हशव के हरण करने के विचार से उसकी रस्सियाँ हाथ में कासी हैं ॥ तब बुद्धि से समझदार और मुख के अबोध दिखने वाले उन मुनि कुमारों की जिह्वा ऐसे मधुरित वचन बोली : --
रे कुसानुज रे सिय कुँआरे । कृपा करत श्रुतु कथन हमारे ॥
कहें एक बचन तव हितकारी । जे कारज परि बहुसहि भारी ॥
हे! कुश के अनुज हे माता सीता के वत्स कृपया करके हमारे कथन को सुनो हम तुम्हारे हित करने वाली एक बात कहते हैं । यह अश्व हरण करने का कार्य तुम ना करो क्योंकि इस कार्य से तुम्हारी बहुंत हानि हो सकती है ॥
भए मह बिक्रमी बर बलबाने । अवध राउ गहि बहु सनमाने ॥
जासु जाल सकल जग ब्यापा । घन घमंड निज किए बल आपा । ॥
ये जो अवध के राजा श्री रामचंद्र हैं उनकी सैन्य शक्ति बहुंत अधिक है वह न केवल पराक्रमी है अपितु बहुंत बलशाली भी हैं ॥ जिनका रण कौशल सारे जग में प्रसिद्द है और जो अपने बल पर अत्यधिक घमंड करने वाले हैं
सोइ सुर पतहु जानत हेसी । हहरें धारन तिनके केसी ॥
कहत कुँवर तज हरन बिचारे । तिन है कर छोरें परिहारें ॥
वे देव् पति राजा इंद्र भी उसकी किरणों को पकड़ते हुवे कांपते यह जानते हुवे कि ये श्रेष्ठ अश्व उन राजा राम चन्द्र का है ॥ फिर मुनि कुमार कहते हैं : -- हे ! लव अब तुम इस अश्व के हरण का विचार त्याग कर इसकी किरणों को छोड़ दो और इसे जाने दो ॥
कहत लव तुम बेद बिदित, धर्म धुरंधर धीर ।
तव रच्छन मम धरम मैं, कुल जात रन बीर ॥
तब लव प्रतिउत्तर में कहते हैं : -- तुम मुनिकुमार वेद के ज्ञान में प्रकांड हो, और तुम धर्म के रक्षक हो । किन्तु मैं क्षत्रि कुल में उत्पन्न हुवा हूँ जिसका धर्म तुम्हारी रक्षा करना है ॥
श्रवनु जे तपोबन एक प्रदेसा । आश्रम धानिहि बन भू देसा ।।
अंत नेमि बन सींव सुधीते । हमरे गुरुकुल नेम बंधिते ॥
अब सुनो यह तपोवन एक प्रदेस है । और हमारा आश्रम इस वन देश की राजधानी है ॥ इसकी अंतिम परिधि तक हमने सीमाएं निबंध की हुई हैं ।जो हमारे गुरुकुल के विधानों से आबद्ध है ॥
चढ़ि हम पर तिनके बल दामे । गुरु के बिद्या बल किन कामे ॥
अजहुँ तिनके है हरे सीवाँ । पहले प्रगंड पुनि धरि गीवाँ ॥
यदि यह यज्ञ कर्त्ता हम पर चढ़ाई करते हुवे हमारा दमन करता है तब गुरु की दी हुई विद्या और यह बल किस काम आएगा । अभी तो इनके अश्व ने ही हमारी सीमाओं का व्यपहरण किया है फिर पहुंचा पकड़ते कहीं ये हमारे ग्रीवा तक न पहुँच जाएं ॥
अस कह ऊँटक केसरि काँधे । एक तरु लव ले रसरी बाँधे ॥
बाजी सह चारित जे धारी । आए जँह है बँधे एक डारी ॥
ऐसा कह कर लव ने अपने सिंह के जैसे कन्धों को उचकाया और एक विक्शा में उस अश्व की किरणों को बाँध दिया । फिर उस अश्व की रक्षा में जो सेना चल रही थी वह वहाँ आ पहुंची जहां वह अश्व एक शखा से बंधा हुवा था ॥
सैन सेउ जब है अबलोके । कहि रिसियत भए लाल भभोके ॥
आजु जमराजु कुपिते को पर । बाँधे तरुबर जो ए बाजि कर ॥
सैनिक, सेवक ने जब अश्व का निरिक्षण किया तो लाल भभूका होते हुवे क्रोधित होकर कहने लगे : -- आज यम राज किस पर कुपित हुवा है अर्थात किसकी मृत्यु आई है जो उसने इस अश्व कि किरणों को इस वृक्ष से बाँध रखा है ॥
मम पर अस कहि लव बलवंते । पूछ उतरु तिन देइ तुरंते ॥
अरु कहि जे को तिन निस्तारहि । तेइ करन सौ बारु बिचारहि ॥
'मुझ पर' ऐसा कहते हुवे बलवान लव ने उन सैनिक सेवकों के प्रश्न का तत्काल उत्तर दिया ॥ और फिर वह बोले जो कोई इस अश्व को छुड़ा कर ले जाएगा वो ऐसा करने से पहले सौ बार सोचे ॥
दुइ भ्रात हम धर्म रछ रच्छक । समर धुरंधर बल के कच्छक ॥
भ्रात भयउ अतुलित बल धामा । देव पतिहु तिन करत प्रनामा ॥
हम दो भाई रन कारित करने में धुरंधर और बल की कक्षा एवं धर्म के रक्षकों के रक्षक हैं । मेरे भ्राता अतुलित बल के भण्डार हैं स्वयं इंद्र भी उअनके सम्मुख नतमस्तक हैं ॥
जेहु अवाएँ हमारे सों, होहि कोप के भाज ।
आए चाहे स्वयं जो, काल देव जमराज ॥
जो भी सम्मुख आएगा, हमारे कोप का भाजक होगा । चाहे वह स्वयं काल के देवता यमराज ही क्यों न हों ॥
मंगलवार,२९ अक्तूबर २०१३
भ्रात बिसिख जब गगन ब्यापहि । तेज मुख जम का सबैं कापहिं ॥
आवइँ जो जम नम नत होहीं । बहुरत ते तुर निज पथ जोहीं ॥
मेरे बड़े भाई के बाण जब गगन में व्याप्त होंगे तब उनके तीक्ष्ण मुख से यम क्या सभी कांप उठेंगे ॥ यदि यम भी उनके सम्मुख आ जाए तो वह नट मस्तक होकर पीठ करके तुरंत अपना मार्ग पकड़ेंगे ॥
लव के बचन्ह भट हरु लेईं । बाल लेख कर सुरति न देईं ॥
बँधे किरन जब मोचन चाहीं । देख सकल दल बल बिचलाहीं ॥
लव के वचनों को सैनिकों ने हलके में लिया और उसे बालक समझ कर उस पर ध्यान नहीं दिया ॥ जब वे बंधे हुवे अश्व को छुड़ाने कि कामना करने लगे तब समस्त सेना यह देख कर व्याकुल हो कि : --
ऐसा कह कर लव ने अपने सिंह के जैसे कन्धों को उचकाया और एक विक्शा में उस अश्व की किरणों को बाँध दिया । फिर उस अश्व की रक्षा में जो सेना चल रही थी वह वहाँ आ पहुंची जहां वह अश्व एक शखा से बंधा हुवा था ॥
सैन सेउ जब है अबलोके । कहि रिसियत भए लाल भभोके ॥
आजु जमराजु कुपिते को पर । बाँधे तरुबर जो ए बाजि कर ॥
सैनिक, सेवक ने जब अश्व का निरिक्षण किया तो लाल भभूका होते हुवे क्रोधित होकर कहने लगे : -- आज यम राज किस पर कुपित हुवा है अर्थात किसकी मृत्यु आई है जो उसने इस अश्व कि किरणों को इस वृक्ष से बाँध रखा है ॥
मम पर अस कहि लव बलवंते । पूछ उतरु तिन देइ तुरंते ॥
अरु कहि जे को तिन निस्तारहि । तेइ करन सौ बारु बिचारहि ॥
'मुझ पर' ऐसा कहते हुवे बलवान लव ने उन सैनिक सेवकों के प्रश्न का तत्काल उत्तर दिया ॥ और फिर वह बोले जो कोई इस अश्व को छुड़ा कर ले जाएगा वो ऐसा करने से पहले सौ बार सोचे ॥
दुइ भ्रात हम धर्म रछ रच्छक । समर धुरंधर बल के कच्छक ॥
भ्रात भयउ अतुलित बल धामा । देव पतिहु तिन करत प्रनामा ॥
हम दो भाई रन कारित करने में धुरंधर और बल की कक्षा एवं धर्म के रक्षकों के रक्षक हैं । मेरे भ्राता अतुलित बल के भण्डार हैं स्वयं इंद्र भी उअनके सम्मुख नतमस्तक हैं ॥
जेहु अवाएँ हमारे सों, होहि कोप के भाज ।
आए चाहे स्वयं जो, काल देव जमराज ॥
जो भी सम्मुख आएगा, हमारे कोप का भाजक होगा । चाहे वह स्वयं काल के देवता यमराज ही क्यों न हों ॥
मंगलवार,२९ अक्तूबर २०१३
भ्रात बिसिख जब गगन ब्यापहि । तेज मुख जम का सबैं कापहिं ॥
आवइँ जो जम नम नत होहीं । बहुरत ते तुर निज पथ जोहीं ॥
मेरे बड़े भाई के बाण जब गगन में व्याप्त होंगे तब उनके तीक्ष्ण मुख से यम क्या सभी कांप उठेंगे ॥ यदि यम भी उनके सम्मुख आ जाए तो वह नट मस्तक होकर पीठ करके तुरंत अपना मार्ग पकड़ेंगे ॥
लव के बचन्ह भट हरु लेईं । बाल लेख कर सुरति न देईं ॥
बँधे किरन जब मोचन चाहीं । देख सकल दल बल बिचलाहीं ॥
लव के वचनों को सैनिकों ने हलके में लिया और उसे बालक समझ कर उस पर ध्यान नहीं दिया ॥ जब वे बंधे हुवे अश्व को छुड़ाने कि कामना करने लगे तब समस्त सेना यह देख कर व्याकुल हो कि : --
लेइ नयन लउ बिपुल अँगारे । कसत कासि कर कुटिल निहारे ॥
सकल सेन ऐसेउ पचारे । भेद धुनी जस घन धुँधकारे ॥
लव अपनी आँखों में अत्यधिक अंगारे भर कर मुष्टिका कसते हुवे उन्हें बड़ी टेड़ी दिष्टि से देख रहा है ॥ वह समस्त सेना को मेघ के समान गगन भेदक ध्वनी से ललकार रहा है ॥
लव अपनी आँखों में अत्यधिक अंगारे भर कर मुष्टिका कसते हुवे उन्हें बड़ी टेड़ी दिष्टि से देख रहा है ॥ वह समस्त सेना को मेघ के समान गगन भेदक ध्वनी से ललकार रहा है ॥
औरु कहहि मुख सन सह क्रोधे । जबन मोचि जे मम सन जोधे ॥
धारि धारि भारी अभिमाना । लउ के बचन पुनि दिए न काना ॥
और मुख में क्रोध भर कर ऐसे कह रहा है कि जो इस अश्व निस्तारेगा उसे मेरे साथ युद्ध करना होगा ॥ वह सेना को अपनी शक्ति पर बड़ा भारी अभिमान हो चला था ( क्योंकि उसने रावण को परास्त किया थ ) उन्होंने लव के वचनों को फिर से अनसुना कर दिया ॥
अस्व किरन मोचन अगुसारे । दरसत जे लव कर धनु धारे ॥
और मुख में क्रोध भर कर ऐसे कह रहा है कि जो इस अश्व निस्तारेगा उसे मेरे साथ युद्ध करना होगा ॥ वह सेना को अपनी शक्ति पर बड़ा भारी अभिमान हो चला था ( क्योंकि उसने रावण को परास्त किया थ ) उन्होंने लव के वचनों को फिर से अनसुना कर दिया ॥
अस्व किरन मोचन अगुसारे । दरसत जे लव कर धनु धारे ॥
करन पटी लग गुन बिस्तारे । सरर सनासन छुरपन छाँरे ॥
और अश्व की किरणों को मोचित करने हेतु वे आगे बढ़ने लगे । लव जब उन्हें ऐसा करते देखा तब हाथों में धनुष धारण कर उसकी प्रत्यंचा अको कानों तक विस्तार दे कर शत्रुध्न के सेवकों पर सर्र सनासन करते हुवे क्षुरप्रों का प्रहार करना आरम्भ कर दिया ॥
हेर हेर एक एक सुभट, काटत किए भुज हीन ।
गवनि सकल सत्रुहन सरन , कटक कटक भइ दीन ॥
और अश्व की किरणों को मोचित करने हेतु वे आगे बढ़ने लगे । लव जब उन्हें ऐसा करते देखा तब हाथों में धनुष धारण कर उसकी प्रत्यंचा अको कानों तक विस्तार दे कर शत्रुध्न के सेवकों पर सर्र सनासन करते हुवे क्षुरप्रों का प्रहार करना आरम्भ कर दिया ॥
हेर हेर एक एक सुभट, काटत किए भुज हीन ।
गवनि सकल सत्रुहन सरन , कटक कटक भइ दीन ॥
उन क्षुरप्रों ने ढूंड ढूंड कर एक एक सूर वीरों की भुजाओं को काट कर उन्हें भुजा हिन् कर दिया ॥ तब सारी सेना इस मारकाट से व्याकुल होकर शत्रुध्न की शरण हो गई ॥
लागि कटक दल भुज हिन् कैसे । कटत साख को द्रुमदल जैसे ॥
मंद कांत मुख मसि मलीना । जस को बालक केलि हीना ॥
वह भुजा हीन सेना कैसे लग रही थी जैसे कटी शाखा वाले वृक्ष समूह हों ॥ और उनके कालिमा से युक्त मुरझाए हुवे मुख इस प्रकार दर्श रहे थे जैसे भुजा न हुई किसी बालक के खिलौने हो गए और वे किसी ने छीन लिए हों ॥
दरस दसा कटकिन्ह कटियाए । शत्रुहन कारन पूछत बुझाए ॥
सकल सुभट तब बिबरन दाईं । समाचार सब तिन्ह सुनाईं ॥
कटक की ऐसी कटी हुई दशा देख कर शत्रुहन ने जब इसका कारण पूछा । तब सभी रक्षकों ने स्थिति का विवरण देते हुवे अपनी दुर्दशा का सारा समाचार कह सुनाया ॥
कहत धरनी धर हे मुनि बर । भंग भुजा सत्रुहन दरसन कर ॥
नाचत बदन अगन कन चमकहिं । अस जस धनवन दामिनि दमकहिं ॥
इस प्रकार भगवान शेष जी कहते हैं हे मुनिवर ! अपनी सेना को ऐसी भग्न बाहु की अवस्था में देख कर । शत्रुहन के मुख पर क्रोध की चंगारी ऐसे नृत्य करने लगी जैसे आकाश में चंचला नृत्य करती हो ॥
रदन दान रिस छादन धारे । करक करख रन बीर पुकारे ॥
सकल सेन अस थर थर कांपे । कम्प भूमि जस भवन ब्यापे ॥
क्रोधवश शत्रुहन ने अपने अधरों को दांतों से चिन्हित कर दिए । और तीव्रता पूर्वक कड़कते हुवे योद्धाओं से इस प्रकार सम्बोधित हुवे कि समस्त सेना ऐसे कांपने लगी जैसे भूमि के कम्पन से उस पर विस्तारित भवन कांपते हों ॥
बहुस रिसिहाए पूछ बुझाए दरसत निज भट बाहु कटे ।
कवन बीर कर काटे भुज धर ते मोर सौमुख डटे ॥
कथने सत्रुहन सोई बलवन देवन्ह हुँत रच्छिते ।
गह बल कितनै मोरे कर तै पाए न सोइ मोचिते ॥
अपने सैनिकों की कटी हुई भुजाएँ देख कर बहुंत ही रोष पूर्वक प्रश्न करने लगे किस वीर के हाथों ने ये भुजाएं काटी है । वो मेरे सम्मुख तो आए फिर शत्रुधन ने कहा वह बलवान चाहे देवताओं ही रक्षित क्यों न हो उसने कितना ही बल ग्रहण क्यों न किया हो पर मेरे हाथ से नहीं बच पाएगा ॥
सुनि सैन सत्रुहन बचनन, किए अचरज भरि खेद ।
एक बालक श्री राम रुप, कहत बाँधि है मेद ।।
सैनिकों ने शत्रुध्न के वचन को सुनकर आश्चर्य युक्त खेद व्यक्त कर बोले : -- एक बाल किशोर है जो श्री राम के स्वरुप ही है उसी ने उस गठीले अश्व को बांधा है ॥
बुधवार, ३० अक्तूबर, २ ० १ ३
तब सत्रुहन बहिरत निज आपा । कासत करतल कर्कर चापा ॥
रननन अरिसन भए रन रंजन । भरत ह्रदय प्रतिशोध के अगन ॥
तब शत्रुध्न अपने आपे से बाहर हो गये । फिर कठोर कोदंड पर अपनी हथेली कसते, ह्रदय में प्रतिशोध की ज्वाला भरते हुवे शत्रु के साथ संघर्ष हेतु उत्कंठित हो उठे ।।
बुला पाल कँह आयसु दाईं । रन मूर्धन नउ नीति बनाईं ॥
समाजोग बिरंचित ब्यूहा । कलित अकार सकल भट जूहा ॥
और सेना नायक का आह्वान युद्ध के अगले मोर्चे की नीति बनाते हुवे, पालनार्थ हेतु उसे आज्ञा देते हुवे कहा कि सैनिक समूह को व्यूह आकर में सुसज्जित कर उसे तैयार करो ॥
जोग धार चढ़ पारहि जाहू । सकल जूथ रिपु घेर लहाहू ॥
बाल बीर दरसेउँ न लघुबर । देव नाथ जिमि रुप स्वयं कर ॥
रथादि धारण कर पार जाते हुवे चढ़ाई करते हुवे सारी सेना शत्रु को चारों और से घेर लो ॥ वह वीर कोई साधारण बालक नहीं है । निश्चय ही उसके रूप में साक्षात इन्द्र होंगे ॥
पाए आयसु सेन चतुरंगी । कुंजर रथ चर चरन तुरंगी ॥
सकल संकलित कर कलि अंगे । जूथ कार ब्यूह निर्भंगे ॥
सेना पाल ने आज्ञा प्राप्त कर सेना का स्वरुप चतुरंगी करते हुवे हाथी, रथ, पदादिका और अश्व इन चारों अंगों को संकलित किया और सैन्य समूह को एक दुर्भेद्य व्यूह का आकार दिया ॥
सैन पाल जब जोग समाजे । लख कहि सत्रुहन भा बर काजे ॥
देइ आयसु गतु अचिरम आजि । जँह बालक तरु बाँध्यो बाजि ॥
सैन्य-प्रणेता ने समस्त सामग्री योजित कर फिर सेना सम्पूर्ण स्वरुप में तैयार कर दिया । तब शत्रुध्न ने उसका निरक्षण कर कहा : -- 'अति उत्तम ' और फिर उसे अति शीग्र उस स्थल की और कूच करने की आज्ञा दी जहां उस बालक योद्धा ने यज्ञ के अश्व को बाँध रखा था ॥
लागि कटक दल भुज हिन् कैसे । कटत साख को द्रुमदल जैसे ॥
मंद कांत मुख मसि मलीना । जस को बालक केलि हीना ॥
वह भुजा हीन सेना कैसे लग रही थी जैसे कटी शाखा वाले वृक्ष समूह हों ॥ और उनके कालिमा से युक्त मुरझाए हुवे मुख इस प्रकार दर्श रहे थे जैसे भुजा न हुई किसी बालक के खिलौने हो गए और वे किसी ने छीन लिए हों ॥
दरस दसा कटकिन्ह कटियाए । शत्रुहन कारन पूछत बुझाए ॥
सकल सुभट तब बिबरन दाईं । समाचार सब तिन्ह सुनाईं ॥
कटक की ऐसी कटी हुई दशा देख कर शत्रुहन ने जब इसका कारण पूछा । तब सभी रक्षकों ने स्थिति का विवरण देते हुवे अपनी दुर्दशा का सारा समाचार कह सुनाया ॥
कहत धरनी धर हे मुनि बर । भंग भुजा सत्रुहन दरसन कर ॥
नाचत बदन अगन कन चमकहिं । अस जस धनवन दामिनि दमकहिं ॥
इस प्रकार भगवान शेष जी कहते हैं हे मुनिवर ! अपनी सेना को ऐसी भग्न बाहु की अवस्था में देख कर । शत्रुहन के मुख पर क्रोध की चंगारी ऐसे नृत्य करने लगी जैसे आकाश में चंचला नृत्य करती हो ॥
रदन दान रिस छादन धारे । करक करख रन बीर पुकारे ॥
सकल सेन अस थर थर कांपे । कम्प भूमि जस भवन ब्यापे ॥
क्रोधवश शत्रुहन ने अपने अधरों को दांतों से चिन्हित कर दिए । और तीव्रता पूर्वक कड़कते हुवे योद्धाओं से इस प्रकार सम्बोधित हुवे कि समस्त सेना ऐसे कांपने लगी जैसे भूमि के कम्पन से उस पर विस्तारित भवन कांपते हों ॥
बहुस रिसिहाए पूछ बुझाए दरसत निज भट बाहु कटे ।
कवन बीर कर काटे भुज धर ते मोर सौमुख डटे ॥
कथने सत्रुहन सोई बलवन देवन्ह हुँत रच्छिते ।
गह बल कितनै मोरे कर तै पाए न सोइ मोचिते ॥
अपने सैनिकों की कटी हुई भुजाएँ देख कर बहुंत ही रोष पूर्वक प्रश्न करने लगे किस वीर के हाथों ने ये भुजाएं काटी है । वो मेरे सम्मुख तो आए फिर शत्रुधन ने कहा वह बलवान चाहे देवताओं ही रक्षित क्यों न हो उसने कितना ही बल ग्रहण क्यों न किया हो पर मेरे हाथ से नहीं बच पाएगा ॥
सुनि सैन सत्रुहन बचनन, किए अचरज भरि खेद ।
एक बालक श्री राम रुप, कहत बाँधि है मेद ।।
सैनिकों ने शत्रुध्न के वचन को सुनकर आश्चर्य युक्त खेद व्यक्त कर बोले : -- एक बाल किशोर है जो श्री राम के स्वरुप ही है उसी ने उस गठीले अश्व को बांधा है ॥
बुधवार, ३० अक्तूबर, २ ० १ ३
तब सत्रुहन बहिरत निज आपा । कासत करतल कर्कर चापा ॥
रननन अरिसन भए रन रंजन । भरत ह्रदय प्रतिशोध के अगन ॥
तब शत्रुध्न अपने आपे से बाहर हो गये । फिर कठोर कोदंड पर अपनी हथेली कसते, ह्रदय में प्रतिशोध की ज्वाला भरते हुवे शत्रु के साथ संघर्ष हेतु उत्कंठित हो उठे ।।
बुला पाल कँह आयसु दाईं । रन मूर्धन नउ नीति बनाईं ॥
समाजोग बिरंचित ब्यूहा । कलित अकार सकल भट जूहा ॥
और सेना नायक का आह्वान युद्ध के अगले मोर्चे की नीति बनाते हुवे, पालनार्थ हेतु उसे आज्ञा देते हुवे कहा कि सैनिक समूह को व्यूह आकर में सुसज्जित कर उसे तैयार करो ॥
जोग धार चढ़ पारहि जाहू । सकल जूथ रिपु घेर लहाहू ॥
बाल बीर दरसेउँ न लघुबर । देव नाथ जिमि रुप स्वयं कर ॥
रथादि धारण कर पार जाते हुवे चढ़ाई करते हुवे सारी सेना शत्रु को चारों और से घेर लो ॥ वह वीर कोई साधारण बालक नहीं है । निश्चय ही उसके रूप में साक्षात इन्द्र होंगे ॥
पाए आयसु सेन चतुरंगी । कुंजर रथ चर चरन तुरंगी ॥
सकल संकलित कर कलि अंगे । जूथ कार ब्यूह निर्भंगे ॥
सेना पाल ने आज्ञा प्राप्त कर सेना का स्वरुप चतुरंगी करते हुवे हाथी, रथ, पदादिका और अश्व इन चारों अंगों को संकलित किया और सैन्य समूह को एक दुर्भेद्य व्यूह का आकार दिया ॥
सैन पाल जब जोग समाजे । लख कहि सत्रुहन भा बर काजे ॥
देइ आयसु गतु अचिरम आजि । जँह बालक तरु बाँध्यो बाजि ॥
सैन्य-प्रणेता ने समस्त सामग्री योजित कर फिर सेना सम्पूर्ण स्वरुप में तैयार कर दिया । तब शत्रुध्न ने उसका निरक्षण कर कहा : -- 'अति उत्तम ' और फिर उसे अति शीग्र उस स्थल की और कूच करने की आज्ञा दी जहां उस बालक योद्धा ने यज्ञ के अश्व को बाँध रखा था ॥
बहुरि ब्यूह रचित सैन, गरज करि सिंह नाद ।
तब सैनपत काल जीत, किए लव सन संवाद॥
तदनन्तर व्यूह रचित उस कटक ने सिंह नाद के जैसे गरजना की । तब सैन्य-प्रणेता का जित ने लव को समझाने हेतु उससे संवाद स्थापित किये ॥
बृहस्पतिवार, ३१ अक्तूबर, २ ० १ ३
मोह मान मद ज्वर धराईं । चतुरंगिन आगिन बढ़ि आईं ॥
देइ बाल जो राम अभासे । वाके श्रीरुप प्रभु संकासे ॥
अधिक सम्मान के मोहवश एवं बल के मद धारण किये वह चतुरंगिणी सेना फिर आगे बढ़ी ॥ जो बाक श्री राम चन्द्र का आभास करा रहा था क्योंकि उसका रूप सौन्दर्य प्रभु श्री राम चन्द्र के ही सदृश्य था ॥
बहुरि लोकत बोलेउ बाहा । निरखत लव मुख छबि निज नाहा ॥
जिन्ह राऊ सों बिक्रम सोहें । हे कुँवर जे है तिनके होँहें ॥
फिर अव के मुख पर अपने राजा की छबि निहारते और उसका अवलोकन करते हुवे सेना पति ने कहा : -- जिस राजा के सम्मुख पराक्रम भी स्वयं शोभनीय हो हे कुमार ! यह श्रष्ठ अश्व उनका है ॥
जाके रुप सम तव आकारे । सौंपि तिन्ह है कर परिहारें ॥
दरस तोहि मैं भयउँ दयाला । कारन तव छबि सोंह कृपाला ॥
जिनके श्री रूप के सदृश्य ही तुम्हारा भी रूपाकृति है । इस अश्व की किरणों को छोड़ दो और उन्हें सौप दो । तुम्हारे ऐसे स्वरुप का दर्शन प्राप्त कर मैं भी दयावान हो गया हूँ । कारण की तुम्हारी मुख छवि जगत पर कृपा करने वाए श्री राम चन्द्र की ही है ॥
जो मम बचन तव मति न मानी । होहि तुम्हरी जीवन हानी ॥
कारन तुम भए एक लघु बालक । अरु मैं एक बृहद सेन के बाहक ॥
यदि तुम्हारी बुद्धि मेरे वचनों को नहीं मानती है तो फिर तुम्हारे जीवन की हानी भी हो सकती है । इस कारण कि तुम एक किसोर ही हो और मैं एक बड़ी सेना का बाहि हूँ अत:तुम्हारी और मेरी क्या बराबरी ॥
श्रवन बचन लव रन कारिन के । जूथ बाह रहि जे सत्रुहन के ॥
चौंक चकित एक छन ठाढ़े । दोइ चरन पुनि आगिन बाढ़े ॥
वह योद्धा जो कि शत्रुध्न कि उस सैन्य टुकड़ी का पालक था उसके वचनों को सुनकर एक क्षण के लिए लव (श्री राम चन्द्र से अपनी तुलना करने के कारण ) हतप्रद हो गया और स्तब्ध हो कर एक क्षण के लिए जड़ सा हो गया फिर उसने दो चरण आगे बढ़ाए ॥
मुख दर्पन दुइ छबि दरसाई । जल अकासित कमल की नाईं ॥
बिहस कमल छबि रोष सरूपा। निकसे ब्यंग बचन अनूपा ॥
मुख दर्पण दो प्रतिबिम्ब दर्शा रहा था । जैसे प्रफुल्लित कमल पुष्प का प्रतिबिम्ब सरोवर के जल में दर्शित हो रहा हो । विहास कमल रूप हुवा और क्रोध मानो उस कमल का प्रतिबिम्ब हो गया और उस मुख से ऐसे अद्भुद व्यंग वचन निकले ॥
जे मानो तुम हार, तो मैं है परिहर करूँ ।
दै सकल समाचार, राम सों भग्न दूत बन ॥
हे सेना पति काल जित, यदि तुम अपनी हार मान लो तो मैं इस घोड़े को छोड़ दूँगा । और श्रीराम चन्द्र जी के सम्मुख युद्ध में हार का सन्देश देने वाले दूत बनकर सारा समाचार कहो ॥
शुक्रवार, ०१ नवम्बर, २ ० १ ३
बचन मह त बल बहुस रिसाही । भुज दंड भीत आहिं कि नाहीं ॥
कहत काल जित काल सुधारें । तनिक काल अरु तव कर धारें ॥
वचनों में तो बहुंत बल टपक रहा है । तुम्हारी भुजाओं में भी यह है कि नहीं है ॥ ऐसा कहते हुवे का जित ने कहा आए हुवे अपने काल को सुधार लो । मैं तुम्हें किंचित और समय देता हूँ ॥
सूना मैं बीर रस मह सानी । तुम्हरी नीति जोगित बानी ॥
सकल ज्ञान रन कौसल लहहूँ । नीति धर्म मैं जानत अहहूँ ॥
हे वीर योद्धा ! मैने तुम्हारी रसों में गूंथी नीतियुक्त वाणी सुनी ॥ मैं सारा ज्ञान, सारा रन कौशल, सारी नीतियाँ और धर्म को जानता हूँ ॥
अरु कहउँ एक बात तव हीते । तव ही सम्मति जो सब रीते ॥
कह अस लव बहु मधुर मुखरिते । श्री प्रद भनन भनिते ॥
और एक बात तुम्हारे हीत की कहता हूँ जो सभी प्रकार से तुम्हारी सम्मति की है ॥ ऐसा कहते हुवे लव बहुंत ही मधुरता पूर्वक मुखरित हुवे विभूषित यह कल्याण कारी कथन कहने लगा ॥
नाम किरत करि नाम न होई । नाम धरन धरि नाम न सोई ।।
भू भुवन भूरि भूति भलाई । कृत करमन करि सो जस पाई ।।
नाम का यशगान करने से यश प्राप्त नहीं होता,किसी यशस्वी का नाम रख लेने भर से कोई यशस्वी नहीं हो जाता ॥ जो अनंत और अनंता की विभूतियों हेतु अतिशय कल्याणकारी कार्य करता है वही यश को प्राप्त होकर अपने नाम की कीर्ति करता है ॥
नाम धरे जित भएसि न बिजिता । जो अरि हराए सोइ रन जिता ॥
काल नाम ते भएसि न काला । काल निज काल जोइ ब्याला ॥
तुमने नाम रखा है जित जिसका अर्थ यह नहीं है तुम युद्ध जित गए जिसने शत्रु को हराया वही युद्ध में रण जित होता है ॥ का नाम होने से का नहीं होते हैं का वही है जो भयंकर है और वह स्वयं काल ही है ॥
भय हीन रह नीचकिन भाला । अइसिहु बिदिया दिए मम पाला ॥
सिरौरतन को काहु न होही । आए कोटि चाहे तव सोई ॥
ऐसी विद्या मेरे पालक ने मुझे दी है, चाहे वीरों के शिरोमणि ही क्यों न हो या तुम्हारे जैसे करोंडो वीर ही सम्मुख क्यों न हों, भय हीन रहो सदैव मस्तक ऊंचा रखो ॥
निज गुरु मात चरन कृपा, धरुँ सिरु सुबरन धूर ।
निसंसअ तिन्ह जानु मैं, तुलित तूल के कूर ॥
अपने गुरु एवं माता के चरणों की कृपा और उनके स्वर्ण सदृश्य धूल को शिरोधार्य कर मैं निसंदेह उन्हें रुई के ढेर मानता हूँ ॥
शनिवार, २४ नवम्बर, २ ० १ ३
श्रुत बाल के बचन उदीरिते । अचरज कारत कहि काल जिते ॥
कान्त कमल छबि भानुमाना । उदीयमान उदरथि समाना ॥
बालक द्वारा वर्णन की गई ऐसी सूक्तियों को सुनकर सेनापति कालजित आश्चर्य चकित होकर कहने लगे । जल की कांती लिए तुम्हारी यह तेजोमयी छवि किसी उदीयमान सूर्य के समान प्रतीत होती है ॥
हे उग्रक तुम को कुल दीपक । तेज तिलक तुम को के धारक ॥
नाम बयस सह को तव थाना । बहुस बिचारि पर मैं न भाना ॥
हे बलवान ! तुम किस कुल के दीपक हो ?हे तेजस्वी ! तुम किस कुल के गौरव ही तथा तुम किसके पुत्र हो ? तुम्हारा स्थान आदि का विचार करने के उपरांत भी मुझे तुम्हारा नाम, अवस्था के साथ तुम्हारे द्वारा राज्य का मुझे नहीं होता ॥
बंस बिटप भव तव को मूला । कहहु त भयउ समर समतूला ॥
तुम पयादिक मैं रथारोही । कहु एहि बयस समर कस सोहीं ॥
तुम किस वंश वृक्ष के उद्भव ही और तुम्हारा मूल को यदि तुम मुझसे कहोगे तो यह युद्ध बराबरी का हो जाएगा ॥ अभी तुम पैदल और मैं चतुरंगी सेना का पति होकर रथा में आरूढ़ित हूँ । कहो तो ऐसी अवस्था में यह युद्ध कैसे
सुशोभित होगा ॥
नाम सील कुल बयस न लहहू । रनी रनक रन कौसल कहहू ॥
हूँ मैं लव अरु मह लव लेसा । अरि भागित कर करुँ फल सेसा ॥
( तब लव ने उत्तर दिया ) हे सेनापति ! नाम, शील, कुल, अवस्थादि पर मत जाओ योद्धा के रन उत्कट और उसके कौशल की कहो ॥ मैं लव हूँ और मैं अल्प समय में ही शत्रु को विभाजित कर उसे अवशेष करने में समर्थ हूँ ॥
आधार अधिकांग, पर धरे गरब तुम्हार ।
लौ कारत तिन भंग, देउँ अबहि सम संग्राम ॥
और यह जो तुम्हारा घमंड है, यह सेना के अंगों पर ही आधारित है ? तो लो मैं इन्हें भंग करते हुवे यह युद्ध समतुल्य किये देता हूँ ॥
सोमवार, ०४ नवम्बर, २ ० १ ३
तदनन्तर व्यूह रचित उस कटक ने सिंह नाद के जैसे गरजना की । तब सैन्य-प्रणेता का जित ने लव को समझाने हेतु उससे संवाद स्थापित किये ॥
बृहस्पतिवार, ३१ अक्तूबर, २ ० १ ३
मोह मान मद ज्वर धराईं । चतुरंगिन आगिन बढ़ि आईं ॥
देइ बाल जो राम अभासे । वाके श्रीरुप प्रभु संकासे ॥
अधिक सम्मान के मोहवश एवं बल के मद धारण किये वह चतुरंगिणी सेना फिर आगे बढ़ी ॥ जो बाक श्री राम चन्द्र का आभास करा रहा था क्योंकि उसका रूप सौन्दर्य प्रभु श्री राम चन्द्र के ही सदृश्य था ॥
बहुरि लोकत बोलेउ बाहा । निरखत लव मुख छबि निज नाहा ॥
जिन्ह राऊ सों बिक्रम सोहें । हे कुँवर जे है तिनके होँहें ॥
फिर अव के मुख पर अपने राजा की छबि निहारते और उसका अवलोकन करते हुवे सेना पति ने कहा : -- जिस राजा के सम्मुख पराक्रम भी स्वयं शोभनीय हो हे कुमार ! यह श्रष्ठ अश्व उनका है ॥
जाके रुप सम तव आकारे । सौंपि तिन्ह है कर परिहारें ॥
दरस तोहि मैं भयउँ दयाला । कारन तव छबि सोंह कृपाला ॥
जिनके श्री रूप के सदृश्य ही तुम्हारा भी रूपाकृति है । इस अश्व की किरणों को छोड़ दो और उन्हें सौप दो । तुम्हारे ऐसे स्वरुप का दर्शन प्राप्त कर मैं भी दयावान हो गया हूँ । कारण की तुम्हारी मुख छवि जगत पर कृपा करने वाए श्री राम चन्द्र की ही है ॥
जो मम बचन तव मति न मानी । होहि तुम्हरी जीवन हानी ॥
कारन तुम भए एक लघु बालक । अरु मैं एक बृहद सेन के बाहक ॥
यदि तुम्हारी बुद्धि मेरे वचनों को नहीं मानती है तो फिर तुम्हारे जीवन की हानी भी हो सकती है । इस कारण कि तुम एक किसोर ही हो और मैं एक बड़ी सेना का बाहि हूँ अत:तुम्हारी और मेरी क्या बराबरी ॥
श्रवन बचन लव रन कारिन के । जूथ बाह रहि जे सत्रुहन के ॥
चौंक चकित एक छन ठाढ़े । दोइ चरन पुनि आगिन बाढ़े ॥
वह योद्धा जो कि शत्रुध्न कि उस सैन्य टुकड़ी का पालक था उसके वचनों को सुनकर एक क्षण के लिए लव (श्री राम चन्द्र से अपनी तुलना करने के कारण ) हतप्रद हो गया और स्तब्ध हो कर एक क्षण के लिए जड़ सा हो गया फिर उसने दो चरण आगे बढ़ाए ॥
मुख दर्पन दुइ छबि दरसाई । जल अकासित कमल की नाईं ॥
बिहस कमल छबि रोष सरूपा। निकसे ब्यंग बचन अनूपा ॥
मुख दर्पण दो प्रतिबिम्ब दर्शा रहा था । जैसे प्रफुल्लित कमल पुष्प का प्रतिबिम्ब सरोवर के जल में दर्शित हो रहा हो । विहास कमल रूप हुवा और क्रोध मानो उस कमल का प्रतिबिम्ब हो गया और उस मुख से ऐसे अद्भुद व्यंग वचन निकले ॥
जे मानो तुम हार, तो मैं है परिहर करूँ ।
दै सकल समाचार, राम सों भग्न दूत बन ॥
हे सेना पति काल जित, यदि तुम अपनी हार मान लो तो मैं इस घोड़े को छोड़ दूँगा । और श्रीराम चन्द्र जी के सम्मुख युद्ध में हार का सन्देश देने वाले दूत बनकर सारा समाचार कहो ॥
शुक्रवार, ०१ नवम्बर, २ ० १ ३
बचन मह त बल बहुस रिसाही । भुज दंड भीत आहिं कि नाहीं ॥
कहत काल जित काल सुधारें । तनिक काल अरु तव कर धारें ॥
वचनों में तो बहुंत बल टपक रहा है । तुम्हारी भुजाओं में भी यह है कि नहीं है ॥ ऐसा कहते हुवे का जित ने कहा आए हुवे अपने काल को सुधार लो । मैं तुम्हें किंचित और समय देता हूँ ॥
सूना मैं बीर रस मह सानी । तुम्हरी नीति जोगित बानी ॥
सकल ज्ञान रन कौसल लहहूँ । नीति धर्म मैं जानत अहहूँ ॥
हे वीर योद्धा ! मैने तुम्हारी रसों में गूंथी नीतियुक्त वाणी सुनी ॥ मैं सारा ज्ञान, सारा रन कौशल, सारी नीतियाँ और धर्म को जानता हूँ ॥
अरु कहउँ एक बात तव हीते । तव ही सम्मति जो सब रीते ॥
कह अस लव बहु मधुर मुखरिते । श्री प्रद भनन भनिते ॥
और एक बात तुम्हारे हीत की कहता हूँ जो सभी प्रकार से तुम्हारी सम्मति की है ॥ ऐसा कहते हुवे लव बहुंत ही मधुरता पूर्वक मुखरित हुवे विभूषित यह कल्याण कारी कथन कहने लगा ॥
नाम किरत करि नाम न होई । नाम धरन धरि नाम न सोई ।।
भू भुवन भूरि भूति भलाई । कृत करमन करि सो जस पाई ।।
नाम का यशगान करने से यश प्राप्त नहीं होता,किसी यशस्वी का नाम रख लेने भर से कोई यशस्वी नहीं हो जाता ॥ जो अनंत और अनंता की विभूतियों हेतु अतिशय कल्याणकारी कार्य करता है वही यश को प्राप्त होकर अपने नाम की कीर्ति करता है ॥
नाम धरे जित भएसि न बिजिता । जो अरि हराए सोइ रन जिता ॥
काल नाम ते भएसि न काला । काल निज काल जोइ ब्याला ॥
तुमने नाम रखा है जित जिसका अर्थ यह नहीं है तुम युद्ध जित गए जिसने शत्रु को हराया वही युद्ध में रण जित होता है ॥ का नाम होने से का नहीं होते हैं का वही है जो भयंकर है और वह स्वयं काल ही है ॥
भय हीन रह नीचकिन भाला । अइसिहु बिदिया दिए मम पाला ॥
सिरौरतन को काहु न होही । आए कोटि चाहे तव सोई ॥
ऐसी विद्या मेरे पालक ने मुझे दी है, चाहे वीरों के शिरोमणि ही क्यों न हो या तुम्हारे जैसे करोंडो वीर ही सम्मुख क्यों न हों, भय हीन रहो सदैव मस्तक ऊंचा रखो ॥
निज गुरु मात चरन कृपा, धरुँ सिरु सुबरन धूर ।
निसंसअ तिन्ह जानु मैं, तुलित तूल के कूर ॥
अपने गुरु एवं माता के चरणों की कृपा और उनके स्वर्ण सदृश्य धूल को शिरोधार्य कर मैं निसंदेह उन्हें रुई के ढेर मानता हूँ ॥
शनिवार, २४ नवम्बर, २ ० १ ३
श्रुत बाल के बचन उदीरिते । अचरज कारत कहि काल जिते ॥
कान्त कमल छबि भानुमाना । उदीयमान उदरथि समाना ॥
बालक द्वारा वर्णन की गई ऐसी सूक्तियों को सुनकर सेनापति कालजित आश्चर्य चकित होकर कहने लगे । जल की कांती लिए तुम्हारी यह तेजोमयी छवि किसी उदीयमान सूर्य के समान प्रतीत होती है ॥
हे उग्रक तुम को कुल दीपक । तेज तिलक तुम को के धारक ॥
नाम बयस सह को तव थाना । बहुस बिचारि पर मैं न भाना ॥
हे बलवान ! तुम किस कुल के दीपक हो ?हे तेजस्वी ! तुम किस कुल के गौरव ही तथा तुम किसके पुत्र हो ? तुम्हारा स्थान आदि का विचार करने के उपरांत भी मुझे तुम्हारा नाम, अवस्था के साथ तुम्हारे द्वारा राज्य का मुझे नहीं होता ॥
बंस बिटप भव तव को मूला । कहहु त भयउ समर समतूला ॥
तुम पयादिक मैं रथारोही । कहु एहि बयस समर कस सोहीं ॥
तुम किस वंश वृक्ष के उद्भव ही और तुम्हारा मूल को यदि तुम मुझसे कहोगे तो यह युद्ध बराबरी का हो जाएगा ॥ अभी तुम पैदल और मैं चतुरंगी सेना का पति होकर रथा में आरूढ़ित हूँ । कहो तो ऐसी अवस्था में यह युद्ध कैसे
सुशोभित होगा ॥
नाम सील कुल बयस न लहहू । रनी रनक रन कौसल कहहू ॥
हूँ मैं लव अरु मह लव लेसा । अरि भागित कर करुँ फल सेसा ॥
( तब लव ने उत्तर दिया ) हे सेनापति ! नाम, शील, कुल, अवस्थादि पर मत जाओ योद्धा के रन उत्कट और उसके कौशल की कहो ॥ मैं लव हूँ और मैं अल्प समय में ही शत्रु को विभाजित कर उसे अवशेष करने में समर्थ हूँ ॥
आधार अधिकांग, पर धरे गरब तुम्हार ।
लौ कारत तिन भंग, देउँ अबहि सम संग्राम ॥
और यह जो तुम्हारा घमंड है, यह सेना के अंगों पर ही आधारित है ? तो लो मैं इन्हें भंग करते हुवे यह युद्ध समतुल्य किये देता हूँ ॥
सोमवार, ०४ नवम्बर, २ ० १ ३
सेनापति बहु कह समुझाईं । पराधीन सपनेहु सुख नाहीं ॥
हमहु अधीन न अंगीकारी । कहत एहि मुख करक चिंघारी ॥
सेनापति कालजीत ने लव को बहुंत समझाया किन्तु लव ने ऐसा कहते हुवे फटकारते हुवे चिंघाड़ कर कहा कि पराधीनता स्वप्न में भी सुख नहीं देती ( तुम तो प्रकट स्वरुप ) हमें अधीनता स्वीकार्य नहीं है ॥
संग्राम सूर लव बलबाने । गहत धनुर सर गुन संधाने ।
प्रथम जनि पुनि सूरत गुरु नामा । मन ही मन कर तिन्ह प्रनामा ॥
फिर संग्राम में ऐसी वीरता प्रकट करने वाले बलवान लव ने धनुष धारण कर उसकी प्रत्यंचा में बाण चढ़ाया और सर्वप्रथम अपनी माता और फिर अपने गुरु वाल्मीकि का नाम स्मरण करते हुवे मन ही मन उन्हें प्रणाम किया ॥
लगे छाँड़ेसि तेज तेजनक । कोटि क्रमबर करुख मुख सृंगक ॥
काल घटा सम सर छाए गगन । करएँ छनिक मह जो जीवन हन ॥
और फिर क्रमबद्ध स्वरुप में सिंग के समान तीक्षण नोक वाले दिव्य वाणों का प्रहार करना प्राम्भ कर दिया ॥
वे बाण जो तत्काल शत्रु के प्राण हरने वाले थे, वे काली घटा के सदृश्य आकाश में व्याप्त हो गए ॥
तमकि ताकि तिन धारिहि पाला । भींच अधर किए लोचन लाला ॥
दरसत नभ गुन चाप चढ़ाईं । देत परच निज रन चतुराई ॥
उन्हें देख कर सेना पति कालजित बहुंत कुपित हुवे और क्रोध में ही अपने अधरों को भींचते हुवे उनकी आँखों में अरुणाई लिये गगन की ओर देखते हुवे अपने धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाई और अपने रन कौशलता का परिचय देते हुवे : --
कास करन लग बान प्रहारे । किए तिन तिन खन काट बिँधारे ।।
पुनि छन गगन गुन चढ़ि चढ़ि धाए । बेगि लव के उर मुख पर आए ॥
फिर कान तक खिंच के बाणों का प्रहार करते हुवे लव के दिव्य बाणों को तिन तीन खण्डों में काट के सुधार दिए ॥ फिर प्रत्यंचा पर चढ़ कर बाण गगन में दौड़ने लगे और तीव्रता पूर्वक लव के ह्रदय भवन एवं मुख पर आने लगे ॥
आतुर लव तिन छरपन षंडे । करेसि एक एक के सत खंडे ।
बहुरि भयउ रन घमासाना । छाडेसि लउ धनुर अस बाना ॥
लव ने शीघ्रता पूर्वक उन बाण समूह के एक एक बाण को सौ सौ खण्डों में विभाजित कर दिया ॥ लव के धनुष से ऐसे बाण निकले कि फिर उस तपोवन में घमासान युद्ध छिड़ गया ॥
अरु सिय नंदन, लव दल गंजन, कास मुठिका लस्तके ।
बानाष्टकी ,लसे लस्तकी , दलपत अरि तमक तके ॥
बहुरि स्यंदन कियो बिभंजन, तेज प्रहार कारते ।
बिचलित दलपत, छत हतचेतत, गिरयो भूमि आरते ॥
और सीता पुत्र महावीर लव ने धनुष की मूठ को मुष्टिका कसी । धनुष पर अष्टक बाण दिखाई दे रहे थे और वह अपने शत्रु दलपति काल जित को क्रोध पूर्वक देख रहा था फिर उसनेअष्टक बाणों का तेज प्रहार करते हुवे शत्रु के रथ को छिन्न-भिन्न कर दिया ,जिससे दल पति काल जित अस्थिर होकर घायल और व्याकुल अवस्था में घबड़ाहट के साथ रन भूमि पर गिर गया ॥
स्यंदन के भंजन होत, निज बाँकुर के लाए ।
कुंजर सोइ बिराज पुनि ,रन कारन उठि आए ।।
रथ के नष्ट होते ही वह अपने सैनिकों के लाए हाथी पर विराजित होकर फिर से रण करने हेतु उठ खड़ा हुवा ॥
मंगलवार, ०५ नवम्बर, २ ० १ ३
गज पुंगव गति गहे तुरग तर । आनइ दान मद सत धार झर ॥
पाल काल जित दरसत तापर । सकल जयन्त लव लिए धनुरकर ॥
उस गजराज का परिचालन गौरव से परिपूर्ण था किन्तु उसकी गति तीव्र थी और उसके मस्तक से मद की सप्त धार स्त्रावित हो रही थी ॥ सेना पाल को गज ऊपर विराजित देखकर समस्त शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने वाले लव ने फिर हाथ में धनुष लिया : -
बिँधे बिहँस मारे दस बाना । देख पाल मन अचरज माना ॥
बहुरि भयंकर परिघ प्रहारे । रिपुन्ह के जोउ प्रान हारे ॥
और हंसकर दस बाण से प्रहार करते हुवे उसे भेद दिया लव के ऐसे पराक्रम को देखकर सेनापति का चित्त विस्मय से भर गया ॥ फिर उसने प्रतिघात में छड़ जैसे भयानक अस्त्र का प्रहार किया जो शत्रुओं के प्राण हारने के योग्य था ॥
झपट झट लव कृंतन निबारे । आतुर कर धारा धर धारे ॥
छन मह नासे गज के नासा । अस जस नसत को कील कासा ॥
लव ने झपटते हुवे अति शीघ्रता पूर्वक उस अस्त्र को काट कर उसका निवारण कर दिया । और तत्काल ही तलवार धारण कर तत्परता पूर्वक गजपुंगव की लम्बी नासिका को काट कर ऐसे नष्ट कर दिया जैसे कोई प्रकाश स्तम्भ गिरा रहा हो ॥
उदक धान जों धनबन बाढ़ें । दन्त चरन धर सों गज चाढ़े ॥
तँह पत कवच करत सत खंडन । मूर्धन मुकुट किए सहसइ खन ॥
और जैसे बादल आकाश की ऊंचाइयों को स्पर्श करते हैं वैसे ही लव गज के दांतों पर अपने चरण रख कर उसके मस्तक पर चढ़ गया ॥ वहाँ उसने सेनापति कालजित के कवच को सौ खण्डों में विभाजित कर उसके मूर्द्धन्य मुकुट को खंड खंड कर दिया ॥
तज सकल केतु गदाला, कारत कुंजर कूह ।
अनीक पाल बेगि पतत, परे धम्म कर भूह ॥
सूँड़ कटने से वह गजराज अपने सभी सजावट चिन्ह पताक गदाला, छत्र आदि त्याग कर चिंघाड़ उठा । और सेना पति कालजित तीव्रता पूर्वक नीचे आते हुवे धड़ाम की ध्वनी करते, रन भूमि पर गिर पड़े ॥
बुधवार, ०६, नवम्बर, २०१३
गिरत उठत पुनि दलप बिरोधा । दहत गर्भ दहकत प्रतिसोधा ॥
धर धारा बिष जोलाहल जोई । सौंट सरट कोलाहल होई ॥
गिरते ही विरोधी दल का नायक पुन: उठ खड़ा हुवा । फिर क्रोधाग्नि से भर कर वह प्रतिशोध में दहकने लगा ॥ और उसने ज्वाल संयोगित कृपाण धारण कर उसे ऐसे घुमाया कि हवा भी सनसना उठी ॥
सन्मुख आवत लव जब देखे । आतुर दाहिनि भुज खत लेखे ॥
परत घात तरबारिहि हाथे । करत नमन रन भूमि निपाते ॥
जब लव ने उसे अपने सम्मुख आते देखा तब शीघ्रता करते हुवे उसने उस दलपति की कृपाण धारी दाहिनी भुजा घायल कर दिया ॥ यह प्रहार पड़ते ही कृपाण हाथ से छूट कर रन की भूमि को नमन करते हुवा गिर पड़ा ॥
छत प्रकोठ पत दरसत लाजे । कोप क्रम परम पदक बिराजे ॥
पुनि गदगदिकत करतल बाईं । बढ़ि लवघाँ घन गदा उठाईं ॥
घायल प्रकोष्ठ ( कलाई से लेकर कुहनी तक का भाग, पहुंचा ) को देखकर दल नायक लज्जा से भर गए उसका क्षोभ का उपक्रम, चरम स्थान पर विराजित हो गया । फिर उसने हड़बड़ाहट में बाएं हाथ में गदा उठाई और लव की और बढ़ने लगा ॥
ऐतक मह लव छाँड़े बिसिखा । गिरे गदा भू लगत तिख सिखा ॥
गिरयो पाल सकल निर्जूहा । । कारत लव निर्जुगुतिक जूहा ॥
इतने में ही लव ने बाण छोड़े । बाणों के तीक्षण मुख लगते ही वह गदा भूमि में गिर गया ॥ फिर उसके समस्त शिरोभूषण को नीचे गिराते हुवे लव ने फिर सैन्य समूह को युक्ति रहित करते हुवे : --
बहोरि कालानल सरिस, बिकिरत कनिक ज्वाल ।
लिए खड्ग कर किए खत सिस, बन दलपत के काल ॥
चिंगारी छोड़ते हुवे कालाग्नि के सदृश्य कृपाण लेकर उस सेना नायक का काल बनाते हुवे उसके मस्तक को पर घाव कर दिया ॥
सोम /गुरु /शुक्र , २३/०७ /०८ सित/नव , २ ० १ ३
सेनापति कालजीत ने लव को बहुंत समझाया किन्तु लव ने ऐसा कहते हुवे फटकारते हुवे चिंघाड़ कर कहा कि पराधीनता स्वप्न में भी सुख नहीं देती ( तुम तो प्रकट स्वरुप ) हमें अधीनता स्वीकार्य नहीं है ॥
संग्राम सूर लव बलबाने । गहत धनुर सर गुन संधाने ।
प्रथम जनि पुनि सूरत गुरु नामा । मन ही मन कर तिन्ह प्रनामा ॥
फिर संग्राम में ऐसी वीरता प्रकट करने वाले बलवान लव ने धनुष धारण कर उसकी प्रत्यंचा में बाण चढ़ाया और सर्वप्रथम अपनी माता और फिर अपने गुरु वाल्मीकि का नाम स्मरण करते हुवे मन ही मन उन्हें प्रणाम किया ॥
लगे छाँड़ेसि तेज तेजनक । कोटि क्रमबर करुख मुख सृंगक ॥
काल घटा सम सर छाए गगन । करएँ छनिक मह जो जीवन हन ॥
और फिर क्रमबद्ध स्वरुप में सिंग के समान तीक्षण नोक वाले दिव्य वाणों का प्रहार करना प्राम्भ कर दिया ॥
वे बाण जो तत्काल शत्रु के प्राण हरने वाले थे, वे काली घटा के सदृश्य आकाश में व्याप्त हो गए ॥
तमकि ताकि तिन धारिहि पाला । भींच अधर किए लोचन लाला ॥
दरसत नभ गुन चाप चढ़ाईं । देत परच निज रन चतुराई ॥
उन्हें देख कर सेना पति कालजित बहुंत कुपित हुवे और क्रोध में ही अपने अधरों को भींचते हुवे उनकी आँखों में अरुणाई लिये गगन की ओर देखते हुवे अपने धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाई और अपने रन कौशलता का परिचय देते हुवे : --
कास करन लग बान प्रहारे । किए तिन तिन खन काट बिँधारे ।।
पुनि छन गगन गुन चढ़ि चढ़ि धाए । बेगि लव के उर मुख पर आए ॥
फिर कान तक खिंच के बाणों का प्रहार करते हुवे लव के दिव्य बाणों को तिन तीन खण्डों में काट के सुधार दिए ॥ फिर प्रत्यंचा पर चढ़ कर बाण गगन में दौड़ने लगे और तीव्रता पूर्वक लव के ह्रदय भवन एवं मुख पर आने लगे ॥
आतुर लव तिन छरपन षंडे । करेसि एक एक के सत खंडे ।
बहुरि भयउ रन घमासाना । छाडेसि लउ धनुर अस बाना ॥
लव ने शीघ्रता पूर्वक उन बाण समूह के एक एक बाण को सौ सौ खण्डों में विभाजित कर दिया ॥ लव के धनुष से ऐसे बाण निकले कि फिर उस तपोवन में घमासान युद्ध छिड़ गया ॥
अरु सिय नंदन, लव दल गंजन, कास मुठिका लस्तके ।
बानाष्टकी ,लसे लस्तकी , दलपत अरि तमक तके ॥
बहुरि स्यंदन कियो बिभंजन, तेज प्रहार कारते ।
बिचलित दलपत, छत हतचेतत, गिरयो भूमि आरते ॥
और सीता पुत्र महावीर लव ने धनुष की मूठ को मुष्टिका कसी । धनुष पर अष्टक बाण दिखाई दे रहे थे और वह अपने शत्रु दलपति काल जित को क्रोध पूर्वक देख रहा था फिर उसनेअष्टक बाणों का तेज प्रहार करते हुवे शत्रु के रथ को छिन्न-भिन्न कर दिया ,जिससे दल पति काल जित अस्थिर होकर घायल और व्याकुल अवस्था में घबड़ाहट के साथ रन भूमि पर गिर गया ॥
स्यंदन के भंजन होत, निज बाँकुर के लाए ।
कुंजर सोइ बिराज पुनि ,रन कारन उठि आए ।।
रथ के नष्ट होते ही वह अपने सैनिकों के लाए हाथी पर विराजित होकर फिर से रण करने हेतु उठ खड़ा हुवा ॥
मंगलवार, ०५ नवम्बर, २ ० १ ३
गज पुंगव गति गहे तुरग तर । आनइ दान मद सत धार झर ॥
पाल काल जित दरसत तापर । सकल जयन्त लव लिए धनुरकर ॥
उस गजराज का परिचालन गौरव से परिपूर्ण था किन्तु उसकी गति तीव्र थी और उसके मस्तक से मद की सप्त धार स्त्रावित हो रही थी ॥ सेना पाल को गज ऊपर विराजित देखकर समस्त शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने वाले लव ने फिर हाथ में धनुष लिया : -
बिँधे बिहँस मारे दस बाना । देख पाल मन अचरज माना ॥
बहुरि भयंकर परिघ प्रहारे । रिपुन्ह के जोउ प्रान हारे ॥
और हंसकर दस बाण से प्रहार करते हुवे उसे भेद दिया लव के ऐसे पराक्रम को देखकर सेनापति का चित्त विस्मय से भर गया ॥ फिर उसने प्रतिघात में छड़ जैसे भयानक अस्त्र का प्रहार किया जो शत्रुओं के प्राण हारने के योग्य था ॥
झपट झट लव कृंतन निबारे । आतुर कर धारा धर धारे ॥
छन मह नासे गज के नासा । अस जस नसत को कील कासा ॥
लव ने झपटते हुवे अति शीघ्रता पूर्वक उस अस्त्र को काट कर उसका निवारण कर दिया । और तत्काल ही तलवार धारण कर तत्परता पूर्वक गजपुंगव की लम्बी नासिका को काट कर ऐसे नष्ट कर दिया जैसे कोई प्रकाश स्तम्भ गिरा रहा हो ॥
उदक धान जों धनबन बाढ़ें । दन्त चरन धर सों गज चाढ़े ॥
तँह पत कवच करत सत खंडन । मूर्धन मुकुट किए सहसइ खन ॥
और जैसे बादल आकाश की ऊंचाइयों को स्पर्श करते हैं वैसे ही लव गज के दांतों पर अपने चरण रख कर उसके मस्तक पर चढ़ गया ॥ वहाँ उसने सेनापति कालजित के कवच को सौ खण्डों में विभाजित कर उसके मूर्द्धन्य मुकुट को खंड खंड कर दिया ॥
तज सकल केतु गदाला, कारत कुंजर कूह ।
अनीक पाल बेगि पतत, परे धम्म कर भूह ॥
सूँड़ कटने से वह गजराज अपने सभी सजावट चिन्ह पताक गदाला, छत्र आदि त्याग कर चिंघाड़ उठा । और सेना पति कालजित तीव्रता पूर्वक नीचे आते हुवे धड़ाम की ध्वनी करते, रन भूमि पर गिर पड़े ॥
बुधवार, ०६, नवम्बर, २०१३
गिरत उठत पुनि दलप बिरोधा । दहत गर्भ दहकत प्रतिसोधा ॥
धर धारा बिष जोलाहल जोई । सौंट सरट कोलाहल होई ॥
गिरते ही विरोधी दल का नायक पुन: उठ खड़ा हुवा । फिर क्रोधाग्नि से भर कर वह प्रतिशोध में दहकने लगा ॥ और उसने ज्वाल संयोगित कृपाण धारण कर उसे ऐसे घुमाया कि हवा भी सनसना उठी ॥
सन्मुख आवत लव जब देखे । आतुर दाहिनि भुज खत लेखे ॥
परत घात तरबारिहि हाथे । करत नमन रन भूमि निपाते ॥
जब लव ने उसे अपने सम्मुख आते देखा तब शीघ्रता करते हुवे उसने उस दलपति की कृपाण धारी दाहिनी भुजा घायल कर दिया ॥ यह प्रहार पड़ते ही कृपाण हाथ से छूट कर रन की भूमि को नमन करते हुवा गिर पड़ा ॥
छत प्रकोठ पत दरसत लाजे । कोप क्रम परम पदक बिराजे ॥
पुनि गदगदिकत करतल बाईं । बढ़ि लवघाँ घन गदा उठाईं ॥
घायल प्रकोष्ठ ( कलाई से लेकर कुहनी तक का भाग, पहुंचा ) को देखकर दल नायक लज्जा से भर गए उसका क्षोभ का उपक्रम, चरम स्थान पर विराजित हो गया । फिर उसने हड़बड़ाहट में बाएं हाथ में गदा उठाई और लव की और बढ़ने लगा ॥
ऐतक मह लव छाँड़े बिसिखा । गिरे गदा भू लगत तिख सिखा ॥
गिरयो पाल सकल निर्जूहा । । कारत लव निर्जुगुतिक जूहा ॥
इतने में ही लव ने बाण छोड़े । बाणों के तीक्षण मुख लगते ही वह गदा भूमि में गिर गया ॥ फिर उसके समस्त शिरोभूषण को नीचे गिराते हुवे लव ने फिर सैन्य समूह को युक्ति रहित करते हुवे : --
बहोरि कालानल सरिस, बिकिरत कनिक ज्वाल ।
लिए खड्ग कर किए खत सिस, बन दलपत के काल ॥
चिंगारी छोड़ते हुवे कालाग्नि के सदृश्य कृपाण लेकर उस सेना नायक का काल बनाते हुवे उसके मस्तक को पर घाव कर दिया ॥
सोम /गुरु /शुक्र , २३/०७ /०८ सित/नव , २ ० १ ३
नायक जब मरना सन्न पाए । भट महा हाहाकार मचाए ॥
छिनु भर मह रिसियावत गाढ़े । करन काल लव आगिन बाढ़े ॥
जब सेना कि उस टुकड़ी ने अपने सेना पति को मरणासन्न पाया । तब सैनिकों के मध्य अतिशय चीख पुकार मच गयी ॥ लव के प्रति उनका क्षोभ क्षण भर में इतना अधिक हो गया कि वह लव का काल करने हेतु आगे बढ़ आए ॥
लखत तिन्ह लव लखहन भेदे । बाढ़े चरनन पाछिन खेदे ॥
जब सेना कि उस टुकड़ी ने अपने सेना पति को मरणासन्न पाया । तब सैनिकों के मध्य अतिशय चीख पुकार मच गयी ॥ लव के प्रति उनका क्षोभ क्षण भर में इतना अधिक हो गया कि वह लव का काल करने हेतु आगे बढ़ आए ॥
लखत तिन्ह लव लखहन भेदे । बाढ़े चरनन पाछिन खेदे ॥
करत सैन पत हत सर लागे । दीठ पीठ कर सैनिक भागे ॥
उनका लक्ष्य करते हुवे फिर लव ने उन्हें बाणों से भेद दिया और उनके आगे की और बढे चरणों को पीछे खदेड़ दिया ॥ वे सारे बाण सैनिकों के सर में लग कर उन्हें घायल करते हुवे निकल रहे थे उनके भय से सारे सैनिक युद्ध भूमि में पीठ दिखाकर भागने लगे ॥
डरपत कम्पत ऐसेउ धाए । दरस धाए जस प्रिया बनराए ॥
केतक भए छत सोई कूरे । केतक भूमहि अंतर भूरे ॥
वे भयभीत हो कांपते हुवे ऐसे दौड़ रहे थे जैसे वन में शेर को देखकर साँभर हिरन दौड़ता है ॥ कितने ही सैनिक घायल होकर वहीँ ढेर हो गए । कई तो अपने एवं विरोधी दल के राजा का अंतर करना ही भूल गए ॥
त्राहि त्राही कह हे गोसाईं । मुखर बान कहि कहु कँह जाईं ॥
पाहि पाहि कह सकल पराने । पाछु फनिस सम सायक आने ॥
और लव से ही जाकर कहने लगे हे स्वामी हमारी रक्षा करो किन्तु लव के बाण जो मुखरित थे कहने लगे कहो कैसे करें ॥ पुन: वे रक्षा करो ! हमारी रक्षा करो! ऐसा कह कर सारे भागते और सर्प के समान बाण उनका पीछा करते ॥
अगाउनी अवाइ अनी, छीत पाछिन धकियाए ।
उछाहु पूरित परिचरत, लव माझिन पैठाए ॥
(इस प्रकार) आगे आई सेना को लव ने चित्रित कर पीछे की और धकेल दिया और उत्साह पूर्वक विचरण करता हुवा वह उस सेना के बीच में जा घुसा ॥
मारे पुनि एक एक चिन्ही के । चरन करन कर नक् किन्ही के ॥
को के कवच त को के कुंडल । काटत किए छीतीछान सकल ॥
फिर तो एक एक सैनिक को चिन्ह चिन्ह के चोटिल करते हुवे किसी का पैर, किसी का कान किसी का हाथ किसी की नासिका काटते हुवे किसी का कवच तो किसी का कुंडल को छिन्न भिन्न करते हुवे उन्हें छतवत का दिया ॥
एहि बिधि दल पत होत हताहत । मर्कट कटक लहे बहु दुर्गत ॥
सकल सुभट दल लव अस छीते । पात पवन जस घन छितरीते ॥
इस प्रकार अपने प्रणेता के हताहत होते ही मरती कटती हुई सेना,अतिशय ही दुगति को प्राप्त हुई ॥ लव के द्वारा सारी सेना ऐसे तितिर-बितिर हो जैसे वायु के पाप्त होने से मेघ छिन्न-भिन्न हो जाते हैं ।।
मर्कट मर्दत रिपु समुदाई । ते चरन लव जयंत कहाई ॥
चेत अचल पथ लोचन जोरे । दूजन भट अगवान अगोरे ॥
शत्रु समूह को मार-काट कर मसलते हुवे युद्ध के उस चरण में लव विजयी घोषित हुवे, औ फिर वह सावधान होकर पथ पर आखें लगाए और दूसरे सैनिकों के आने की बाट जोहने लगे ॥
भाग बस भाग जोई कोई । जोइ संग्राम प्रान सँजोई ॥
तेहिहि भए दल भंजन दूते ॥ बरने बिबरन सत्रुहन हूते ॥
जो कोई उस संग्राम से भागा और भाग्यवश अपने प्राणों की रक्षा करने में सफल हुवा । शत्रुध्न के बुलाने पर वे ही उस चरण की हार के दूत बने और उन्हें युद्ध की सारी घटना -विवरण का दिया ॥
बलिन दलपत छतबत किन, का एक बाल किसोर ।
एतक अपूरब कौसल, किए भट सकल बहोर ॥
क्या एक बाल किशोर ने महाबली दलपति कालजित को हताहत कर दिया ?उसका रन कौशल इतना अद्वितीय है कि सारे वीर सैनिकों को दृष्ट-पृष्ठ कर दिया ?
श्रवन भटन्ह बिसमइ लहाऊ । सत्रुहन मुख अस कथन कहाऊ ॥
तिन बय बदन भाव अस ग्राही । जस काटो तौ रुधिरहु नाहीं ॥
सैनिकों के वचनों को सुनकर राजा शत्रुध्न इस प्रकार से विस्मय को प्राप्त हुवे मुख से ऐसी कहवाते कहीं ॥ उस दशा में मुखानन ने ऐसे भाव ग्रहण कर लिए जैसे की काटों तो उनमें रक्त ही न हो ॥
भए चितबत भट बोले सोही । का तुहरी मति भ्रामक होही ॥
कहु तो घेरिहि को माया । कारत कपट के छंद छाया ॥
वह स्तब्ध हुवे सैनिक से बोले कया तुम्हारी बुद्धि विभ्रमित हो गई है कहो तो छल कपट की प्रतिछाया कर इसे किसी मोह कारिणी शक्ति ने घेर लिया है ?
सोइ मरनासन्न कस होई । जम हुँतेहु दुर्धर्षा जोई ॥
तिन एकै बाल बिजिते कैसे । जोइ आपहि काल हो जैसे ॥
वह मरणासन्न कैसे हो सकता है जो यम के द्वारा भी दुर्धर्ष हो ॥ उसे एक ही बा किशोर ने कैसे पराजित कर दिया ? जो सवमेव में ही काल स्वरुप है ॥
श्रुतत सुभट सत्रुहन के भाषन । रक्त करबीर किए अस वादन ॥
ना हमको को माया घेरी । ना हम किन्ही के उत्प्रेरी ।।
शत्रुधन का ऐसा भाषण सुनकर रुधिर से सने लाल कनेर से दर्शित होते उन वीर सैनिकों ने फिर ऐसा कहा : -- हे राजन ! न तो हमें किसी मोह कारिणी शक्ति ने ही घेरा है, और न ही हैम किसी के उत्प्रेरित ही हैं ॥
हे राउ अहहै हम पर, तव प्रतीत की सौंह ।
जोउ दरसे जेइ नयन, कहे जोंह के तोंह ॥
हे राजन ! हमको तुम्हारे विश्वास की सौगंध है इन आँखों ने जो कुछ भी देखा, वह हमने यथावत कह सुनाया ॥
शनिवार, ०९ नवम्बर, २ ० १ ३
नाहि हमहि घेरी को माया । नाहि छलाइ हमहि को छाया ॥
अहहैं साँच जे लव के कृते । भएउ हताहत जो कालजिते ॥
न तो हमें किसी मोहकारिणी शक्ति ने घेरा है न हमें किसी कपट की छाया ने छला है ॥ कालजित का हताहत हो गए हैं,यह सत्य है, और यह सब लव की ही करनी है ॥
अप्रतिम अतुल तासु रन कौसल । बाहु सिखर मह धरि केसरि बल ॥
बिलनी जस बिलगइ महि माखन । भई कटक तस तिन हुँत मंथन ॥
उसका रन कौशल ? अदर्शनीय, अतुलनीय उसके कंधों में तो सिंह का बल है और जैसे बिलौनी छाछ और दधिसार को मथ कर वियोजित कर देती है । वैसे ही उसके द्वारा सारी सेना मथी गई ॥
ताहि परत बहु सोच बिचारे । हे नाथ अब जोइ कछु कारें ॥
सत्रुध्न मति बोधइ तत्काला । ए नहि कोउ साधारन बाला ॥
इसके पश्चात हे स्वामी ! अब आप जो कुछ नीति अपनाएं उसकी भली पकार से समीक्षा कर लें ॥शत्रुध्न को तत्काल ही यह ज्ञात हो गया कि वह कोई साधारण बालक नहीं है ॥
सुनि भट सत्रुहन रिपु रन जूझे । सुबुध सचिव सुमतिहि सौं बूझे ॥
तुम भानत तिन बाल ब्याजी । जोइ अपहरइँ हमरे बाजी ॥
सैनिकों को सुनाने के पश्चात शत्रु से लोहा लेने के लिए उनहोने अपने श्रेष्ठ बुद्धिवाले मंत्री सुमति से परामर्श करते हुवे पूछा : -- जिसने हमारे यज्ञ के अश्व का हरण किया है क्या तुम्हें उस दुष्ट बालक का कुछ भान है ?
रहि जो आपी आपइ काला । जलधि उदधि के सरिस बिसाला ॥
सोइ कटक के कारत नासे । कियो तासु कर जूथ बिनासे ॥
जो अति बलवान एवं स्वयं ही में काल है । और जो जल के आकर समुद्र के समान विशाल है ॥ उसने उस सेना का विनाश करते हुवे समस्त वीर सैनिक समूहों को नष्ट का दिया ॥
कही सुमति जे बिनइ बचन, हे मम नाथ नरेस ॥
सोइ मुनि बाल्मीकि के, तपो भूमि बन देस ॥
फिर श्रेष्ठ मंत्री सुमति ने यह विनयी वचन कहे । हे मेरे स्वामी ! हे नरेश ! वह स्थान मुनिवर वाल्मीकि का तपोवन है एवं वह भूमि उनकी तपोभूमि है ॥
रविवार, १० नवम्बर, २ ० १ ३
तहाँ बटु मुनिगन बासत आहिं । छत्र धरमन तँह निबासत नाहिं ॥
कही सोइ सुरनाथ त नाहीं ।पहिले तव जस संसय आहीं ॥
वहाँ ब्रह्माचारी बालक एवं मुनि गण वास करते हैं । वहाँ क्षत्रिय धर्मी निवास नहीं करते ।। वह वीर बालक सुरपति इंद्र तो नहीं जैसे पहले आपको संदेह हुवा था ॥
अरु ते उर मह अमर्ष धारे । अश्व मेध अपहारित कारें ॥
भा गिरिजा पत सम्भुहु संकर । प्रगसे जे तँह बाल भेष धर ॥
और उन्होंने ह्रदय में कोढ़ धारण का उनहोंने ही उस मेध के अश्व का हरण किया हो ॥ या वह गिरिजा पति शंकर शम्भू ने तो वह अश्व हरण किया हो जो वहाँ बाल स्वरुप में प्रकट हुवे हों (ऐसा कहा मंत्री सुमति ने झूठ-मूठ का भय दिखाया ) ॥
बहोरि दूजन को अस अहहीं । जो हमरे है हरनन सकहीँ ॥
मम सम्मति अब आपहिं गवनै । बीर सुभट सब राजन लवनै ॥
फिर दुसरा ऐसा कौन हो सकता है जो हमारे अर्थात सूर्य वंशी रघुकुल राजा रामचंद्र जी के अश्व को हरण करने में समर्थ है ॥ मेरे विचार से सभी वीर योद्धाओं एवं समस्त राजाओं को साथ ले जा कर अब युद्ध भूमि में आपको ही उतरना चाहिए ॥
जोइ संजोइ सकल सनाहे । भाल धनुर सर सह प्रतिनाहे ॥
औरु लिए संग सैन बिसाला । अधिकम करत करैं रिपु काला ॥
युद्ध सामग्रियों से सुसज्जित, समस्त रक्षा साधन ,तीर धनुष सहित समस्त चिन्हों से युक्त उस विशाल सेना को साथ ले अब आपको स्वयं ही शत्रु पर चढ़ाई कर उसका अंत कर देना चाहिए ॥
आप स्वमेव छेदनहारे । गत तिन बलबन बंधन कारें ॥
पुनि मैं रघुबर तहँ लेजाउब । तव रन के कौतुक देखाउब ॥
हे राजन आप तो स्वमेव में शत्रु का उच्छेद करने वाले हैं । युद्ध भूमि में जाकर आप उस बलवान बालक को बाँध कर लाने में भी समर्थ हैं ( अत: आप वहाँ प्रस्थान कीजिए) फिर मैं रघुबर को वहाँ ले जाकर ,आपके युद्ध का सारा कौतुक दिखाऊंगा ॥
सुन सचिव बचन बहुरी सत्रुहन कहत भट अनी लहनौ ॥
कलित सनाहा सह प्रतिनाहा सकल रन भू गवनौ ॥
तुम चलु आगिन अरु मैं पाछिन आवउँ तुम्ह संगिने ।
बली बाहु लहित बहु गरब सहित चलि कटक चतुरंगिने ॥
सचिव के इस प्रकार के वचन सुनकर फिर शत्रुध्न ने योद्धाओं को आदेश दिया कि सेना लो समस्त चिन्हों को एवं क्शा कवचों से युक्त होकर रन भूमि में प्रस्थान करो ॥ तुम आगे आगे चलो मैं पीछे पीछे तुम्हारे साथ ही आ रहा हूँ । फिर बाहुबलियों को ले कर बहुंत ही गर्वान्वित होकर वह चतुरंगिणी सेना युद्ध भूमि की और चल पड़ी ॥
परबत सरिस बीर सुभट, अनी पयोधि समान ।
दरस तिन आवत सों लव, ताकि सिंह के मान ।
उसके वीर योद्धा पर्वत के सरिस थे और वह सेना समुदा की भाँती दर्शित हो रही थी । ऐसी सेना को अपने सम्मुख आते देख लव उसे हिरणों का समूह समझ कर, सिंह के समान ताकने लगे ॥
सोमवार, ११ नवम्बर, २ ० १ ३
पास पीठ मुख परिकर कारे । लव के चहुँ पुर घेरा डारे ॥
दरस तिन्ह अरु कोटर लोले । पलक अली बहु फरकत दोले ॥
फिर सेना के पार्श्व, पृष्ठ एवं अग्र भाग ने घूर्णन करके लव के चारों और घेरा डाल दिया ॥ उन्हें देखकर लव की आँखों की पुतलियाँ चंचल हो गई पळकावली अत्यंत कम्पन करती हुई दोलायमान हो उठी ॥
लव घेरे अस दरसत लाहू । सुभट हिरन सम सो बन नाहू ॥
जलित अनल सम हैलत हूते । लगे करन तिन भस्मी भूते ॥
लव का वह सैन्य परिच्छद इस प्रकार के दृश्य को प्राप्त हुवा जैसे कि वह कोई वन राज है ,औ सैनिक हिरणों से घिरा हुवा है ॥ फिर लव उन्हें ललकारते एव उनपर आक्रमण करते हुवे अग्नि ज्वाल के समान उन्हें भस्मीभूत करने लगे ॥
किन्ही के धारा धर सारे । घाउ करत तन चाम उघारे ॥
किन्ही के कर सर संधाने । मर्म भेद किए मरनी माने ॥
कृपाण प्रहार कर किसी की घायल करते हुवे शरीर की चमड़ी उखाड़ दी ॥ किन्ही को हाथमें धनुष चढ़ा कर जीवन स्थान अर्थात ह्रदय एवं शीश को भेद कर मरे के समान कर दिया ॥
नाना बर आजुध लीन्हि के । सार सकल किए हत चीन्हि के ॥
लखित चहुँ पुर सैन परिछेदे । काटत ब्यूह भाँवर भेदे ॥
फिर विभिन्न प्रकार के आयुध धारण कर एक एक को चिन्हित कर प्रहार करना आरम्भ किया । फिर सैनिकों के चारों और के चक्रों को लक्षित कर उनके समूह रचना को काटते हुवे सातों घेरों को छिन्न-भिन्न करने लगे ॥
पहिलै सह प्रासे, गंड गँडासे, भांवर भंजन कारी ।
दूज बहु बिसाला, धरी कर कुंत किए छतबत छतनारी ॥
तीजे किए भंजन पट्टिष परिघन, आजुध भुज धारी ।
सेष अनुरूप अगनै, बिसिखा लग्ने, भग्नै बारी बारी ॥
पाहिले घेरे को भाले, एवं मण्डलाकार फरसे से विभंजित किया । बरछी धारण कर फिर दूसरे विशाल चक्र के सैनिकों को घायल करते हुवे बिखरा दिया॥ फिर भुजा में पट्टिष(एक प्राचीन शस्त्र) एवं परिघ आयुध को धारण कर तीसरे चक्र को भंजित किया । फिर शेष चक्रों को अग्नि के अनुरूप बाणों के लगने से कमश: विभंजित हो गए ॥
चतुरंग चक्र ब्यूह , भेद सियपुत अस दरसे ।
धनबन मेघ समूह, जस पयस मयूख निकसे ॥
उस चतुरंगिणी सेना के चक्र समूह को भेद कर लव ऐसे दर्श रहे थे, जैसे आकाश में मेघ समूह से मुक्त होकर चंद्रमा निकल आया हो ॥
मंगलवार, १२ नवम्बर, २ ० १ ३
त्राहि मम त्राहि चहुँ दिसि छाई । भूरिहि बीर भए धरासाई ॥
लाख लखहा मुख लागन भागे । सकल भट बिमुख आगिन आगे ॥
(उनके बाणों से के मुख से )रक्षा प्रभु ! हमारी रक्षा करो प्रभु !! ऐसी ध्वनी चारों दिशाओं में व्याप्त हो गई ॥ बहुंत से वीर धराशाई हो गए । सारे सैनिक बाणों के विमुख हो आगे भागते, बाण उन्हें विदारित करने हेतु पीछ पीछे दौड़ें ॥
बीर पुष्कल देखि यहु दरसन । अगुसार भए समर मूर्धन ॥
लोचन मह भर रोख बहूँते । ठाढ़ौ ठाढ़ौ कह लव हूँते ॥
वीर योद्धा पुष्कल ने जब ऐसा दृश्य देखा । तब वे आगे आए और उस युद्ध के प्रमुख बने ॥ आँखों में अत्यधिक क्रोध भरे वे 'खड़ा रह ' 'खड़ा रह' कहकर फिर वह लव को हक्कारने लगे ॥
जब सुत तिन्ह निकट ले आयो । देख दसा लव अस समझायो ॥
बीर सुनौ सुसोहित बर बाहि । एक सुठि स्यंदन मैं तव दाहिं ॥
जब उनका सारथी उन्हें लव के निकट ले आया तब लव की दशा देखकर वे उसे इस प्रकार समझाने लगे ॥ हे वीर! सुनो मैं तुम्हे श्रेष्ठ अश्व से सुशोभित एक सुन्दर युद्ध रथ प्रदान करता हूँ ॥
तुम्ह पयाद मैं रथारोही । तुहरे सन कहु रन कस होही ॥
पहले भय दुहु पत एक सौंहे । बहुरि परस्पर जोधन होहे ॥
(क्योंकि ) तुम पदाधिका हो और मैं रथ में आरोहित हूँ । कहो तो तुम्हारे साथ यह युद्ध किस प्रकार शोभा देगा ॥ पहले दोनों की प्रतिष्ठा एक समान हो जाए फिर दोनों एक दूसरे से युद्ध करेंगे ॥
सुनु मोरि बलबान, मम कर अस तव हत न होइ ।
तुम न रथ न पद त्रान, एहि बय रन बिजय न लोइ ॥
हे बलवान ! मेरी बात सुनो, तुम जिस दशा में हो ऐसे तो मेरे हाथ से तुम्हारा हनन नहीं होगा । तुम रथहिन् हो , तुम्हारे तो चरणों में त्राण भी नहीं है, ऐसी अवस्था में मेरी विजय कैसे शोभित होगी ॥
बुधवार, १३ नवम्बर, २ ० १ ३
सोइ पल पुष्कल सकुचइँ कैसे । बीरबर कालजित के जैसे ॥
श्रवनत सियपुत तिनके भाषन । देवत उतरु बोले अस बचन ॥
उस पल पुष्का कैसे संकोच कर रहे थे?जैसे महा बलवान सुरथ ॥ पुष्कल के भाषण को सुनकर, सिया पुत्र लव ने उसका उत्तर देते हुवे ऐसे वचन कहे : --
जो मैं तव दायक रथ धरहूँ । तापर राजत जदि रन करहूँ ॥
वाके पातक लागहिं मोही । अरु जय पावन संसय होहीं ॥
हे वीर पुष्कल ! यदि मैं तुम्हारे दान के रथ को धारण कर उसपर विराजित होकर युद्ध करता हूँ ॥ तो मुझे उस पाप का दोष लगेगा और मेरे निमित्त विजय संदेहास्पद हो जाएगी ॥
हम छत्र धर्म न को भुँइ देवा । किये हमहि दान पुनि सेवा ॥
दहत गर्भ पुनि लव कर दापे । करइ भंज पुष्कल बार चापे ॥
हम (दोनों भाई) क्षत्रिय धर्म का पालन करने वाले हैं । वेद पाठी ब्राह्मण नहीं है ॥ अत: हम दान ग्रहण नहीं करते अपितु स्वयं ही प्रतिदिन दान, पुण्य सेवा करते हैं ॥
किए रथ खंड जब हँसत हाँसे । तब पुष्कल मुख अचरज लासे ॥
आजुध बिहिन धनुर रथ भंगा । चाढ़े लव पर धार निषंगा ॥
और जब लव ने हंसी करते हुवे रथ को खंडित कर दिया । तब पुष्कल क मुख पर अचरज विलास करने लगा ॥ वह आयुध विहीन एवं भंजित धनुष-रथ के ही केवा तुणीर हाथ में लिए लव पर चढ़ बैठा ॥
श्री राम सिया कुँवर कासिकर । कटि तरौंस बर पीतम परिकर ।।
तूनि तूनीर तीर निकारे । फनिक सरिस सिख तीख बिष घारे ॥
श्री रामचंद्र एवं श्री जानकी जी के कुमार लव ने फिर कटी के तट पर फेरे हुवे पीतम वस्त्रों में कसा तुणीर में से तुरंत ही तीर निकाला जो सर्प के सरिश्य तीक्ष्ण विष ग्रहण किये हुवे था ॥
त्रासिन तेजस तेजनक, धनु सार संधाए ।
तरत गुन सनासन करत, पुष्कल त्रस बिंधाए ॥
उस पीड़ा देने वाले दिव्य बाण को फिर धनुष में संधान किया जो उससे उतर कर सन-सन करता हुवा पुष्कल के ह्रदय में समाहित हो गया ॥
गुरूवार, १ ४ नवम्बर, २ ० १३
अरु सोइ महाबीर सिरुमने । निपतित भुँइ पाइ मुरुछा घने ॥
देखि बीर पुष्कल मुरुछाई । पवन तनय तिन तुरत उठाईं ॥
फिर वह शिरोमणि महावीर भूमि पर गिरा और मूर्छा को पाप्त हो गया ॥ पुष्कल की अचेतना को देखकर पवन पुत्र हनुमान ने उसे तत्काल ही उठाया : --
भुज अंतर कर तिनके गाता । किए अर्पन रघुबर लघु भ्राता ॥
दुःख भर शत्रुहन ताहि बिलोका । स्याम बदन छाए घन सोका ॥
और उसक शरीर को अंकवार करते हुवे, रघुवीर के लघुत्तम ब्राता शत्रुधन को अर्पित किया ॥ उसे ऐसी अवस्था में देखके शत्रुध्न अत्यंत दुखी हो उठे उनकी श्यामल मुखाकृति पर जैसे शोक के बादल छा गए ॥
सोचे रिपु रन कुसल निबारे । सकल बलसील भट हत कारे ॥
पाए अधोगत कटक मनोबल । भयउ हताहत दलपत पुष्कल ॥
वह ऐसा विचार लिया कि रन में चातुर्य शत्रु ने समस्त बलशील सैनिकों को छतवंत करते हुवे उन्हेंरण क्षेत्र से हटा दिया है । और दलपति वीर पुष्कल के हताहत होने से सेना का मनोबल गिर गया है ॥
हतास्वासश्रय सिरु नायो । का करैं अजहुँ समुझि न पायो ॥
छनि होरत सत्रुहन कछु लेखे । पुनि पवपुत हनुमत मुख देखे ॥
वह निराशा के आश्रय होकर फिर उन्होंने अपना सिर झुका लिया ,आगे कौन सी नीति अपनाई जाए उन्हें यह समझ नहीं आया । वे थोड़ा रूके और कुछ मंथन किया, फिर वायु नंदन हनुमान का मुख देखें लगे ॥
सत्रुहन नैन मुखरित भए, बानी बनि संकेत ।
पवन तनय लिए गदा धर, चरि उतरन रन खेत ॥
शत्रुध्न की आँखें मुखरित हो उठीं । और संकेत वाणी हो गई । पवन तनय संकेत समझ गए, गदा उठाए और रन क्षेत्र में अवतरण हेतु प्रस्थान किये ॥
फरकत बजरागी अंग, प्रनदत किए घन नाद ।
गहु पुरब प्रसरे प्रसंग, तिनके परच प्रसाद ॥
महाबली हनुमान के अंग भी फड़कने लगे और वे घन नाद के सदृश्य गर्जना करने लगे । इससे पूर्व की यह प्रसंग आगे बढे महाबली बजरंग का परिचय-प्रसाद ग्रहण करते चलें ॥
गुरूवार २६ सितम्बर, २ ० १ ३
तरु मृग मारुत सुत हनुमंता । किए जे पयोधि पार तुरंता ॥
बर कबहुक लघु रूप रचाईं । पठतइ निकसे मुख सुरसाईं ॥
मारुती नंदन वीर वानर हनुमान जिन्होंने अपार जलधि को तत्परता से पार कर दिया था ॥ कभी बृहद तो कभी लघु रूप धारण कर सुरसा के मुख में प्रवेश करते ही जो बाहर निकल आए थे ॥
पुनि परबत मह इंद्र उछंगे । पाट पयधि सत जोजन लंघे ॥
जामि घोष जाजाबर केरे । जामिन जब लंका पुर घेरे ॥
फिर हनुमान ने महेंद्र पर्वत से छलांग लगा का समुद्र के उस विस्तार को सौ योजनों तक लांघा ॥ रात्रि ने लंका पूरी को घेर लिया, प्रहरी घूम घूम कर समय की घोषणा कर रहा था ॥
कनक कोट के चमक चकासे । हट बट चौहट नगर निकासे ।
सैल सरि सर लंका बनबारि। चितेर अवकास कर दिए लंकारि ॥
हाट,पथ चौपथ नगर का निकास स्थान , स्वर्ण किले की कांति सब विकीर्णित हो रहे थे । लंका के पर्वत सरोवर सरिता वाटिकाएं आदि मानो चित्रकार ने अवकाश प्राप्त कर रची हों ॥
समर सूर गन घर घर हेरे । राम बोधिते आँगन घेरे ॥
प्रभु प्रिय सिय उपबन रह जहवाँ । मसक सरिस रूप गवने तहवाँ ॥ बैसत तरुबर मुँदरी डारी । राम नाम बर अंकित कारी ॥
और प्रभु श्रीराम चन्द्र की प्यारी माता सीता जिस वाटिका में रहती थी, पवन पुत्र हनुमान मशक का स्वरुप रचा कर फिर वहाँ गए ॥ वे एक श्रेष्ठ वृक्ष में बैठ गए और वहाँ से उन्होंने एक मुद्रिका गिराई जो प्रभु श्री राम के नाम से चिन्हांकित थी ॥
बैसि सिया बन बदन बिसादे । धरनी मुद्रिका धातु निनादे ॥
नाम राम दुइ आखर उपबन । करन लगे संवाद सिया सन ॥
माता सीता मुख पर विषाद-वदन से युक्त होकर बैठी थीं । तभी धरणी पर मुद्रिका धातु निन्दित हो उठे । राम नाम के दो अक्षर उस वाटिका में माता के साथ संवाद करने लगे ॥
प्रभु अंकन सिय जब पहचाने । आवै तब सौमुख हनुमाने ॥
मैं राम दूत कहि हे माता । तुहरे हमरे जनि सुत नाते ॥
( उस मुद्रिका को उठाकर ) जब माता सीता प्रभु के मुद्रांकन से परिचित हुई तब वीर बजरंग बली उनके सम्मुख आए और बोले हे माता ! मैं प्रभु श्री राम का दूत हूँ एवं आपका मेरा सुसंबंध, माता-एवं पुत्र का है ॥
पुनि कर जोर निज श्री मुख, किये राम गुन गान ।
कहत हरत मात के दुःख, तव हेरन मैं आन ॥
फिर हनुमान ने हाथ जोड़ कर अपने श्री मुख से भगवान का गुण गान किया एवं माता सीता के दुःख हरते हुवे कहा माता! मैं आपकी अन्विष्टि में यहाँ आया हूँ ॥
शुक्रवार, २७ सितम्बर, २ ० १ ३
सुरत नाथ नयनन घन घारे । साख सुमन सरि जल कन झारे ॥
पूछीं हिय पिय मोहि बिसारीं । भूर भई का ऐतक भारी ॥
नयनों में नाथ की स्मृति के जो घन ग्रहण किये हुवे थे उन घन शाखाओं से फिर सुमन के सदृश्य जल के कण झरने लगे ॥ वह पूछने लगीं मुझसे ऐसी कौन सी भूल हो गई जो कि प्रियतम ने मुझे भूला दिया ॥
देइ संदेस हनुमत तेही । धैर हिया तब धरि बैदेही ॥
राम चन्द्र तव लेवन आहीं । तनिक दिवस अरु धीर धराहीं ॥
फिर हनुमत् ने भगवान का सन्देश सुनाया । तब माता सीता के ह्रदय ने धीरज बांधा ॥ हनुमत ने कहा आप कुछ दिवस और सांत्वना रखिए भगवान श्री रामचन्द्र आपको लेने आएँगे ॥
पाए सिया कर सीस आसिषे । भावतिरेक कपि दृग जल रिसे ॥
चरण नाइ पुनि लेइ बिदाई । करन चले लंका उजराई ॥
फिर अपने सर पर माता सीता का स्नेहाशीष प्राप्त कर भावातिरेक में कपि के नयनों से जल बहाने लगा ॥ फिर उन्होंने माता के चरणों में प्रणाम अर्पण कर विदाई ली । और लंका को उजाड़ने निकल पड़े ॥
सकल निसाचर करि संघारे । मर्द मर्द महि मरतएँ मारे ॥
इंद्राजीत लंकेस कुमारे । मारत भुइ दिए धोबी पछारे ॥
सारे निशाचरों का संहार करते हुवे उनका मर्दन कर मृत्यु कारित करने तक मारा ॥ इनरा को जितने वाले रावण पुत्र को भूमि में पटक पटक कर मार दिया ॥
एहि श्रवनत दनुपत दुर्बादे । परचत तिन कपि क़िए संबादे ॥
कह बत हनुमत बहुस समुझाए । प्रभु राम धरा धिया बहुराएं॥
जब दनुज पति रावण ने ऐसा सूना तो उनके मुख से दुर्वादन निकला फिर हनुमान का परिचय लेकर उनसे वार्तालाप किये । हनुमान जी ने उन्हें बहुंत सी बातें कहके समझाया कि तुम माता सीता को प्रभु के हाथ लौटा दो इसी में तुम्हारी भलाई है ॥
तुम साखामृग मति मंद, मैं भरू भूमि बिलास ।
कँह चित चित्ती कँह चंदु, कहि दनुपत कर हास ॥
फिर दनुज पति रावण ने अट्टाहास करते हुवे कहा रे वानर तुम एक मंद बुद्धि प्राणी हो,और मैं, मैं तो इस भूमि के विलासता अर्थात माया का स्वामी हूँ ( जबकी रावण दास था ) कहाँ एक धब्बा और कहाँ चाँद ॥
उनका लक्ष्य करते हुवे फिर लव ने उन्हें बाणों से भेद दिया और उनके आगे की और बढे चरणों को पीछे खदेड़ दिया ॥ वे सारे बाण सैनिकों के सर में लग कर उन्हें घायल करते हुवे निकल रहे थे उनके भय से सारे सैनिक युद्ध भूमि में पीठ दिखाकर भागने लगे ॥
डरपत कम्पत ऐसेउ धाए । दरस धाए जस प्रिया बनराए ॥
केतक भए छत सोई कूरे । केतक भूमहि अंतर भूरे ॥
वे भयभीत हो कांपते हुवे ऐसे दौड़ रहे थे जैसे वन में शेर को देखकर साँभर हिरन दौड़ता है ॥ कितने ही सैनिक घायल होकर वहीँ ढेर हो गए । कई तो अपने एवं विरोधी दल के राजा का अंतर करना ही भूल गए ॥
त्राहि त्राही कह हे गोसाईं । मुखर बान कहि कहु कँह जाईं ॥
पाहि पाहि कह सकल पराने । पाछु फनिस सम सायक आने ॥
और लव से ही जाकर कहने लगे हे स्वामी हमारी रक्षा करो किन्तु लव के बाण जो मुखरित थे कहने लगे कहो कैसे करें ॥ पुन: वे रक्षा करो ! हमारी रक्षा करो! ऐसा कह कर सारे भागते और सर्प के समान बाण उनका पीछा करते ॥
अगाउनी अवाइ अनी, छीत पाछिन धकियाए ।
उछाहु पूरित परिचरत, लव माझिन पैठाए ॥
(इस प्रकार) आगे आई सेना को लव ने चित्रित कर पीछे की और धकेल दिया और उत्साह पूर्वक विचरण करता हुवा वह उस सेना के बीच में जा घुसा ॥
मारे पुनि एक एक चिन्ही के । चरन करन कर नक् किन्ही के ॥
को के कवच त को के कुंडल । काटत किए छीतीछान सकल ॥
फिर तो एक एक सैनिक को चिन्ह चिन्ह के चोटिल करते हुवे किसी का पैर, किसी का कान किसी का हाथ किसी की नासिका काटते हुवे किसी का कवच तो किसी का कुंडल को छिन्न भिन्न करते हुवे उन्हें छतवत का दिया ॥
एहि बिधि दल पत होत हताहत । मर्कट कटक लहे बहु दुर्गत ॥
सकल सुभट दल लव अस छीते । पात पवन जस घन छितरीते ॥
इस प्रकार अपने प्रणेता के हताहत होते ही मरती कटती हुई सेना,अतिशय ही दुगति को प्राप्त हुई ॥ लव के द्वारा सारी सेना ऐसे तितिर-बितिर हो जैसे वायु के पाप्त होने से मेघ छिन्न-भिन्न हो जाते हैं ।।
मर्कट मर्दत रिपु समुदाई । ते चरन लव जयंत कहाई ॥
चेत अचल पथ लोचन जोरे । दूजन भट अगवान अगोरे ॥
शत्रु समूह को मार-काट कर मसलते हुवे युद्ध के उस चरण में लव विजयी घोषित हुवे, औ फिर वह सावधान होकर पथ पर आखें लगाए और दूसरे सैनिकों के आने की बाट जोहने लगे ॥
भाग बस भाग जोई कोई । जोइ संग्राम प्रान सँजोई ॥
तेहिहि भए दल भंजन दूते ॥ बरने बिबरन सत्रुहन हूते ॥
जो कोई उस संग्राम से भागा और भाग्यवश अपने प्राणों की रक्षा करने में सफल हुवा । शत्रुध्न के बुलाने पर वे ही उस चरण की हार के दूत बने और उन्हें युद्ध की सारी घटना -विवरण का दिया ॥
बलिन दलपत छतबत किन, का एक बाल किसोर ।
एतक अपूरब कौसल, किए भट सकल बहोर ॥
क्या एक बाल किशोर ने महाबली दलपति कालजित को हताहत कर दिया ?उसका रन कौशल इतना अद्वितीय है कि सारे वीर सैनिकों को दृष्ट-पृष्ठ कर दिया ?
श्रवन भटन्ह बिसमइ लहाऊ । सत्रुहन मुख अस कथन कहाऊ ॥
तिन बय बदन भाव अस ग्राही । जस काटो तौ रुधिरहु नाहीं ॥
सैनिकों के वचनों को सुनकर राजा शत्रुध्न इस प्रकार से विस्मय को प्राप्त हुवे मुख से ऐसी कहवाते कहीं ॥ उस दशा में मुखानन ने ऐसे भाव ग्रहण कर लिए जैसे की काटों तो उनमें रक्त ही न हो ॥
भए चितबत भट बोले सोही । का तुहरी मति भ्रामक होही ॥
कहु तो घेरिहि को माया । कारत कपट के छंद छाया ॥
वह स्तब्ध हुवे सैनिक से बोले कया तुम्हारी बुद्धि विभ्रमित हो गई है कहो तो छल कपट की प्रतिछाया कर इसे किसी मोह कारिणी शक्ति ने घेर लिया है ?
सोइ मरनासन्न कस होई । जम हुँतेहु दुर्धर्षा जोई ॥
तिन एकै बाल बिजिते कैसे । जोइ आपहि काल हो जैसे ॥
वह मरणासन्न कैसे हो सकता है जो यम के द्वारा भी दुर्धर्ष हो ॥ उसे एक ही बा किशोर ने कैसे पराजित कर दिया ? जो सवमेव में ही काल स्वरुप है ॥
श्रुतत सुभट सत्रुहन के भाषन । रक्त करबीर किए अस वादन ॥
ना हमको को माया घेरी । ना हम किन्ही के उत्प्रेरी ।।
शत्रुधन का ऐसा भाषण सुनकर रुधिर से सने लाल कनेर से दर्शित होते उन वीर सैनिकों ने फिर ऐसा कहा : -- हे राजन ! न तो हमें किसी मोह कारिणी शक्ति ने ही घेरा है, और न ही हैम किसी के उत्प्रेरित ही हैं ॥
हे राउ अहहै हम पर, तव प्रतीत की सौंह ।
जोउ दरसे जेइ नयन, कहे जोंह के तोंह ॥
हे राजन ! हमको तुम्हारे विश्वास की सौगंध है इन आँखों ने जो कुछ भी देखा, वह हमने यथावत कह सुनाया ॥
शनिवार, ०९ नवम्बर, २ ० १ ३
नाहि हमहि घेरी को माया । नाहि छलाइ हमहि को छाया ॥
अहहैं साँच जे लव के कृते । भएउ हताहत जो कालजिते ॥
न तो हमें किसी मोहकारिणी शक्ति ने घेरा है न हमें किसी कपट की छाया ने छला है ॥ कालजित का हताहत हो गए हैं,यह सत्य है, और यह सब लव की ही करनी है ॥
अप्रतिम अतुल तासु रन कौसल । बाहु सिखर मह धरि केसरि बल ॥
बिलनी जस बिलगइ महि माखन । भई कटक तस तिन हुँत मंथन ॥
उसका रन कौशल ? अदर्शनीय, अतुलनीय उसके कंधों में तो सिंह का बल है और जैसे बिलौनी छाछ और दधिसार को मथ कर वियोजित कर देती है । वैसे ही उसके द्वारा सारी सेना मथी गई ॥
ताहि परत बहु सोच बिचारे । हे नाथ अब जोइ कछु कारें ॥
सत्रुध्न मति बोधइ तत्काला । ए नहि कोउ साधारन बाला ॥
इसके पश्चात हे स्वामी ! अब आप जो कुछ नीति अपनाएं उसकी भली पकार से समीक्षा कर लें ॥शत्रुध्न को तत्काल ही यह ज्ञात हो गया कि वह कोई साधारण बालक नहीं है ॥
सुनि भट सत्रुहन रिपु रन जूझे । सुबुध सचिव सुमतिहि सौं बूझे ॥
तुम भानत तिन बाल ब्याजी । जोइ अपहरइँ हमरे बाजी ॥
सैनिकों को सुनाने के पश्चात शत्रु से लोहा लेने के लिए उनहोने अपने श्रेष्ठ बुद्धिवाले मंत्री सुमति से परामर्श करते हुवे पूछा : -- जिसने हमारे यज्ञ के अश्व का हरण किया है क्या तुम्हें उस दुष्ट बालक का कुछ भान है ?
रहि जो आपी आपइ काला । जलधि उदधि के सरिस बिसाला ॥
सोइ कटक के कारत नासे । कियो तासु कर जूथ बिनासे ॥
जो अति बलवान एवं स्वयं ही में काल है । और जो जल के आकर समुद्र के समान विशाल है ॥ उसने उस सेना का विनाश करते हुवे समस्त वीर सैनिक समूहों को नष्ट का दिया ॥
कही सुमति जे बिनइ बचन, हे मम नाथ नरेस ॥
सोइ मुनि बाल्मीकि के, तपो भूमि बन देस ॥
फिर श्रेष्ठ मंत्री सुमति ने यह विनयी वचन कहे । हे मेरे स्वामी ! हे नरेश ! वह स्थान मुनिवर वाल्मीकि का तपोवन है एवं वह भूमि उनकी तपोभूमि है ॥
रविवार, १० नवम्बर, २ ० १ ३
तहाँ बटु मुनिगन बासत आहिं । छत्र धरमन तँह निबासत नाहिं ॥
कही सोइ सुरनाथ त नाहीं ।पहिले तव जस संसय आहीं ॥
वहाँ ब्रह्माचारी बालक एवं मुनि गण वास करते हैं । वहाँ क्षत्रिय धर्मी निवास नहीं करते ।। वह वीर बालक सुरपति इंद्र तो नहीं जैसे पहले आपको संदेह हुवा था ॥
अरु ते उर मह अमर्ष धारे । अश्व मेध अपहारित कारें ॥
भा गिरिजा पत सम्भुहु संकर । प्रगसे जे तँह बाल भेष धर ॥
और उन्होंने ह्रदय में कोढ़ धारण का उनहोंने ही उस मेध के अश्व का हरण किया हो ॥ या वह गिरिजा पति शंकर शम्भू ने तो वह अश्व हरण किया हो जो वहाँ बाल स्वरुप में प्रकट हुवे हों (ऐसा कहा मंत्री सुमति ने झूठ-मूठ का भय दिखाया ) ॥
बहोरि दूजन को अस अहहीं । जो हमरे है हरनन सकहीँ ॥
मम सम्मति अब आपहिं गवनै । बीर सुभट सब राजन लवनै ॥
फिर दुसरा ऐसा कौन हो सकता है जो हमारे अर्थात सूर्य वंशी रघुकुल राजा रामचंद्र जी के अश्व को हरण करने में समर्थ है ॥ मेरे विचार से सभी वीर योद्धाओं एवं समस्त राजाओं को साथ ले जा कर अब युद्ध भूमि में आपको ही उतरना चाहिए ॥
जोइ संजोइ सकल सनाहे । भाल धनुर सर सह प्रतिनाहे ॥
औरु लिए संग सैन बिसाला । अधिकम करत करैं रिपु काला ॥
युद्ध सामग्रियों से सुसज्जित, समस्त रक्षा साधन ,तीर धनुष सहित समस्त चिन्हों से युक्त उस विशाल सेना को साथ ले अब आपको स्वयं ही शत्रु पर चढ़ाई कर उसका अंत कर देना चाहिए ॥
आप स्वमेव छेदनहारे । गत तिन बलबन बंधन कारें ॥
पुनि मैं रघुबर तहँ लेजाउब । तव रन के कौतुक देखाउब ॥
हे राजन आप तो स्वमेव में शत्रु का उच्छेद करने वाले हैं । युद्ध भूमि में जाकर आप उस बलवान बालक को बाँध कर लाने में भी समर्थ हैं ( अत: आप वहाँ प्रस्थान कीजिए) फिर मैं रघुबर को वहाँ ले जाकर ,आपके युद्ध का सारा कौतुक दिखाऊंगा ॥
सुन सचिव बचन बहुरी सत्रुहन कहत भट अनी लहनौ ॥
कलित सनाहा सह प्रतिनाहा सकल रन भू गवनौ ॥
तुम चलु आगिन अरु मैं पाछिन आवउँ तुम्ह संगिने ।
बली बाहु लहित बहु गरब सहित चलि कटक चतुरंगिने ॥
सचिव के इस प्रकार के वचन सुनकर फिर शत्रुध्न ने योद्धाओं को आदेश दिया कि सेना लो समस्त चिन्हों को एवं क्शा कवचों से युक्त होकर रन भूमि में प्रस्थान करो ॥ तुम आगे आगे चलो मैं पीछे पीछे तुम्हारे साथ ही आ रहा हूँ । फिर बाहुबलियों को ले कर बहुंत ही गर्वान्वित होकर वह चतुरंगिणी सेना युद्ध भूमि की और चल पड़ी ॥
परबत सरिस बीर सुभट, अनी पयोधि समान ।
दरस तिन आवत सों लव, ताकि सिंह के मान ।
उसके वीर योद्धा पर्वत के सरिस थे और वह सेना समुदा की भाँती दर्शित हो रही थी । ऐसी सेना को अपने सम्मुख आते देख लव उसे हिरणों का समूह समझ कर, सिंह के समान ताकने लगे ॥
सोमवार, ११ नवम्बर, २ ० १ ३
पास पीठ मुख परिकर कारे । लव के चहुँ पुर घेरा डारे ॥
दरस तिन्ह अरु कोटर लोले । पलक अली बहु फरकत दोले ॥
फिर सेना के पार्श्व, पृष्ठ एवं अग्र भाग ने घूर्णन करके लव के चारों और घेरा डाल दिया ॥ उन्हें देखकर लव की आँखों की पुतलियाँ चंचल हो गई पळकावली अत्यंत कम्पन करती हुई दोलायमान हो उठी ॥
लव घेरे अस दरसत लाहू । सुभट हिरन सम सो बन नाहू ॥
जलित अनल सम हैलत हूते । लगे करन तिन भस्मी भूते ॥
लव का वह सैन्य परिच्छद इस प्रकार के दृश्य को प्राप्त हुवा जैसे कि वह कोई वन राज है ,औ सैनिक हिरणों से घिरा हुवा है ॥ फिर लव उन्हें ललकारते एव उनपर आक्रमण करते हुवे अग्नि ज्वाल के समान उन्हें भस्मीभूत करने लगे ॥
किन्ही के धारा धर सारे । घाउ करत तन चाम उघारे ॥
किन्ही के कर सर संधाने । मर्म भेद किए मरनी माने ॥
कृपाण प्रहार कर किसी की घायल करते हुवे शरीर की चमड़ी उखाड़ दी ॥ किन्ही को हाथमें धनुष चढ़ा कर जीवन स्थान अर्थात ह्रदय एवं शीश को भेद कर मरे के समान कर दिया ॥
नाना बर आजुध लीन्हि के । सार सकल किए हत चीन्हि के ॥
लखित चहुँ पुर सैन परिछेदे । काटत ब्यूह भाँवर भेदे ॥
फिर विभिन्न प्रकार के आयुध धारण कर एक एक को चिन्हित कर प्रहार करना आरम्भ किया । फिर सैनिकों के चारों और के चक्रों को लक्षित कर उनके समूह रचना को काटते हुवे सातों घेरों को छिन्न-भिन्न करने लगे ॥
पहिलै सह प्रासे, गंड गँडासे, भांवर भंजन कारी ।
दूज बहु बिसाला, धरी कर कुंत किए छतबत छतनारी ॥
तीजे किए भंजन पट्टिष परिघन, आजुध भुज धारी ।
सेष अनुरूप अगनै, बिसिखा लग्ने, भग्नै बारी बारी ॥
पाहिले घेरे को भाले, एवं मण्डलाकार फरसे से विभंजित किया । बरछी धारण कर फिर दूसरे विशाल चक्र के सैनिकों को घायल करते हुवे बिखरा दिया॥ फिर भुजा में पट्टिष(एक प्राचीन शस्त्र) एवं परिघ आयुध को धारण कर तीसरे चक्र को भंजित किया । फिर शेष चक्रों को अग्नि के अनुरूप बाणों के लगने से कमश: विभंजित हो गए ॥
चतुरंग चक्र ब्यूह , भेद सियपुत अस दरसे ।
धनबन मेघ समूह, जस पयस मयूख निकसे ॥
उस चतुरंगिणी सेना के चक्र समूह को भेद कर लव ऐसे दर्श रहे थे, जैसे आकाश में मेघ समूह से मुक्त होकर चंद्रमा निकल आया हो ॥
मंगलवार, १२ नवम्बर, २ ० १ ३
त्राहि मम त्राहि चहुँ दिसि छाई । भूरिहि बीर भए धरासाई ॥
लाख लखहा मुख लागन भागे । सकल भट बिमुख आगिन आगे ॥
(उनके बाणों से के मुख से )रक्षा प्रभु ! हमारी रक्षा करो प्रभु !! ऐसी ध्वनी चारों दिशाओं में व्याप्त हो गई ॥ बहुंत से वीर धराशाई हो गए । सारे सैनिक बाणों के विमुख हो आगे भागते, बाण उन्हें विदारित करने हेतु पीछ पीछे दौड़ें ॥
बीर पुष्कल देखि यहु दरसन । अगुसार भए समर मूर्धन ॥
लोचन मह भर रोख बहूँते । ठाढ़ौ ठाढ़ौ कह लव हूँते ॥
वीर योद्धा पुष्कल ने जब ऐसा दृश्य देखा । तब वे आगे आए और उस युद्ध के प्रमुख बने ॥ आँखों में अत्यधिक क्रोध भरे वे 'खड़ा रह ' 'खड़ा रह' कहकर फिर वह लव को हक्कारने लगे ॥
जब सुत तिन्ह निकट ले आयो । देख दसा लव अस समझायो ॥
बीर सुनौ सुसोहित बर बाहि । एक सुठि स्यंदन मैं तव दाहिं ॥
जब उनका सारथी उन्हें लव के निकट ले आया तब लव की दशा देखकर वे उसे इस प्रकार समझाने लगे ॥ हे वीर! सुनो मैं तुम्हे श्रेष्ठ अश्व से सुशोभित एक सुन्दर युद्ध रथ प्रदान करता हूँ ॥
तुम्ह पयाद मैं रथारोही । तुहरे सन कहु रन कस होही ॥
पहले भय दुहु पत एक सौंहे । बहुरि परस्पर जोधन होहे ॥
(क्योंकि ) तुम पदाधिका हो और मैं रथ में आरोहित हूँ । कहो तो तुम्हारे साथ यह युद्ध किस प्रकार शोभा देगा ॥ पहले दोनों की प्रतिष्ठा एक समान हो जाए फिर दोनों एक दूसरे से युद्ध करेंगे ॥
सुनु मोरि बलबान, मम कर अस तव हत न होइ ।
तुम न रथ न पद त्रान, एहि बय रन बिजय न लोइ ॥
हे बलवान ! मेरी बात सुनो, तुम जिस दशा में हो ऐसे तो मेरे हाथ से तुम्हारा हनन नहीं होगा । तुम रथहिन् हो , तुम्हारे तो चरणों में त्राण भी नहीं है, ऐसी अवस्था में मेरी विजय कैसे शोभित होगी ॥
बुधवार, १३ नवम्बर, २ ० १ ३
सोइ पल पुष्कल सकुचइँ कैसे । बीरबर कालजित के जैसे ॥
श्रवनत सियपुत तिनके भाषन । देवत उतरु बोले अस बचन ॥
उस पल पुष्का कैसे संकोच कर रहे थे?जैसे महा बलवान सुरथ ॥ पुष्कल के भाषण को सुनकर, सिया पुत्र लव ने उसका उत्तर देते हुवे ऐसे वचन कहे : --
जो मैं तव दायक रथ धरहूँ । तापर राजत जदि रन करहूँ ॥
वाके पातक लागहिं मोही । अरु जय पावन संसय होहीं ॥
हे वीर पुष्कल ! यदि मैं तुम्हारे दान के रथ को धारण कर उसपर विराजित होकर युद्ध करता हूँ ॥ तो मुझे उस पाप का दोष लगेगा और मेरे निमित्त विजय संदेहास्पद हो जाएगी ॥
हम छत्र धर्म न को भुँइ देवा । किये हमहि दान पुनि सेवा ॥
दहत गर्भ पुनि लव कर दापे । करइ भंज पुष्कल बार चापे ॥
हम (दोनों भाई) क्षत्रिय धर्म का पालन करने वाले हैं । वेद पाठी ब्राह्मण नहीं है ॥ अत: हम दान ग्रहण नहीं करते अपितु स्वयं ही प्रतिदिन दान, पुण्य सेवा करते हैं ॥
किए रथ खंड जब हँसत हाँसे । तब पुष्कल मुख अचरज लासे ॥
आजुध बिहिन धनुर रथ भंगा । चाढ़े लव पर धार निषंगा ॥
और जब लव ने हंसी करते हुवे रथ को खंडित कर दिया । तब पुष्कल क मुख पर अचरज विलास करने लगा ॥ वह आयुध विहीन एवं भंजित धनुष-रथ के ही केवा तुणीर हाथ में लिए लव पर चढ़ बैठा ॥
श्री राम सिया कुँवर कासिकर । कटि तरौंस बर पीतम परिकर ।।
तूनि तूनीर तीर निकारे । फनिक सरिस सिख तीख बिष घारे ॥
श्री रामचंद्र एवं श्री जानकी जी के कुमार लव ने फिर कटी के तट पर फेरे हुवे पीतम वस्त्रों में कसा तुणीर में से तुरंत ही तीर निकाला जो सर्प के सरिश्य तीक्ष्ण विष ग्रहण किये हुवे था ॥
त्रासिन तेजस तेजनक, धनु सार संधाए ।
तरत गुन सनासन करत, पुष्कल त्रस बिंधाए ॥
उस पीड़ा देने वाले दिव्य बाण को फिर धनुष में संधान किया जो उससे उतर कर सन-सन करता हुवा पुष्कल के ह्रदय में समाहित हो गया ॥
गुरूवार, १ ४ नवम्बर, २ ० १३
अरु सोइ महाबीर सिरुमने । निपतित भुँइ पाइ मुरुछा घने ॥
देखि बीर पुष्कल मुरुछाई । पवन तनय तिन तुरत उठाईं ॥
फिर वह शिरोमणि महावीर भूमि पर गिरा और मूर्छा को पाप्त हो गया ॥ पुष्कल की अचेतना को देखकर पवन पुत्र हनुमान ने उसे तत्काल ही उठाया : --
भुज अंतर कर तिनके गाता । किए अर्पन रघुबर लघु भ्राता ॥
दुःख भर शत्रुहन ताहि बिलोका । स्याम बदन छाए घन सोका ॥
और उसक शरीर को अंकवार करते हुवे, रघुवीर के लघुत्तम ब्राता शत्रुधन को अर्पित किया ॥ उसे ऐसी अवस्था में देखके शत्रुध्न अत्यंत दुखी हो उठे उनकी श्यामल मुखाकृति पर जैसे शोक के बादल छा गए ॥
सोचे रिपु रन कुसल निबारे । सकल बलसील भट हत कारे ॥
पाए अधोगत कटक मनोबल । भयउ हताहत दलपत पुष्कल ॥
वह ऐसा विचार लिया कि रन में चातुर्य शत्रु ने समस्त बलशील सैनिकों को छतवंत करते हुवे उन्हेंरण क्षेत्र से हटा दिया है । और दलपति वीर पुष्कल के हताहत होने से सेना का मनोबल गिर गया है ॥
हतास्वासश्रय सिरु नायो । का करैं अजहुँ समुझि न पायो ॥
छनि होरत सत्रुहन कछु लेखे । पुनि पवपुत हनुमत मुख देखे ॥
वह निराशा के आश्रय होकर फिर उन्होंने अपना सिर झुका लिया ,आगे कौन सी नीति अपनाई जाए उन्हें यह समझ नहीं आया । वे थोड़ा रूके और कुछ मंथन किया, फिर वायु नंदन हनुमान का मुख देखें लगे ॥
सत्रुहन नैन मुखरित भए, बानी बनि संकेत ।
पवन तनय लिए गदा धर, चरि उतरन रन खेत ॥
शत्रुध्न की आँखें मुखरित हो उठीं । और संकेत वाणी हो गई । पवन तनय संकेत समझ गए, गदा उठाए और रन क्षेत्र में अवतरण हेतु प्रस्थान किये ॥
फरकत बजरागी अंग, प्रनदत किए घन नाद ।
गहु पुरब प्रसरे प्रसंग, तिनके परच प्रसाद ॥
महाबली हनुमान के अंग भी फड़कने लगे और वे घन नाद के सदृश्य गर्जना करने लगे । इससे पूर्व की यह प्रसंग आगे बढे महाबली बजरंग का परिचय-प्रसाद ग्रहण करते चलें ॥
गुरूवार २६ सितम्बर, २ ० १ ३
तरु मृग मारुत सुत हनुमंता । किए जे पयोधि पार तुरंता ॥
बर कबहुक लघु रूप रचाईं । पठतइ निकसे मुख सुरसाईं ॥
मारुती नंदन वीर वानर हनुमान जिन्होंने अपार जलधि को तत्परता से पार कर दिया था ॥ कभी बृहद तो कभी लघु रूप धारण कर सुरसा के मुख में प्रवेश करते ही जो बाहर निकल आए थे ॥
पुनि परबत मह इंद्र उछंगे । पाट पयधि सत जोजन लंघे ॥
जामि घोष जाजाबर केरे । जामिन जब लंका पुर घेरे ॥
फिर हनुमान ने महेंद्र पर्वत से छलांग लगा का समुद्र के उस विस्तार को सौ योजनों तक लांघा ॥ रात्रि ने लंका पूरी को घेर लिया, प्रहरी घूम घूम कर समय की घोषणा कर रहा था ॥
कनक कोट के चमक चकासे । हट बट चौहट नगर निकासे ।
सैल सरि सर लंका बनबारि। चितेर अवकास कर दिए लंकारि ॥
हाट,पथ चौपथ नगर का निकास स्थान , स्वर्ण किले की कांति सब विकीर्णित हो रहे थे । लंका के पर्वत सरोवर सरिता वाटिकाएं आदि मानो चित्रकार ने अवकाश प्राप्त कर रची हों ॥
समर सूर गन घर घर हेरे । राम बोधिते आँगन घेरे ॥
हेर बिभीषन रावन भाई । तेइ परच सिय ठिया बुझाईं ॥
तब उस सूर वीर वानर ने घर घर को गिनते हुवे उनका अन्वेषण किया । प्रभु श्रीराम के संज्ञान हेतु रन आँगन का भी घेरा लिया ॥ विभीषण को ढूंडा जो कि रावण का लघु भ्राता था उनके परिचय से ही लंका में माता सीता के आश्रय स्थान का ज्ञान हुवा ॥ प्रभु प्रिय सिय उपबन रह जहवाँ । मसक सरिस रूप गवने तहवाँ ॥ बैसत तरुबर मुँदरी डारी । राम नाम बर अंकित कारी ॥
और प्रभु श्रीराम चन्द्र की प्यारी माता सीता जिस वाटिका में रहती थी, पवन पुत्र हनुमान मशक का स्वरुप रचा कर फिर वहाँ गए ॥ वे एक श्रेष्ठ वृक्ष में बैठ गए और वहाँ से उन्होंने एक मुद्रिका गिराई जो प्रभु श्री राम के नाम से चिन्हांकित थी ॥
बैसि सिया बन बदन बिसादे । धरनी मुद्रिका धातु निनादे ॥
नाम राम दुइ आखर उपबन । करन लगे संवाद सिया सन ॥
माता सीता मुख पर विषाद-वदन से युक्त होकर बैठी थीं । तभी धरणी पर मुद्रिका धातु निन्दित हो उठे । राम नाम के दो अक्षर उस वाटिका में माता के साथ संवाद करने लगे ॥
प्रभु अंकन सिय जब पहचाने । आवै तब सौमुख हनुमाने ॥
मैं राम दूत कहि हे माता । तुहरे हमरे जनि सुत नाते ॥
( उस मुद्रिका को उठाकर ) जब माता सीता प्रभु के मुद्रांकन से परिचित हुई तब वीर बजरंग बली उनके सम्मुख आए और बोले हे माता ! मैं प्रभु श्री राम का दूत हूँ एवं आपका मेरा सुसंबंध, माता-एवं पुत्र का है ॥
पुनि कर जोर निज श्री मुख, किये राम गुन गान ।
कहत हरत मात के दुःख, तव हेरन मैं आन ॥
फिर हनुमान ने हाथ जोड़ कर अपने श्री मुख से भगवान का गुण गान किया एवं माता सीता के दुःख हरते हुवे कहा माता! मैं आपकी अन्विष्टि में यहाँ आया हूँ ॥
शुक्रवार, २७ सितम्बर, २ ० १ ३
सुरत नाथ नयनन घन घारे । साख सुमन सरि जल कन झारे ॥
पूछीं हिय पिय मोहि बिसारीं । भूर भई का ऐतक भारी ॥
नयनों में नाथ की स्मृति के जो घन ग्रहण किये हुवे थे उन घन शाखाओं से फिर सुमन के सदृश्य जल के कण झरने लगे ॥ वह पूछने लगीं मुझसे ऐसी कौन सी भूल हो गई जो कि प्रियतम ने मुझे भूला दिया ॥
देइ संदेस हनुमत तेही । धैर हिया तब धरि बैदेही ॥
राम चन्द्र तव लेवन आहीं । तनिक दिवस अरु धीर धराहीं ॥
फिर हनुमत् ने भगवान का सन्देश सुनाया । तब माता सीता के ह्रदय ने धीरज बांधा ॥ हनुमत ने कहा आप कुछ दिवस और सांत्वना रखिए भगवान श्री रामचन्द्र आपको लेने आएँगे ॥
पाए सिया कर सीस आसिषे । भावतिरेक कपि दृग जल रिसे ॥
चरण नाइ पुनि लेइ बिदाई । करन चले लंका उजराई ॥
फिर अपने सर पर माता सीता का स्नेहाशीष प्राप्त कर भावातिरेक में कपि के नयनों से जल बहाने लगा ॥ फिर उन्होंने माता के चरणों में प्रणाम अर्पण कर विदाई ली । और लंका को उजाड़ने निकल पड़े ॥
सकल निसाचर करि संघारे । मर्द मर्द महि मरतएँ मारे ॥
इंद्राजीत लंकेस कुमारे । मारत भुइ दिए धोबी पछारे ॥
सारे निशाचरों का संहार करते हुवे उनका मर्दन कर मृत्यु कारित करने तक मारा ॥ इनरा को जितने वाले रावण पुत्र को भूमि में पटक पटक कर मार दिया ॥
एहि श्रवनत दनुपत दुर्बादे । परचत तिन कपि क़िए संबादे ॥
कह बत हनुमत बहुस समुझाए । प्रभु राम धरा धिया बहुराएं॥
जब दनुज पति रावण ने ऐसा सूना तो उनके मुख से दुर्वादन निकला फिर हनुमान का परिचय लेकर उनसे वार्तालाप किये । हनुमान जी ने उन्हें बहुंत सी बातें कहके समझाया कि तुम माता सीता को प्रभु के हाथ लौटा दो इसी में तुम्हारी भलाई है ॥
तुम साखामृग मति मंद, मैं भरू भूमि बिलास ।
कँह चित चित्ती कँह चंदु, कहि दनुपत कर हास ॥
फिर दनुज पति रावण ने अट्टाहास करते हुवे कहा रे वानर तुम एक मंद बुद्धि प्राणी हो,और मैं, मैं तो इस भूमि के विलासता अर्थात माया का स्वामी हूँ ( जबकी रावण दास था ) कहाँ एक धब्बा और कहाँ चाँद ॥
No comments:
Post a Comment