Monday 29 July 2013

----- || उत्तर-काण्ड 9|| -----

कल कल करत तरनि तरियारे । तीरत बिहबल पारु उतारे ॥ 
हाथ धनुर्धर कटि कर भाथा । चले लखन घन बन सिय साथा ॥ 
कल-कल की ध्वनि करती हुई, व्याकुल नैया तैरती हुई तट के निकट आ गई और उसने माता सीता एवं भ्राता लक्ष्मण को नदी के पार उतार दिया ॥ हाथ में धनुष धारण किये एवं करधन में तूणीर कसे लक्ष्मण माता सीता को साथ लिय घने वैन की और चल दिये ॥ 

बिथुरि रे बिथुरि सुन्दर जोरी । बिथुर बचन पर जानि न भोरी ॥ 
बिथुरि बिथुरि जस जल की धारा । दरस नयन पर दूर करारा ॥ 
 जैसे जल की धारा  नयनों से दर्शित हों पर भी तट स वियोगित रहती है वैसे ही बिछड़ी रे बिछड़ी ये सुन्दर जोड़ी ।और यह सुन्दरी अबोध है जो वियोग के विषय से अनभिज्ञ है । 

रयनिहि प्रात, प्रात बिनु रयना  । भयो सिया बिनु प्रभु के अयना ॥
जल कल बीना नादत बयने । दीन नदी देखत भरि नयने ॥ 
जिस प्रकार रयनी प्रभात के और प्रभात बिन रायनी के हो जाएं ।सीता के बिना प्रभु का धाम उस भांति हो गया ॥ जा रूपी कल वीणा निनाद करती इस विरह-प्रसंग का वर्णन कर रही है । नदी की आँखे भी भर आई हैं और वह व्याकुल दृष्टि से माता को निहार रही है ॥ 

करन धार मुख सों सुर बृंदा । गावै बहुरत पादालिंदा ।। 
भई करूनई कर करुबारी । करू न करू न कहि करून पुकारी ॥ 
नैया को लौटाते हुवे कर्णधार के मुख से जब यह सुन्दर स्वरवृन्द गान करने लगे । तब हाथ की कर्णिका द्रवित  हो उठी और कहने लगी हे स्वामी ऐसी करुण पुकार न करें ॥ 

करिया करि करुन पुकार, करियन लोचन नीर । 
नदि उतारे नीर धार, भावभीन भए तीर ॥ 
 कर्णधार करूँ पुकार कर रहा है, और अश्रु कारण के नयनों में हैं । जल की धारा नदी उतार रही है,अश्रुपूरित तट हैं ॥ 

प्रभु अग्या के पालनहारी । जस दिए आयसु तस सिरु धारी ॥ 
कह अच्छर सह कुसल प्रमानै । आपनि तिन के भ्रात न जानै ॥ 
जो प्रभु की आज्ञा के पालनहारी हैं वे जैसा आदेश देते हैं उसे वैसे ही सिरोधार्य करते हुवे उनकी कही को अक्षरश: प्रमाणित करने हेतु स्वयं को उनका भ्राता न मानते हुवे : -- 

समुझत जन सेवक के नाई । चलत परिहरन सीस झुकाई ॥ 
तमस सघन तरु बिपिन भयंकर । बिचरत नर भाखी बन गोचर ॥ 
प्रजा के सेवक की भांति समझकर माता सीता का परित्याग कार्य पूर्ण करने हेतु चल पड़े ॥ घोर अन्धकार, घने घने वृक्ष और भयंकर अरण्य जहां नर भक्षी वैन गोचर विचरण करते हैं ॥ 

तरुबर तरि छाया अति गाढ़ी । लागत जस बन निसिचर ठाढ़ी ॥ 
दिसि अरु बिदिस पंथ नहि सूझे। दोउ चलेउ कहाँ नहि बूझे ॥
तरुवरों की छाया अत्यंत गाढ़ी है ऐसा प्रतीत होता है  वृक्षों के नीचे घोर निशाचर खड़े हों । दिखाएं और उन दिशाओं के कोण, पंथ कुछ नहीं दिखाई देता । माता-पुत्र दोनों खान जा रहे हैं ज्ञात नहीं हो रहा ॥ 

कबहूँ फेर फिर पाछिनु जाईं । कबहुँक फिरि पुनि आगिनु आईं ॥

देखे को तरु ओट लुकाही। फिर सिया मन कहे रे नाहीं ॥ 
कभी घूमफिर कर पीछे चले जाते हैं कभी फर फिर कर आगे हो जाते हैं । माता को आभास होता है कि तरु के ओट किए कोई छिपा है, फिर मन में कहती हैं नहीं यह तो मेरा भ्रम है ॥ 

 पंथ पंथ कंदर खोह, पग पग बाघ कराल । 
कहुँ ब्यालंबे भुअंग,कहुँ काल सम  ब्याल ॥ 
पंथ पंथ पर दर्रे और गुहा हैं । पग पग पर भयानक बाघ हैं । कहीं विषधर लटके हुवे हैं कहीं काल के सदृश्य हिंसक पशु हैं ॥ 

बुधवार, ०२ अप्रेल २०१४                                                                                         

दिरिस बिचित्र सिय हिया अकुलाए । पूछन चहैं कछु पूछ न पाए ॥ 
संसइत मन भयभीत नैना । चले अनुज सों तिन बिन बैना ॥ 
यह विचत्र दृश्य देखकर माता सीता का ह्रदय विचलित हो गया । वह भ्राता लक्ष्मण से इस सम्बन्ध में पूछना चाहती है किन्तु संकोच के कारण वश पूछ नहीं पा रहीं । चित्त संसययुक्त है आँखें भयभीत हैं और भ्राता लक्ष्मण  मौन मुद्रा में उनके साथ चल रहे हैं ॥ 

चितबत सुमिरत स्वामी चरन । बिरहबन्ति बोलै मन ही मन ॥ 
कहँ मुनिबर कहँ मुनिबर भामा । कहँ मुनि मंडप कहँ मुनि धामा ॥ 
वह विरहवंती स्तब्ध स्वरुप में  अपने प्रभु श्रीराम  के चरणारविन्द का स्मरण कर मन ही मन बोले । यहाँ मुनिवर कहाँ हैं?मुनिवर की  तप चारणी अर्द्धानिगिनी कहाँ हैं । मुनियों के मंडप कहाँ हैं ?  मुनि के आश्रम  कहाँ हैं ?  अर्थात कहीं नहीं हैं ॥ 

जैसेउ हंस अरु हरुबारे । देखै तरपत पलक उघारे ॥ 
आए कहाँ हे राम गोसाईं । लख धरि कहँ के जे कहँ जाईं ॥ 
जिस प्रकार हंस के लोचन हिलते हैं । माता के पलक अनावरित लोचन से उसी प्रकार तड़पती हुई निहार रही हैं । हे राम ! हे स्वामी !! कहाँ आ गए लक्ष्य कहाँ का कियेऔर जा कहाँ रहे हैं ॥ 

कनख काँखे लखन मुख देखे । लिखि चिंतन अनुरेख न लेखे । 
दिवस काल अरु जे कस राती । कि बाताली पुरब के साँती ॥ 
माता तिर्यक स्वरुप मन कनखियों से लक्ष्मण का मुख देखे जा रही हैं । उनमें मुख में चिंतन अनुलेख की रेखाओं को समझ नहीं पा रहीं ॥ दिवस काल में ये कैसी रात है या किसी वाताली के पूर्व की शांति है ॥ 

भई बन अँधेरी गहन जूँ जूँ आगिन बाढ़ि । 

मात सिया ब्याकुल मन तौं तौं चिंतन गाढ़ि ॥ 
माता  सीता ज्यूँ ज्यूँ आगे बढ़तीं वन की अंधियारी की गहनता के सह उनके व्याकुल मन की चिंता भी त्यों त्यों गहरी होती जाती ॥ 

कोमल कोमल गात, कोमलइ  अन्तरात्मन् । 
जस को कौसुम पात, कोमल चरन रिपु अनेक ॥ 
माता  वैदेही की सुकोमल देही हैं जिसके अंतर में उनका मन भी अत्यंत कोमल है । कसुम-पत्र के सदृश्य उनके चरण हैं और मार्ग में अनेक रिपु हैं ॥  

बृहस्पति /शुक्र , ०३/०४ अप्रेल, २ ० १ ४                                                                                 

आयसु पालन माहि अति कुसल । लखमन मन प्रभु सुमिरत प्रतिपल ॥ 
सौंह अनघट बिपिन दुखदाई । जाके भीतर सिय लिए जाईं ॥ 
जो लक्षमण प्रभु के आदेश का पालन करने में अत्यधिक कुशल हैं । उनके मन में प्रत्येक पल प्रभु श्रीरामचंद्र का ही स्मरण है ॥ कष्टदाई विकट विपिन सम्मुख है जिसक अंतरपुर में वह माता सीता को इए जा रहे हैं ॥ 

जटा जटिल  सूलिन धरि सूला । जहँ धव धूसर खैर बबूला ॥ 
निर्जन नयन दरसन न कोई । पंथ प्रदर्सन कोउ  न होई ॥ 
जहां जटिल जटाधारी कोई है तो वह बरगद  है कोई धूसरित है तो वह धव के वृक्ष हैं ( एक वृक्षजिसके पुष्प लाल होते हैं ) कंटकों से युक्त कोई है तो वह बबूल एवं कोई रक्तिम है तो वह खैर के वनराजी हैं । वनस्थली जनहीन  है मनुष्य वहाँ  देखने  के लिए भी कोई नहीं है और पंथ प्रदर्शक भी कोई नहीं है ॥ 

गहन भीत अरु जारि दुआरी । अरण्य जीवन भयउ दुखारी ॥ 
दग्धन कारन तरु भए सूखे । कोइरि कोइरि काल कलूखे ।। 
वन के गहन अंतर में दावन से दग्ध वन्य जीवन कष्टमयी हो गया है ॥ दग्धं के कारण सारे वृक्ष सूखे सूखे एवं काल-कलुषित होकर कोयला -कोयला हो गए हैं ॥ 

आपहि श्रीधर मुनिबर भामा । हेरि फिरत बन तिनके धामा ॥ 
चौदसि बच्छर बन करि तापा । जानी न तपसी आप प्रतापा ॥ 
माता तो मुनिवर श्रीधर की अर्द्धांगिनी हैं और वन में उनके ही श्रीधाम को ढूंडती फिर रही हैं  । चतुर्दस वर्ष हेतु वन में जो तप किया । वह तपस्विनी तप के बल उसके प्रताप से अनभिज्ञ रही कि अब यह निर्जन वन उस प्रताप से जनयुक्त होकर हरा-भरा हों वाला है ) 

प्रभु संगिनि बासि बन बसेई। मैं धन्य मई कहि बन देई ॥ 
मंगल मूरति बिपिन पधारे । कृपा भई कह पुलक निहारे ॥ 
 प्रभु श्रीरामजी की संगिनी ने वन की बस्ती में आ बसी हैं । यह देख वन देवी कहती हैं आज मैं धन्य हो गई । यह कल्याण की मूर्ति विपिन में पधारी हैं । बहुंत कृपा हुई यह कहते हुव वह पुलकित दृष्टि से उन्हें निहार रहीं हैं ॥ 

रहि जस पंथ निहार दावानल डाह दुखार । 
कब हम हो हरियार, कब सिया बन चरन धरे ॥ 
दावानल की दहन से दुखित जैसे वह उनकी  कर रही थीं कि इस दग्ध विपिन में कब उनके चरण पड़े और कब हम हरे-भरे हो ॥  

मात सिया जहँ जहँ पग धारे । तँह के जीवन भयउ सुखारे ॥ 
नयन बियाकुल मन भयभीता । देख बिपिन अस चिंतत सीता ॥ 
माता सीता  जहां जहां चरण धारतीं  । वहाँ का वन्यजीवन सुखमयी हो जाता । व्याकुल नयन एवं भयभीत मन से ऐसे दुर्गम वन देख कर माता सीता चिंतित हो गईं ॥ 

नवल पथिक पद्या न चिन्हे । फिरैं बान तरु चिन्हित किन्हे ॥ 
चले संग ले लखन सयाने । बिते प्रभात भए अपरहाने ।। 
नए नए पथिक और पगडंडियों से भी परिचय नहीं । किन्तु बुद्धिवंत लक्ष्मण माता सीता को संग लिए बाण से तरुवर को चिन्हांकित  करते हुवे आगे बढे जिससे कि लौटने में कठिनाई न हो । प्रभात काल का विहान कर  अपराह्न का समय  हो गया ।।  

लगए पथ अरि चरन धरि घावा । दरसे बदन पीर मन भावा ॥ 
गहे गर्भ सिय भयौ पियासे । दरसनहु नहीं जल कहुँ पासे ॥ 
मार्ग के रिपु (कंटक) चरणों से लगकर घाव कर देते । मुख पर पीड़ा के मनोभाव स्पष्ट दर्शित हो रहे थे ॥ गर्भ गृहीत माता सीता पियासी हो गईं । आस-पास कहीं जल भी दर्शित नहीं हो रहा था  ॥ 

कहुँ न लखे मुनिबर के ठाऊँ । चर चर पंथ सिथिर भए पाऊँ ॥ 
संसय बस जब रही नहि पाई । सकुचत लखमन पूछ बुझाई ॥ 
मुनीश्वर के आश्रमों के भी कहीं दर्शन नहीं होते । ऐसे पंथ पर चलते-चलते माता सीता के चरण श्रांत हो गए । संसय के कारण जब उनसे रहा नहीं गया तब संकोच करते उन्होंने भ्राता लक्ष्मण से पूछा : -- 

अवध कुँअर हे भ्रात बीरबर । कहँ मुनि कहँ मुनि भामिनि के घर ॥ 
जिन्हिनि के जो जोग निवासा । हेरत मोर नयन चहुँ पासा ॥ 
हे अवध कुमार ! हे वीरवर तात !यहाँ मुनि कहाँ हैं? जो उनके ही सुयोग्य निवास हो मुनि की अर्द्धांगिनी के वह कर्णक आश्रम कहाँ हैं ? मेरी  यह दृष्टि उन्हें सभी और ढूंड आई  किन्तु उसे वह कहीं दिखाई नहीं दिए ॥ 

जिनके दिब्य मुख दरसन  मम लोचन सुख दाए । 
सोई भामा रिसी मुनि जन, देइ न कहुँ देखाए ॥ 
जिनके दिव्यानन् के दर्शन मेरे इस शिथिल दृष्टि को सुख दें वे ऋषि मुनि एवं वे मुनि भामा कहीं लक्षित नहीं हो रहे ॥ 

शनिवार, ०५ अप्रेल, २ ० १ ४                                                                                        

अनघट अरन्य जहँ लग लाखे । दाव दवन भए श्री हिन् शाखे ॥ 
भयौ राउ मुख कोइर कारे । दिवस काल एहि कालख घारे ॥ 
इस दुर्गम वन में जहां तक दृष्टि जाती है ।  वहां तक दावाग्नि से झुलस में श्रीहिन शाखाएँ ही दर्शित होती है विहीन हुवे विटप ही दर्शित होते हैं ।। उस दाव में वृक्षों का मुख कोयला होकर काला हो गया है दिवस काल को जैसे इन्होंने ही कलुषित किया हो ॥ 

कहुँ त दरसत भयंकर पाखिन । कहुँ बिसील ब्यालहिं लाखिन ॥ 
मग जस मानस चरन न पाऊ । कानन ऐसे सुनै न काऊ ॥ 
कहीं  भयंकर पक्षी दर्शित होते हैं कहीं शीलहीन हिंसक पशु दृष्टिगत होते हैं मार्ग को जैसे किसी मनुष्य के चरण ही नहीं प्राप्त हुवे हैं ऐसा विकत विपिन कहीं भी नहीं सुना ॥ 

कहि सीते पुनि कंठन भर के । को असंक मह जिअरा धरके ॥ 
जे धरकन करि हियरा भारी । जिमि को असुभ होवनहारी ॥ 
माता सीता ने कंठ भर कर कहा कोई अनभिज्ञ आशंका है जिससे मेरा जी धड़क रहा है यह धड़क ह्रदय को भारी कर रही है मानो कोई अशुभ घटना होने वाली हो ॥ 

कहि पिय तुअँ जिन कानन जावन । चितबन कहि परि न भूरावन ॥ 
दहुँ अवसि कोउ भेद धरावा । प्रगसि न मोहि सौंह दुरावा ॥ 
हे भ्राता ! प्रियतम ने तुम्हें जिस वन में जाने को इंगित किया था कहीं तुम्हारे चित्त ने भ्रमवश वह वन विस्मृत तो नहीं हो गया ( और हम किसी दूसरे वन में आ गए ) ॥ यदि भ्रमित नहीं हो तो फिर अवश्य ही तुम्हारे ह्रदय ने  कोई भेद धारण किया है जिसे तुम मेरे सम्मुख  प्रकट नहीं कर रहे और मुझ से गोपन किये हो ॥   

तव लोचनहु धरे घनभारी । करत बारि जे बारहि बारी ॥ 
कहत मात हे मोहि पुकारे । प्रतिपल अश्रु जल चरन  जुहारे  ॥ 
तुम्हारे नेत्र घन घोर घटा से घिरे हुवे हैं । जो  वारंवार जल वर्षा रहे हैं यह अश्रु जल प्रत्येकपल मेरे चरण जुहार रहे हैं । और हे माता कहकर मेरा आह्वान कर रहे हैं ॥ 

अस बदन अस बिकल नयन, सोक परिप्लुत भाउ । 
तेहि बिलग दुखातुर मैं, लाखहुँ तुहर सुभाउ ॥ 
ऐसी मुखाकृति एवं ऐसे व्याकुल नेत्र और उनमें शोक से पीड़ित भाव  हैं इसके अतिरिक्त मैं अपने  प्रति दुःख से आतुर तुम्हारे  स्वभाव का भी लक्षित  कर रही हूँ ॥ 

रविवार, ०६ अप्रेल, २ ० १ ४                                                                                           

तुहरे बदनहु बरन उरेऊ । चिंतन रेख बिबरन परेऊ ॥ 
सगुन अमंगलकर सहसाई । पग पग पथ मैं दरसत आई ॥ 
तुम्हारा मुख भी श्रीहीन हो रहा है उसमें चिंता की रेखाएँ के सह विवरणता घुल रखी है ॥ अयोध्या से आते समय पग पग पर मुझे सहस्त्रों अमंगलकारी शगुन भी होते दिखाई पड़े ॥ 

केहि बिधि कहौं रे मम भाई । मैं आपनि चिंतन के नाई ।  
भागीरथी पार मैं आवा । नाथ  दुरावा मोहि न भावा ॥ 
हे मेरे भ्राता मैं अपनी चिंता की तुम्हें किस प्रकार से कहूँ । मैं भागीरथी को पार कर यहां आ गईं हूँ नाथ से यह दुरी मुझे सुहा भी नहीं रही है ॥ 

हे मौनि लखन कहु सब साँचै ।  भल कि अनभल बचन कह बाँचै ॥ 
मात कहन श्रवनत सकुचाहीं । सिरु नत लखन कहत कछु नाही ॥ 
मौन धारण करने वाले लक्ष्मण अब तुम सब सत्य कहो । अनुकूल हो कि प्रतिकूल जो भी हो तुम उसे उद्भाषित कर दो । माता के यह कथन सुनकर भ्राता लक्ष्मण संकोच करने लगे । अवनत शीश लक्ष्मण  ने फिर भी कुछ नहीं कहा ॥ 

माता पूछत बारहि बारे । लखन करुनई दिरिस निहारे ॥ 
तात तव सों जोरि दुइ हाथा । जो कहु तो पद नावौ माथा ॥ 
माता सीता वारंवार पूछती हैं और भ्राता लक्ष्मण उन्हें करुणामयी दृष्टि से निहार रहे हैं । माता कहती हैं हे तात मैं तुम्हारे सम्मुख हाथ जोड़ती हूँ यदि कहो तो अपने मस्तक को तुम्है चरणों में नवाकर दंडवत हो जाऊं । 

श्रिया बदन जे बचन निकसाहि । द्रवित हो लखन कहि नाहि नाहि ॥ 
मैं तनय तुम्हरे अनुरागी । कारु न मोहि पात के भागी ॥ 
मंगल मूर्ति के श्री मुख से यह वचन निकलते ही भ्राता लक्ष्मण द्रवित होकर बोले नहीं नहीं माता । मैं तो तुम्हारा अनुरागी  पुत्र हूँ  ऐसा करके मुझे पाप का भागी मत कारित करो भला माता भी कहीं पुत्र के चरण प्रणमित करती हैं ॥ 


लखमन नयन सनीर, आकुल उद्विग्न अधीर । 
अस कह हिय भर पीर, घुटरु बल सिय चरन गिरे ॥ 
ऐसा कहकर भ्राता लक्ष्मण नीर योगित नयन एवं पीड़ा युक्त ह्रदय लिए  व्याकुल उद्धिग्न एवं अधीर होकर  माता सीता के चरणों में नलकील के बल गिर पड़े ॥ 

सोमवार, ०७ अप्रेल, २ ० १ ४                                                                                                              

परेउ लकुट इब चरनिन्ह लागी । अवपद लखमन चितब अभागी । 
दयासील लोचन भरि लाई । बिलखत पुत अरु चितबत माई ।। 
वह किसी दंड के जैसे गिरे और माता के चरणों से लग गए ।  भ्राता लक्ष्मण गिरे हुवे हैं और अभागी माता स्तब्ध मुद्रा में हैं फिर उस दया की मूर्ति के नयन भर आए और  इधर पुत्र बिलख रहा है उधर माता भरे एवं स्तब्ध नेत्रों से उन्हें दर्श रही हैं ॥ 

निपतित लखमन तरपत ऐसे । तपन धरे सागर जर जैसे ॥ 
बिदीरत हरिदै कस तिलछिते । जल कन घन जस रचन अकुलिते ॥
भ्राता लक्ष्मण माता के चरणों में गिर कर ऐसे तड़प रहे हैं जैसे की टॉप धारण कर सागर तड़पता हो ॥ उनका विदीर्ण ह्रदय कैसे व्याकुल हो रहा है जैसे सागर के जल कण घन रचने को आकुल हों ॥ 

धरी सिया कर कर सिरु नागर । धरे सिंधु जस सूर केतु  कर ॥
भए अकुलात उठा तब कैसे । काल गहन धनबन घन जैसे ॥
माता सीता ने अपने प्रिय देवर के शीश पर हाथ कैसे रखा जैसे सिंधु के शीश पर सूर्य केतु ने कर रखा हो ॥ भारता लक्ष्मण व्याक्यल स्वरूप में कैसे उठे । जैसे सिंधु से गहरे काले मेघ उठ रहे हों ॥ 

लखि  कस लखमन बदनारविन्दु । घन काल गगन अरु बिंदु बिंदु ॥
धराधिअ ताहि  कस अवगाही । बुए बिआन जस जल बोराही ॥
लक्ष्मण का पद्मान्न कैसे लक्षित हो रहा है । जैसे गगन में काले घने मेघ छाए हों और वह बिंदु बिन्दु हो गया हो । धराधी  उअसमें कैसे निमग्न हो गईं । जैसे उपजी हुई उपज हो और वह जल में निमग्न हो गई हो ॥ 

मनोदाह द्रव कस उमगाही । बिंदु गहे जस नदि बह आई ॥
मृदुल हृदय कस दलक उठेऊ । जस धनबन को घन दलकेऊ॥
मन की पीड़ाएं द्रव बन कर कैसे उमड़ी । जैसे मेघ बिन्दुओं को ग्रहण किए कोई नदी बही आ रही हो ॥ मृदुल ह्रदय किस प्रकार विदीर्ण हुवा । मानो गगन में कोई  घन विदीर्ण हो रहा हो । 

क्लेस जे ऐसा  दरसनअह आहह हे सोक अहे । 
पिय बिरहन संका सिय घन अंका बायुर मै रूप लहे ॥ 
दिए सकल बिदारे जल जल कारे पलकेन के कुञ्ज गली । 
दोइ कूल बाही कन कन गाही असुअन नदिया बहि चली ॥ 
यह कैसी पीड़ा है हे शोक !आह !यह कैसा दर्शन है प्रियतम के विरह की आशंका है माता सीता के अश्रु गृहीत दुःख मेघ है तुमने वायुर का रूप धारण कर लिया है ॥ और सभी मेघ समूहों को विदीर्ण  होकर पलक स्वरूपी लताओं से घिरे पंथ को वारि-वारि कर दिया । दो भुजा रूपी तटों में इस अश्रु रूपी वारि को ग्रहण कर  जैसे उस पंथ से कोई नदी ही बही चली आ रही है ॥ 

रघुकुल के कल चंद्रमा बिपदा देइ सुनाउ । 
हे गहनमई निभानन, अजहुँ न मौन धराउ ॥ 

हे रघुकुल के चन्द्रमा अब तुम वह विपदा कह दो हे ग्रहणयुक्त चमकते हुवे चन्द्रमा रूपी मुख अब तुम मौन का त्याग कर मुखरित हो जाओ अन्यथा यह नदी का स्वरूप और अधिक विकराल हो जाएगा ॥ 

मंगलवार, ०८ अप्रेल २०१४                                                                                                       

आयसु आज्ञा जे रघुबर के । कहत लखन तव चरनन धर के ॥ 
होत बिकल बल सकल सँजोई । मात बचन यह नीक न होई ॥ 
हे माता यह आदेश जो रघुवीर की है लक्ष्मण तुम्हारे चरण पकड़ कर कहता है फिर वह व्याकुल होकर सारा बल संजोत हुवे बोले हे माता !यह आदेशित वचन आपके अनुकूल नहीं हैं ॥ 

हिलकत हिलगत ह्रदउ  हिलोले । हहरत लखन बहुरि जो बोले ॥ 
एक एक बरन नयन सों भ्राजे । अस बादिन जस नभ घन बाजे ॥ 
हिचकते हुई हृदय तरंगों के साथ कांपते-सिसकते हुवे फिर भ्राता लक्ष्मण ने जो कुछ कहा उस कथन का एक एक वर्ण नयनों में चमकने लगे और वह ऐसे स्वर करने लगे जैसे  नभ में घन गर्जना कर रहा हो ॥

 जस भूमि भवन गहन घन घिरे। द्रोह चिंतन द्यो द्युति गिरे ॥ 
त्याग त्याग धुनी कुलीसा । कर गर्जन गिरि सिय के सीसा ॥  
मानो किसी भूमि पर कोई भवन मेघों से घिरा हो और अनिष्ट कारित करने हेतु गगन से उसपर द्युति गिरी हो ॥ त्याग त्याग की ध्वनि ही वही द्युति हैं जो माता सीता रूपी भवन के शीश शिखर पर गर्जते हुवे गिरी है ॥ 

मूदि नयन अरु कर धरि काना । धनबन धुनी तरंग बिताना ।। 
 कारे धम धम धवन धवानहि । मुख सन निकसे बहोरि नहि नहि॥ 
माता ने आनखे बंद कर ली और हाथों को श्रुति साधन को आवरित कर लिया किन्तु आकाश है कि  उस ध्वनि की तरंग दैर्ध्य का विस्तार किये हैं । और जैसे धम धम की ध्वनि गुंजायमान हो रही है ॥ 

मेघा छादन बन गगन, घुर्मित लोचन माहि ।  
दुहरात मुख बिहुर बचन, बहुरि बहुरि कहि नाहि ॥ 
मेघों से आच्छादित वन का वह गगन माता की आँखों में घूमने गए उनका श्री मुख त्याग के वचनों को दोहराने लगा वे वारंवार नहीं नहीं का उच्चारण करती हैं ॥ 

बुधवार, ०९ अप्रेल, २ ० १ ४                                                                                                      

पिय कृत कारि दरस अनुरागी । आपनि जीवन मोहि त्यागी ॥ 
अइसिहु कवन भूल करि भारी । प्रनइन मोरे प्रनय बिसारीं ॥ 
विष्णु स्वरूप श्रीराम चन्द्र सब पर अनुराग रखते हुवे सभी को स्नेह की दृष्टि से देखने वाले हैं उन्होंने अपने जीवन से मुझे त्याग दिया  । मुझसे ऐसी कौन सी भारी भूल हो गई जो प्रणय-प्रार्थी ने मेरे प्रणय को बिसार दिया ॥ 

हा जग एक बीर रघुराया । केहि दोष बिसारेहु दाया ॥ 

पाख राखनहु न अवसरु दाए । एकैहु बारए न कान धराए ॥ 
हा जगत के अद्वितीय वीर रघुनाथ जी आपने मुझे किस दोष के आधार पर त्याग दिया । मुझे अपबना पक्ष रखने तक का अवसर भी प्रदाय नहीं किया । और त्याग के विषय में एक बार भी नहीं कहा ॥ 

आरत हरन सरन सुख दायक । रघुकुल दीपक हा दिन नायक ॥ 
करत बिहुर ऐसेउ दुरावा । का मोहि तव हिया ना भावा ॥ 
हे दुखों को हरने वाले शरणा जाटों को सुख देने वाले हा रघुकुल के दीपक और उस कुल दिवस के नायक ॥ आपने मेरा त्याग कर मुझे दूर कर दिया क्या आपके ह्रदय को मेरे निमित्त  कोई भाव नहीं हैं ॥ 

आह बिपति सुनाऊ  को प्रभुहि। को जा तिनके करन धराऊ ॥ 

रुदत करुनकर करत बिलापा । सुनि बन जीवन भए संतापा ॥ 
आह! मेरी यह विपत्ति कोई प्रभु के श्रुति साधन तक पहुंचा दे उन्हें मेरी विपदा सुना दे । माता सीता करुणमयी क्रंदन करते हुवे विलाप कर रहीं हैं । उनका विलाप देखकर समस्त वन्य जीवन सन्तापित हो उठा है ॥ 

करुना सूत बध असुअन पाँति । रोदति बदति सिय बहुसहि भाँति॥ 
बाँधि हिया धर धीरज गाढ़े । दरकि सकल लए एकैहि बाढ़े ॥ 
 करुणा की सूत्र में आंसुओं की पंक्तियाँ पिरोती हुई माता सीता क्रंदन कर बहुंत प्रकार के वचन कह रही हैं। जिनके  ह्रदय में धीरज, गहरा होकर सदैव बंधा रहता था । एक बाढ़ में ही वह बाँध टूट गया ॥ 

सोकाभिभूत भाव सों बिहबल बदन बिलोक । 
सोकातुर भए लखन अरु चितबत भए बनलोक  ॥ 
शोक से अभिभूत भावों से विह्वल उनका मुख देखकर लक्ष्मण भी शोक से आतुर ही गए और सारा वन जीवन स्तब्ध हो गया ॥ 

( प्रस्तुत पंक्तियाँ रा. च. मा से प्रेरित हैं ) 

बृहस्पतिवार, १० अप्रैल २०१४                                                                                                    

एक तौ तिसनित गर्भिन तापर । कटी बेलि जस गिरी धरा पर ॥ 
बिलगित पिय सो तरु के नाई ।  होत मुरुछित भइ धरासाई ॥ 
एक तो तृष्णित  उसपर गर्भ धारण किये हुवे ऐसे दशा में वह भगवान श्रीराम चन्द्र रूपी तरुवर से वियुक्त होकर कटी हुई बेल के सदृश्य धरती पर गिर गई ।  और धराशयी होकर मूर्छित हो गईं ॥ 

मात सिया जब भू पत देखा । लखमन माथ चित चिंतन रेखा ॥ 
पत प्रहरावै करत सचेता । मात मात कह बहुतहि हेता ॥ 
 भ्राता लक्ष्मण ने माता सीता को जब भूमि पर गिरते हुवे देखा तब उनके मस्तक पर चिंता की रेखाएं चित्रित हो गईं ॥ फिर उन्होंने पल्लवों को प्रहरित करते हुवे माता को सचेत करते हुवी माता ! हे माता !! कहकर बहुंत ही स्नेह किया ॥ 

अरु जब जागी चेतनताई । रुदत कहत हे नाथ दुहाई ॥ 
होत अधीर ब्याकुल भारी ।  नाथ नाथ हाँ नाथ पुकारी ॥ 
और जब उनमें चेतनता जागृत हो गई । तब वह क्रंदन करते हुवे कहने लगी हे नाथ दुहाई हो ॥ माता अधीर होते हुवे अतिशय व्याकुल होकर दुखित स्वर में भगवान श्रीराम को पुकारने लगी ॥ 

पलक पंकज पत हहरत दोले  । सोकाबेग करूनामइ  बोली ॥ 
भयउ न पातक को मम ताईं । तजि मोहि प्रभु अवध की नाई ॥ 
पंकज -पत्र के सदृश्य पलकें कम्पित होकर दोलायमान हो गई    वह करुणा की मूर्ति शोक के वशीभूत होकर कहने लगी कि । मेरे जैसा पापी इस जग में कोई नहीं है । प्रभु ने मुझे अवध के जैसे त्याग दिया ॥ 

प्रभाबिता मम पुरुख परम प्रभबिष्नु महा बोध । 
करें त्याग निरनय कस, किए बिनु मोहि प्रबोध ॥  
श्री विष्णु की प्रभा से युक्त मेरे स्वामी जो महा सुबुद्धि एवं परम पुरुष हैं । उन्होंने बिना प्रबोधित किये मेरे त्याग का निर्णय कैसे ले लिया ॥ 

शुक्रवार, ११ अप्रेल, २०१४                                                                                                        

प्रिय कृत कारि मोरे स्वामी ।सर्वव्यापक  अंतरजामी ॥ 
सोइ जानत कि सिय निहपापा । देइ बहुरि कस परिहरु श्रापा ॥ 
सबका कल्याण करने वाले विष्णु स्वरूप मेरे स्वामी जो सर्वत्र व्याप्त  है एवं सबके अंतर्मन के संज्ञानी हैं। यह जान कर भी  कि मेरी सीता निष्पाप है । फिर उन्होंने मुझे त्याग का श्राप कैसे दिया ॥ 

भय निठुर पिया अस निर्मोही । परिभंग हृदय करिअहि मोही ॥ 
मारज के मुख एकै कहाई । जीवन संगिनी दिए परिहाई ॥ 
प्रियतम इतने निष्ठुर ऎसे निर्मोही हो गए । कि उन्होंने मुझे प्रभंगित ह्रदय कर दिया । और धोबी के कहे एक ही वचन से अपनी जीवन भर की संगिनी को त्याग दिया ॥ 

पिया मोहि मह नहि को खोरी । ररत नाम हरि दुहु कर जोरी ॥ 
निलय दहन अरु लोचन धूमा । कस्मल मुख अरु परे पहूमा ॥ 
इस प्रकार माता सीता दोनों हाथ जोड़कर प्रभु के नाम की रटन  किए कहती रही हे प्रियतम ! मुझमें कोई खोट नहीं है । तत्पश्चात  माता के ह्रदय में पीड़ा रूपी अग्नि का वास हो गया और नेत्रों में शोक का धुंआ छा गया  और  वो मलिन मुख लिए पृथ्वी पर गिर पड़ी ॥ 

कहत बचन अस केतनि केता । मात सिया पुनि भई अचेता ॥ 
लखन नयन जल धारा छूटे । निर्झरनिहि जस निर्झर फूटे ॥ 
ऐसे जाने कितने वचन कहते हुवे भूमि पर गिरकर फिर माता  पूण: अचेतावस्था को प्राप्त हो गईं । भ्राता लक्ष्मण की  आँखों से अश्रुकी  धारा ऐसे फूट पड़ी कैसे किसी पहाड़ी से कोई झरना फूट पड़ा हो ॥ 

दरस दीन दयनइ दसा, सोकिन बदन सनीर ।  
जनि अचेत यह दुर्गम बन  कह भए लखन अधीर ॥ 
पीड़ा से युक्त अश्रुपूरित श्री मुख लिए वे माता की विपति में गहरी दयनीय दशा को देखकर यह कहते हुवे कि  माता अचेतावस्था को प्राप्त हैं और यह दुर्गम वन वह अधीर हो गए ॥ 

शनिवार, १२ अप्रेल, २ ० १ ४                                                                                                     

हे भ्रात भगत सुमित्रा नंदन । हे बीर बिपुल रघुकुल चंदन ॥ 
गवनु बेगि तुअँ अवध पयानो । मोर बचन प्रभु करनन दानो ॥ 

दिरिस बिमुख निज मोहि कीन्हे । छाँड़ि बन दारुन दुःख दीन्हे ॥ 
मन क्रम बचन अरु सोंह काया । गहि मम प्रीति चरन रघुराया ॥ 

जोइ सरबस जगत अनुकूला । होहिं कस मम सोंह प्रतिकूला ॥ 
धरम धुरंधर जस के सागर । कहहु तिन्ह यह रे प्रिय नागर ॥ 

मुनिबर बसिष्ठ ठान बुलाहू । तिनके सौमुख पूछ बुझाहू ॥ 
जानइ नाथ सिया अघहीनी । बहुरि काहू तीन बिहुरन दीनी ॥ 

भुइ भरन भव के भूषन, त्रिभुवन भूप अनूप । 
जेइ रघुकुल अनुरूप कि,श्रुति ज्ञान फलीभूत ॥  

रविवार, १३ अप्रेल,२ ० १ ४                                                                                                      

कहत बचन अरु बहुतहि भाँती । परे सिया जब हरिदै साँती ॥ 

जागत  बिबेक कहि नत सीसा । मोर स्वामिन कोसलाधीसा ॥ 

जगदानन्द जोइ जग जीवन । जगद मोहन जगतिजग वंदन ॥ 

जिनके करि जे जग संचारे । जो प्रियकर सरबस हितकारे ॥ 

तिनके कृत करनी आधारे । मोर रोदन सुवारथ सारे॥ 

कारन जग जन  भलमनसाई । जेहि कर प्रभु मोहि बिहुराई ॥ 

होहि  बिबसता कोइ न कोई ।ता मह प्रभु को दोष न होई ॥ 
रहूँ चरन अनुरागिनि तोरे । ऐसेउ त बड़ भाग न मोरे ॥ 


कोउ करम दोषु अधीन रहि नहि प्रभु पद जोग । 
मम प्रारब्ध भए कारन, दिए जो मोहि बियोग ॥ 

सोमवार, १४ अप्रेल, २०१४                                                                                                    

त्रास हरन रघुकुल बर नायक । द्वन्द भंजन जन सुख दायक ॥ 
होए जगत सर्वत्र कल्याना । तजन करन किए दया निधाना ॥ 

प्रभु सर्बग्य सर्बस ग्यानी । प्रभु सम सागर सिय घन पानी ॥ 
ताप धरे तन सोंह त्यागे । धारे अन्तर्मन अनुरागे ॥ 

पर जिन तिय पिय परिहरु दानी । होहहि अस जस तन बिनु प्रानी ॥ 
कहत कहत सिय रोवति हीची । छाँड़ि साँस बिसरत भित खींची ॥ 

नयन नदी अरु धारे कर तुल । अवरुद्ध कांठा दरसत आकुल ॥ 
जात पास जिउ साँसत आना । प्रान पखी पर उर नहि जाना ॥ 

बैदेही दुखमै देहि, घोंसला सोंह लाखि । 
प्रान पखेरु आन कंठ, अजहुँ घरे नहि पाखि ॥  

मंगलवार, १५ अप्रेल, २ ० १ ४                                                                                            

लखमन जों सिय बदन निहारे । कहे मात हे प्रान सँभारेँ ॥ 
मात कही हे भ्रात सयाने । तुअँ चिंतहु नहि हुँत मम प्राने ॥ 

आपनि मन प्रभु सुमिरन कारत । धारिहु प्रान घन बन बासत ॥ 
अमित बोध भव सागर खेवा । मम सर्वस आराधिन देवा ॥ 

गर्भनि तिन के तेज गहाहे । प्रान तिन हुँत रच्छन रखाहे ॥ 
गवनौ अब तुअँ कौसल देसे । मातिन्हि बिहुर देइ सँदेस ॥ 

मात चरन मम बंदन देहू । मम तैं तुहहिं आसीर लेहू ॥ 
प्रभु सो कहिहु सोक न कारें । तुहरे अग्या सिय सिरु धारे ॥ 

जदपि बासि बन घन बिकराला । बिकट बिसंकट कपट ब्याला ॥ 
तलहट औघट घन अंधियारा । सूचि भेदि न केतु पत हारा ॥ 

जाकी प्रीत प्रभु पद गहि, तिनहि काल न ब्याप । 
मन बसिया रच्छा करे, जहाँ सिया तहँ आप ॥ 

बुधवार, १६ अप्रेल, २ ० १ ४                                                                                                         

तुम तैं प्रभु बचन पूरनिते  । भ्राता भगत हुँत सोइ उचिते ॥ 
अजोधा नाथ पद कमलीना । तुम्ह सेवक वाके अधीना ॥ 

राम रबि सोंह बिहुरी केतू । मैं सठु सब अनरथ कर हेतू ॥ 

दरस बदन सिय भर भर लोचन । बहुरन बहोरि लखन गहि चरन ।। 

सुखे अधर अरु  अँसुअन पानए  । कहत लखन अब अग्या दानए ॥ 
नाए माथ कर जोर जुहारे । रज सरिरुह सिरु सरिबर धारे ॥  

धरे सीस कर असीस दाने । कहि सफल हो तुहरे पयाने ॥ 

निरखि बदन सन दिरिस सनेहू । कहै मोहिहि भूरा न देहू ॥ 

नयन सूती जल सुत लिए दिनकर कुल के दीप । 
बहुराए बहु सिथिर चरन, गवनन नाथ समीप ॥ 

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