Wednesday 19 June 2013

----- ॥ उत्तर-काण्ड 2॥ -----

नभो नयन पट घन गहनाई  । रतनारि छटा कन बरखाईं ॥ 
बोइ बिरह बिय मिलन उपजाए । होत कातर रघुबर नियराए ।। 
नभ रूपी नयनों के पटल पर गहरे बादल छा गए । नयन लालिमा जल बरसाने लगी । वियोग के बोय बीजों से संयोग की उपज हुई ॥ कातर होते हुवे प्रभु राजा भरत के और निकट आ गए ॥ 

कथनत भरत कहहुँ रे भाई । बार बार मुख ररन लगाईं ॥ 
ररकत उरस त सागर चाढ़े । नयन अगास निर्झरि झारे ॥ 
यह कहते हुवे कि रे भाई ! तुम कहाँ हो ? उनका मुख वारंवार भरत के नाम को ही पुकार रहा था ॥ तापित ह्रदय रूपी सागर जैसे नयन रूपी नभ में चढ़ गया । उस नभो-नयन से झरना ही फूट पड़ा  ॥ 

भरत नयन प्रभु साखिन लाखे । बृंद बिंदु जल बाँध न राखे ॥ 
प्रभु प्रभु बोलत हहरत छाँती । परे भुँइया दंड के भाँती ॥ 
भारत की आँखों न जब प्रभु को साक्षात देखा । तो वे अश्रु के कण समूहों को बाँध न पाए ॥ प्रभु! प्रभु!! कहकर उन का ह्रदय भवन कम्पन करने लगा । और वह भूमि में दंडवत गिर पड़े ॥ 

भ्रात प्रभु जब दण्डबत दरसे । धरत निलय अतिसय उत्करसे ॥ 
लंबत दुइ भुज तिन्ह उठाईं । करत नेह निज निलय लगाईं ॥ 
जब प्रभु श्रीराम ने भ्राता भारत को दंडवत स्वरुप में देखा तब ह्रदय में अत्यधिक उत्कंठा धारण कर दोनों भुजाएं प्रस्तारित कर उसे उठा लिया और सनेह करते हुवे अपने हृदय से लगा लिया ॥ 

लग भुज सिरु बहु क्रंदन कारें। प्रणमत प्रभु पद कस कै धारे ॥ 
अहुरे अहुरे कह प्रभु धरने ।  बहुरे बहुरे कर गहि चरना ।।  
भुजाओं से लगे राजा भरत फिर क्रंदन करने लगे । प्रणाम अर्पित कर प्रभु के चरणों को कास कर पकड़ लिए ॥ आ रे! आ रे !! कह कर प्रभु उसे वारंवार उठाते । वह वारम्वार प्रभु लौटे ! प्रभु लौटे !! कह राजा भरत चरण पकड़ लेते ॥ 

लाखे जल लोचन, दधि गोरोचन, दुर्बा भइ अलक अली । 
कर चरनन धारे, कलसी थारे, भयउ भजन पुहुप कली ॥ 
अरु अरुनाई  जगमगाई मानहु जुगल जोति जरे । 
कोटिसह प्रनामा, लै प्रभु नामा, भरत पद अर्चन करे ॥   
उसकी आँखों का जल, पयस हो गईं पलकों की अलिक पंक्तियाँ दुर्वा हो गईं कर क्लास थाल होकर हो गईं उन पर प्रभु के चरण धरे । प्रभु का उपास्य नाम पुष्प की कलियाँ हो गईं ॥ और नयनों की अरुणाई एस जगमगाई मानो कोई युगल ज्योति प्रज्वलित हों । फिर राजा भरत ने, प्रभु श्रीराम का नाम लेकर उनकी वंदना करते हुवे, उनके चरणों में करोड़ों प्रकार से प्रणाम अर्पित किया ॥ 

राम अनुरत कहत भरत, दरपह दीनानाथ । 
अहो भाग तव चरन रज, परस लहे मम माथ ॥ 
प्रभु श्रीराम की भक्ति में ही अनुरक्त भारत ने कहा : -- दर्प का हरण करने वाले,दीन-दुखियों की रक्षा करने वाले हे प्रभु ! मेरा यह सौभाग्य है कि आपके चरणों की श्री रेणु का स्पर्श मेरे मस्तक को प्राप्त हुवा ॥ 

बृहस्पतिवार, १२ दिसंबर, २ ० १ ३                                                                             

मैं खल अति पापाचारी । मम पद धरनिहि ऊपर भारी ॥ 
सौंहृदए निधान किरपा सिंधु । प्रभु छमासील हे दीनबंधु ॥ 
भगवन ! मैं अतिशय दुष्ट एवं पाप का आचरण करने वाला हूँ । मेरे चरण धरती पर बोझ हैं ।। हे सद्भावना के भण्डार सवरूप हे कृपा के सागर, क्षमा शील, दीन-दुख्यो के सहायक प्रभु श्रीराम ! 

नाथ मोहि पर अनुग्रह कारैं । दें असीस निज कर सिरु धारैं ॥ 
अहह सिय कर कोमली पोरें । जान परे जिन पारस कठोरे ॥ 
हे स्वामी ! मुझ पर अनुग्रह करें अपने हाथ मरे शीश पर रखकर मुझे आशीर्वाद दें ॥ आह! जिन्हें माता सीता के कोमल पोरों का स्पर्श भी कठोर जान पड़ता है : - 

कमल चरन सो अह मम कारन । काँकरि पथ चरि बिचरे बन बन ॥ 
अस कहकर धर दीनै भावा । भरत नयन बहु जल बरखावा ॥ 
वह कमल के सादृश्य चरण हाय ! मेरे कारण कंकड़ से युक्त पथ पर वन-वन फिरे ॥ ऐसा कहते हुवे भरतराज  ने  दीनभाव से आँसू बुहाते हुवे : --

प्रभु चरनन भुजांतर धारे । सौतुख तिन कर जोरत ठारे ॥ 

पुनि करुणा सागर श्री रघुबर । लघुत भ्रातन्ह कंठ कलित कर ॥ 
प्रभु श्रीराम के चरणों को आलिङ्गन किया और विह्वल होकर उनके सम्मुख हाथ जोड़कर खड़े हो गए । तदोपरांत करुणा के समुद्र श्रीरघुनाथजी ने अपने छोटे भाई को कंठ लगाकर  : -- 

कुसल छेम जब पूछ बुझाईं । भाव बिहल कछु कह नहिं पाईँ ॥ 

बहुरि सचिव सो प्रभु सिरु नाईँ । भेंटत सब पूछें कुसलाई ॥ 
उसकी कुशल क्षेम पूछी किन्तु भ्राजी उस समय भावों की विभोरता के कारण कुछ कह नहीं पाते ॥ फिर प्रभु वृद्ध सचिवों को प्रणाम किया एवं वहाँ उपस्थित सभी जनों से भेंट कर उनकी कुशलता पूछी ॥ 

सह संगिनी सिया चरन, नए भरत नत सीस । 

मात कमल कर सिरौ धर, देइ बहुसइ असीस ॥ 
तब प्रभु के साथ उनकी अर्द्धांगिनी जगद्जननी सीता के चरणों में  भरत ने नतमस्तक होकर प्रणाम अर्पण किया ॥ 

शुक्रवार, १३ दिसंबर, २ ० १ ३                                                                                      

कहे भरत जनि दरसत कैसे । बिन्ध्यारि बधु लुपामुद्रा जैसे ॥ 
बदन कलस रूप रस कस रिसे । मुनि अत्रि बधु अनुसुइया सरिसे ॥ 
भरतराज कहते हैं : -- माता सीता के दर्शन कैसे प्रतीत होते हैं जैसे कि वह अगस्त्य मुनि कि भार्या लोपामुद्रा का ही स्वरुप हों ॥ उन्की मुखाकृति के कलश से रूप का रस कैसे टपक रहा है जैसे मुनिश्री अत्रि की पतिव्रता पत्नी अनुसूया का रूप बह रहा हो ॥ 

जनक किसोरी दरसन कारे । भरत जगत जनु जनम सुधारे ॥ 
बार बार नत कहत पुकारा । मात मूढ़ यहु तनय तुहारा ॥ 
तथा काल जनक की किसोरी जानकी के दर्शन प्राप्त कर भरतराज का जीवन जैसे सार्थक हो गया । वे वारंवार माता के सम्मुख नतमस्तक होकर कहते जाते हे माता ! आपका यह पुत्र महामूर्ख है ॥ 

भयौ दूषन जोइ मम ताईं । कृपा करनी तिन्ह छम दाईं ॥ 
तुम्ह सरिस पतिबर्ता चारिन । सबहिन्ह केहु मंगलकारिन ॥ 
मेरे द्वारा जो भी अपराध हुवा, हे कृपाकारिणी हे माता ! उन्हें क्षमादान करें, क्योंकि आप जैसी पतिव्रत का आचरण करने वाली स्त्रियां, सबकी शुभाकांक्षी होती हैं ॥ 

जनक सुता पुनि परम सुभागी । निज नागर निरखत अनुरागी ॥ 
छिरकत नेहु पद्म लोचन पल । बूझिन तिन्ह के मंगल कुसल ॥ 
फिर परम सौभाग्यवती जनक नंदिनी ने अपने देवर भरत की ओर अनुराग पूरित दृष्टि से देखते हुवे एवं अपने पद्म सरिस नयन पत्रों से स्नेह बरसाते हुवे उनका कुशलता पूछी ॥ 

पुनि सबहि बर जानारुढ़, गमने सरनि अगास । 
छन प्रभु पितु कोसल पुरी, देखि नयन पथ पास ॥ 
तत पश्चात उस श्रष्ठ यान में आरूढ़ होकर सब-के-सब आकाश पंथ में गमन करने लगे छान भर के पश्चात प्रभि श्रीरघुवर ने अपने पिता की राज धानी अयोध्या पुरी को निकट से देखा ।।  

निज धानी निरख परभू, हरषत अतिहि भए नंदू । 
जगत पितु जँह स्वयंभू,कारें तिनके वंदु ॥ 
अपनी उस धाम को देखकर भगवान अत्यधिक प्रसन्न हुवे । सारे जगत के पिता जिस स्थान पर स्वयं उत्पन्न हुवे वे उसकी वंदना करने लगे ॥ 

शनिवार, १ ४ दिसंबर, २ ०१ ३                                                                                    

उत रमनत सब नागर लोगे । पलक डसाए प्रभु पथ जोगे ॥ 
पुलकित रोमनावली ठारी । प्रभु दरसन लाहन धीर न धारी ॥ 
उधर सभी पुरवासी लोग इधर-उधर फिरते हुवे  पलक पावड़े बिछाए प्रभु के आगमन की प्रतीक्षा कर रहे थे । उनकी रोम पंक्तिया पुलकित हो कर उत्संजित हो उठी एवं पभु के दर्शन की लालसा अधीर हो उठी थी ॥ 

इत भरत सचिव सुमुख बुलायो । जान तर नगरि भीत पठायो ॥ 
कहि एक नागर परब प्रबंधें । अठ गंधक सन पुर पुर गंधे ॥ 
विमान से उतर कर इधर भरतराज अपने सचिव सुमुख को बुलाये । एवं उनहन नगर के भीतर यह कहते हुवे भेजा ॥ एक 'नागरिक-उत्सव' का प्रबंध करें । सभी आपण, नगर द्वार, वसति, गृह, भवन इत्यादि अष्टक गंध ( चन्दन, अगरु,
कर्पूर,तमाल,जल,कुमकुम,कुशीत एवं कुष्ठ दर्व्यों के मिश्रण का सार )से सुगन्धित हों ॥ 

सब मंदिर मुख साज सँजोवें  । डहर डहर सुख सुधिकर होवें ॥ 
चौहट चंदनी द्रव फ़ुहारें । ता पर सुरूप पुहुप प्रस्तारें ॥ 
सभी मंदीर के द्वार का श्रृंगार करें । पंथ पंथ पर शुद्ध हो कर संचरण हेतु सुख कारी होवें । चौंक चौबारों पर चंदनमिश्रित द्रव का छिड़काव कर फिर उसके ऊपर सुन्दर स्वरुप वाले पुष्प का बिछा दिए जाएँ ॥ 

घर घर गोपुर प्रहर पताके । दीपक माणिक मंजरि लाके ॥ 
भीत भीत लिपि करमन कारें । सर्वतोभद्र चक चित्र उकारें ॥ 
घर घर में एवं के मुख्या द्वारों पर ध्वज पताका प्रहरण करते हुवे उसपर माणिक्य दीपकोण की मंजरियाँ लगाएँ ॥ समूची भित्तिकाओं का लेपन करें । जो सर्वतस कल्याण कारी हो ऐसे चित्र उकेरें ॥ 

रुक्मी उजियाला चम्पक माला सुरभित सुख सौगन्धें । 
सुठि रचनाकारी, दुआरि दुआरि बँदनीबार बंधे ॥ 
चौकी पूराऊ मंगल गाऊ पूजन भगवन किए जै । 
दीपक जोतिर् लह रेनुसार सह आरती थारी सजै ॥ 
स्वर्णकी आभा युक्त दीप्ती मन को सुवासित करने वाली सुन्दर गंध युक्त चम्पक मालाएँ सुंदरता पूर्वक रची हुई बंदनवार द्वार द्वार बंधे ॥ चौकोण में अल्पना रचित कर भगवन कि जाए जैकार करते हुवे  मंगल गान करो । दीपक-दीप्ती से युक्त कर्पूर के संयुक्त आरती थाल सजाओं ॥ 

कलस मंगल द्रव्य धरे, तोरन के सुख छाँव । 
प्रभु आगवनु के उछाव, बधाव सहित मनाउ ॥ 
तोरण की सुख छाया के नीचे मंगल पदार्थों से परिपूर्ण कलश रखें । एवं प्रभु श्रीरामचन्द्रजी के आगमन का उत्सव धूमधाम से मनाएँ ॥ 

रविवार १५ दिसंबर २ ० १ ३                                                                                       

सुनत सुमुख पुनि भरत सुबचना । रचावन बिबिध बिधि के रचना॥  
कोसल नगर अंतर प्रबेसे । प्रभु आवन के लिए संदेसे ।। 
भरत के ऐसे सुन्दर वचनों को सुनकर कौसल नगरी अयोध्या में विविध भांति की रचना रचाने हेतु फिर उनके मित्र एवं सचिव सुमुख ने प्रभु के आगमन का सन्देश लेकर नगर के अंतर में प्रवेश किया ॥ 

सब पुर बासिन हूँत हुँकारा । सब जन बहुसहि पुलक निहारे । 
घोषत प्रभु आवन त्यौहारू  । कहि पुर दुलहिन सम सिंगारू ॥ 
वे सब नगर नागरिक का आह्वान करते हुवे उन्हें पुकारने लगे । सारी परजा पुलकित होकर उन्हें आशा भरी दृष्टि से देखने लगी । उन्होंने प्रभु श्रीराम के आगमन की घोषणा करते हुवे कहा समूची नगरी को नई दुल्हन के जैसे श्रंगारों ॥ 

बिरहन दुःख सन पहलै लोगे । तजे रहीं आपन सुख भोगे ॥ 
राम अजोधा पुरी नियराए । सुनि पुरबासी अतिहि हरसाए ॥ 
प्रभु श्री राम के वियोग-जनित दुःख से नगरवासी पहले ही अपने सुख साधनों का त्याग कर चुके थे ॥ भगवान श्रीराम अयोध्या पुरी के निकट आ गए हैं ऐसे वचन श्रवण कर वे अत्यधिक हर्षित हो उठे अर्थात प्रभु के वियोग का दुःख जाता रहा ॥ 

 प्रभु आवन जब पाए सँदेसे । भरि नउ भूषन नउ नउ भेसे ॥ 
बेद बिदित भूसुर लिए कूसा । पीतम पटतर कटिबर भूसा ॥ 
एवं जब नगर के अंतर में आगमन का सन्देश मिला, तब वे नए नए आभूषण के सह नए नए वस्त्र धारण करने में व्यस्त हो गए ॥ वैदिक ज्ञान से परिपूर्ण  अपने हस्त मुकुल में कुशा लिए कंधे पर पीतम वर्ण का पट उतारते कटि पर श्रेष्ठ विभूषा से सुसज्जित हुवे पवित्र सुधीजन॥ 

जोई बर धू तू संग्राम भू बिजइ बीर नेकनेका । 
धनुर्धर पानि सोई अभियानि, समर प्रबीन प्रबेका ॥ 
धनि  बनियारे बनाउनहारे सुबरन कन कर सँजोहीं । 
हरिजन सोहीं द्विज भगत जोंहीँ धर्म कर्म दृढ़ होहीं ॥  
जिन्होंने संग्राम भूमि में अनेकों श्रेष्ठ से श्रेष्ठ नर सिंगों पर विजय प्राप्त की थी । धनुष बाण धारण करने वाले वे आक्रामक श्रेष्ठ एवं शूरवीर क्षत्रिय ॥ धन-धान्य से समृद्ध सुन्दर रचना रच कर स्वर्ण कण से युक्त होकर वैश्यगण अपनी जातीय आचार में दृढ़तापूर्वक स्थित हरिजन उस समय सुशोभित हो रहे थे ॥ 

अजोधा नगरई नाथ, कहत आहिं रे आहिं । 
भए संजुग सबहिं लोग, चरत कहत गहु पाहिं ॥ 
पधार गए ,पधार गए, अयोध्या नगरी में प्रभु पधार गए ऐसा कहते हुवे सब लोग एकजुट हो गए और कहते चले चलो चरण पड़ें ॥ 

सोमवार, १६ दिसंबर, २ ० १ ३                                                                                    

 सिया राम के तरत नभौकस । अस कर लघु बर पौर पुरौकस ॥ 
नयनन गह हिमबल जल हारे ।  प्रभु सन संगिनि चरन पखारे ॥ 
 प्रभु श्रीराम एवं सीता के पुष्पक विमान से उतरते ही इस प्रकार छोटे, बड़े, वृद्ध, व्यस्क सहित अयोध्या नगरी के सभी नागरिक नयनों में मोतियों के हार ग्रहण किये  प्रभु संग उनकी संगिनी के चरण धोने लगे ॥ 

देत बधावनु गाढ़इँ गाढ़े । पुर बासि उर आनंद बाढ़े ॥ 
त्रै लोक के देवन्ह घेरे । मनियारिहि सुख रचना केरे ॥ 
सभी ने उन्हें अयोध्या पधारने की गाढ़ी गाढ़ी बधाई दी । ( बधाई देते हुवे) पुरवासियों का ह्रदय का आनंद बढ़ता ही जाता ।  तीनों लोको के देवों से घिरे प्रभु के उन्होंने फिर बहुंत सी मनियारी एवं सुखकारी रचनाएं की ॥ 

अंतर द्वार प्रभु पद धारें । गावहिं कहि पधारेँ पधारेँ ॥ 
बिबिध बिधि जन कौतुक कारिं । भए प्रभो अंतर नगर दुआरि ॥ 
हे प्रभु ! अब आप अपने चरण द्वार के अंतर में धरें पुरवासी ऐसे गाकर कहते पधारें पधारें निज नगरी हे राम  पधारें कोसल पूरी पदम पद धारें, पधारें पधारें हे राम पधारें ॥ फिर वे भाँति भाँति की क्रीड़ाएँ करते गए । और प्रभु श्रीराम ने अयोध्या द्वारि के अंतर में प्रवेश किया ॥ 

छाइ किरन कर साँझ सुबरनी । दरसत प्रभु मुख छबि सुख करनी ॥ 
लागे प्रभु मुख लावन कैसे । पुष्कर नभ अलि बल्लभ जैसे ॥ 
किरणें विकरित कर सुवर्णी सांझ की छटा छाई हुई है । और वह प्रभु के मुख पर सुखकारी स्वरुप में प्रतिबिंबित हो रही है ॥ प्रभु के मुख की शोभा कैसी प्रतीत हो रही है, जैसे कि वह लाल कमल के सदृश्य भगवान विष्णु ही हों ॥ 

नयन पलक पट पालकी, जन जन भयउ कहार । 
तापर राम सिया सहित, चरत चौंक चौबार ॥ 
नयनों के पलकों का पट पालकी बना है सारी प्रजा कहार बनी हुई है। उसपर भगवान श्रीराम माता सीता सहित विराज कर चौंक चौहट्टे से चले जा रहे हैं ॥ 

मंगलवार, १७  दिसंबर, २ ० १ ३                                                                               

तेहि काल प्रभु आप सहाई । रहे घिरे पुर परिजन ताईं ॥ 
धू कल कंठ कूनिका वादे । पनवानक अरु भेरि निनादे ॥ 
उस समय प्रभु अपने सहायकों,पुरवासियों एवं पैजानों से घिरे थे । मधुर ध्वनी करते हुवे वीणाएँ बज रहीं थी पणव अर्थात नगाड़े एवं  भेरियां निनाद कर रहे थे॥ 

बाजहिं बाजे बिबिध बिधाने । सुर गाँव प्रभु करत आगाने ॥ 

सूत मगध अरु बंदी जन । अस्तुति कारत रागिन रंजन ॥ 
और भी विभिन्न प्रकार के वाद्य-यन्त्र मुखरित थे । सप्तस्वर प्रभु का आख्यान कर रहे थे ॥ सूत ,मागध एवं वंदीजन उनकी रागनियों में अनुरक्त होकर प्रभु की स्तुति कर रहे थे ॥ 

 नागर कहत करत अभिनन्दन । जय जय जय जय रबि कुल भूषन ॥ 
जयति जयदेव दसरथ नंदन । जगन्नाथ हे जगतीबंदन ॥ 
नागरिकजन हे जगन्नाथ हे जगत वन्दनीय  आपकी जय हो! हे सूर्य -कुलभूषण दशरथ नंदन हे देव ! आपकी जय हो यह कहते उनका अभिनन्दन कर रहे थे ॥ 

भयउ नन्द पुरजन एहि भाँती । परे कन प्रभो के ही बाती ॥ 

जस जस भगवन आगिन बाढ़े । तिनके दरसन जन अवली ठाढ़ें ॥ 
इस प्रकार उस आनन्दोत्सव  में हर्षित हो उठे ( चारों ओर )  कानों में प्रभु श्रीराम की ही व्याख्यान सुनाई दे रहा
था। भगवान जैस जैसे आगे बढ़ते, जनसमुदाय उनके दर्शन प्राप्त करने हेतु पंक्तियों में खड़े रहते ॥ 

कछु तिय लोकत टेक लिए, सन गृहनयन अलिंद । 
मनोहारईं निहारइँ, लइ मधु मुखारविंद ॥   
कुछ स्त्रियां भवन के झरोखों से लगे छज्जों पर टेक लगाए प्रभु की मनोहरता को निहारते उअनके कमल मुख के दर्शन का माधुर्य प्राप्त कर रहीं थीं ॥ 

बुधवार, १७ दिसंबर, २ ० १ ३                                                                                 

बपुरमन लवन ललिताई लखि । कहत मनोहर रे स्याम सखि ॥ 
लवनिमन नयन अरुनाई लखि । बरखत रस करुन अविराम सखि ॥ 
पुष्ट देह वाले प्रभु की शोभा एवं सुंदरता को देखकर उन सखियों ने कहा यह श्याम छवि मन को हरने वाली है ॥ 
लावण्ययुक्त लोचन की अरुणाई के दर्शन कर कहा इससे तो निरंतर करुणा का रस वर्ष रहा है ॥ 

रद पट छादन ललनाई लखि । कहत अलि बल्लभ पतश्राम सखि ॥ 
नीलिमन बदन लवनाई लखि । लाहत प्रभु छटा अभिराम सखि ॥ 
जब होठों की लालिमा दर्श कर कहा  यह लाल कमल की पत्तियों का ही मंडप हो ॥ निलिमायुक्त मुखाकृति के दर्शन कर कहा मुख कांति की यह झलक बड़ी ही मन मोहक लग रही है ॥ 

सिरु मुकुट जटा बनताई लखि । मुख मंदिरो मूरति राम सखि ॥ 
धवल कर्पूरि बरनाई लखि । कहत सुसोभित सिया बाम सखि ॥ 
शीर्षोपर जटा मुकुट की रचना से मानो मुख शीश क मंदिर हो गया है और उसमें प्रभु श्रीराम की मूरत रखी हो ॥ जब उज्जवल, कर्पूरी वर्ण वाली के दर्शन कर कहा बाइन ओर उनकी संगिनी माता सीता सुशोभित हो रही हैं ॥ 

अलकावलि पल झुकियाई लखि । कहि करत पिया बिश्राम सखि ॥ 
बसन भूसना भरनाई लखि । कहत पूरनित मनोकाम सखि ॥ 
पलकों की अवनत अलकावली को देखकर कहा रे सखि यहाँ उनके प्रियतम विश्राम कर रहें हैं ॥ वस्त्र आभूषण के सुसज्जा को देखकर कहा हे सखि यह प्रभु तो पूर्णकामी हैं ॥ 

जन जन पद नत परनाई लखि । कहि सत्य प्रभु के एक नाम सखि ॥ 
रागिन रंजन लयनाई लखि । करत सों कीरत सुर ग्राम सखि ॥ 
प्रजाजन को उनके चरणों में नतमस्तक होते देखकर कहा प्रभू का नाम ही सत्य है शेष सम्पूर्ण जगत असत्य है ॥ रागिनों एवं वाद्ययंत्रों को परस्पर निमग्नता होते देखकर कहा रे सखि ये सप्तस्वर की संगती में प्रभु का कीर्तन कर रहे हैं ॥ 

जोइ दृग जानकी जानि, नीलाम्बुज के समान । 
सोइ दरस रस पानि, बन कन्या भइ धन्य सखि ॥ 
जिन्होंने अपने आँखों से जानकी पति प्रभु श्रीराम के नीले अम्बुज के सरिस मुख के दर्शन का मकरंद पान किया सखी वे वन कन्याएं धन्य हो गईं ॥ 

प्रभु पग कर अनुराग, पावत अभ्युदय महान । 
तेहि आपन सुभाग, को सन जाए न बरनि सखि ॥   
क्योंकि उनहोंने प्रभु के पद्म चरण मन अनुराग करके अपने सौभग्य से  जिस प्रकार अपना उद्धरण किया हे सखी !वह वर्णनातीत है ॥ 

गुरूवार, १९ दिसंबर, २ ० १ ३                                                                                             

सारस कंठी इत उत डोली । बट चौहट तट तनि तिय बोली ॥ 
दरसो री रबि कुल रघुनाथा । दरसो री तेजस मुख माथा ॥ 
कुछ स्त्रियाँ मार्ग के ऊपर कुछ चौपथ के तट पर सारस के सादृश्य कंठ लिए इधर-उधर हिंडोल ले रही थी । और कह रही थीं : -- अरी सूर्य-कुल के दीपक रघुनाथ के तेजस्वी मुख के दर्शन कर लो ॥ 

पदमिनि पत परमा लजनाईं । सोहित अस लोचन ललिताई ॥ 
जोइ दरसइँ निज धन्य मानै । देवनहू जो दरस न दानै ॥ 
जो पद्मिनि के पत्रों कि सुंदरता को लज्जित कर दें उनके लोचनों का सौन्दर्य ऐसे शोभित हो रहा है । जो इनके दर्शन काले वह सौभाग्यशाली है । क्योंकि प्रभु अपने ऐसे दर्शन देवताओं को भी नहीं देते ॥ 

सो परभू अज हमरे सोहीं । हे री हम बड़ भागिन होंही ॥ 
अधर कपोल फिरि बहुरि कैसे । पुहुप नउ पल्लब प्रफुरि जैसे ॥ 
वह प्रभु आज इस रूप में हमारे सम्मुख हैं । अरी हम बहुंत भाग्यवती हैं । उनके अधर को देखो कैसे कपोलों का भ्रमण कर वापस कैसे लौटते हैं जैसे कोई पुष्प के नव पल्लव प्रफुलित हो रहे हों ॥ 

ललामिन बंधूक अरुनाई । भयउ अति गहनत तिन्ह लजनाई ॥ 
केस किरीट कलित कल कुंडल । रोम करन सैम केसर कोमल ॥ 
इनकी लालिमा अत्यधिक गहरी होते हुवे तो बंधूक-पुष्प कि अरुण-प्रभा  को भी तिरस्कृत कर रहीं है ॥ मस्तक पर जटा मुकुट कुंडलित होकर सुरुचि पूर्वक विभूषित है और इसके रोम खरगोश क रोमावली कि भांति अतिशय कोमल हैं ॥ 

प्रभु दरसन जस छटा छन, जन जस घन गुँजनाइ । 
छन मैं जिनके ओट लिए, छन भर मैं प्रगसाइ ॥ 
प्रभु के दर्शन ऐसे हैं जैसे प्रजाजन के श्री राम की जयजयकार के गुंजार के मध्य अचिर-प्रभा हो । जो क्षण में उनके ओट हो जाती है,एवं क्षण भर में प्रगट हो जाती है ॥ 

शुक्र/शनि,२०/२१ दिसम्बर, २ ० १ ३                                                                                         

प्रभु रागिन कारन एहि भाँती । पुर रमनी कहत जेइ बाती ॥ 
बढ़े पेम जिनके प्रभु ताईं । तिन जन दरसन देवत जाईं ॥ 
इस प्रकार प्रभु अनुराग के कारण अवधपुर की रमणियाँ उपरोक्त वार्तालाप करती ( प्रभु के दर्शन से निहाल हो गईं ) ॥ तदनन्तर प्रभु के प्रति जिनका प्रेम बढ़ा हुवा था । उन पुरवासियों को अपने दर्शन देकर उन्हें संतुष्ट करते जाते ॥ 

दुहूँ हाथ मुद मोदक गाहे ।  एक लछिमन एक रघुबर आहे ॥ 
बहुरि पलकन पालकि धारे । जय हो जय कह चरे कहारे ॥ 
दोनों हाथों में मोदक ग्रहण किये  एक में लक्षमण एक में प्रभु श्रीराम को फिर पलकों की पालकी में धारण किये कहार स्वरुप पुरजन जय हो ! प्रभु की जय हो !! यह कहते चले ॥  

प्रभु रखबारे पालनहारे । मातृ भवन पुनि गवन विचारे ॥ 
पहिलै निज जननी कैकइ के । भवन गवन पद परने लइके ॥ 
जगत के रखवाले एवं उसका पालन पोषण करने वाले प्रभु श्रीराम ने माता के भवनों में जाने का विचार किया ॥ सर्प्रथम वे अपनी माता कैकेयी के घर में गए । भवन जाकर सीता सहित सभी संतानों ने उनके चरणों की वंदना की ॥ 

कहत हे राम मात लजानी । लोचन लवन भर लाइ पानी ॥ 
चिंतन गहने बारहि बारे । दै बहु असीस कर सिरु धारे ॥ 
तब माता कैकेई हे राम ! कह कर लज्जित हो उठी और अपने सुन्दर दृगों में अश्रु भर लाईं ॥ और संततियों की वारंवार चिंता करते हुवे उनके सिर पर हाथ रखे उन्हें बहुत ही आशीष प्रदान किया ॥ 

रबिकुल ध्वजा प्रहरनहारे  । प्रभु मात जब लाजत निहारे ॥ 
कह बहु बिनइत जोगित बचना । बोधत किए उर सुखचर रचना ॥ 
सूर्य-वंश का पताका प्रहरण करने वाले श्रीराम ने जब माता को लज्जित होते देखा । तब बहुंत से विनययुक्त वचन कहते हुवे उन्हें सांत्वना देते हुवे ह्रदय में शांति की रचना की ॥ 

नयनन घन रस कंठ कर रुखित । कहि रे बच्छर तुम निह कलुखित ॥ 
तब माता ने नयनों में शरू भरकर तथा कंठ शुष्क कर कहा हे वत्स ! तुम निष्कलंक हो अर्थात कलंकिनी तो मैं हूँ ॥ 

औरु कही अजहूँ सेष, जननी भवन दुआरु । 
तुम दुहु भ्रात अचिरम गत , तिनके चरन जुहारु ॥  
और बोली अब तुम दोनों भाई यथाशीघ्र शेष सभी माताओं के भवन द्वार पर जाओ और उनके चरणों में प्रणाम अर्पित करो ॥ 

आदर अतिसय ह्रदय समेटे । दुहु भ्रात मात सुमित्रा भेंटे ॥ 
प्रभु नत जब किए चरन प्रनावा । जननी बहुसहि असीस दावा ॥ 
फिर ह्रदय में अत्यधिक सम्मान संकलित किये दोनों भ्राता ने माता सुमित्रा से भेंट की । प्रभु ने जब  को प्रणाम किया तब माता ने उन्हें बहुंत सा आशीर्वाद दिया ॥ 

कहि प्रभो तुम धन्य हो माई । जो लछमन सरि रतनन जाई ॥ 
एहि लोक मैं हे रतन गरभा । भय तुहारी अलोकिक परभा ॥ 
प्रभु बोले हे माता तुम धन्य हो । जो तुमने लक्ष्मण के जैसे रत्न को जन्म दिया ॥ हे रत्नगर्भा ! इस लोक में तुम्हारी प्रभा आलोकमयी है ॥ 

जेहि भाँति एहि सूरिन भाई । किए सुश्रुता मम दुःख निबराईं ॥ 
ऐसो कारज कोउ ना कियो । जब खल रावन सिया हर लियो ॥ 
जिस प्रकार इस प्रबुद्ध भ्राता ने ( वैन में ) मेरे दुखों को हरते हुवे मेरी सेवा सुश्रुता की । इस प्रकार का कार्य तो किसी से भी न हुवा । जब दुष्ट रावण ने सीता का हरण कर लिया था : --

तासु पर मैं पुनि तिन्ह पायो । लछमन के कर करम सहायो ॥ 
अस कँह प्रभु कौसल्या धूरे । सुमित्रा चरन प्रनमत बहूरे ॥ 
उसके पश्चात मैने उसे लक्ष्मण के हाथो किये गए कार्यों के कारण ही उसे प्राप्त किया ॥ इस प्रकार प्रभु माता सुमित्रा के चरणों में प्रणाम अर्पित कर माता कौशल्या के पास गए ॥ 

दरसत निज जनि दरस उछाहू । अम्बु अम्बर प्रलंबित बाहू ॥ 
पैठ निकट बन कण्ठन हारे । पुनि नत तिनके प्रभु पग धारे ॥ 
अपने दर्शन हेतु माता को बारिज नयन प्रलंबित बाहु स्वरुप में उत्कंठित देखकर प्रभु निकट पहुंचे और उनके गले का हार बन गए फिर उनहोंने झुककर माता के चरणों को पकड़ लिया ॥ 

कौसल्या भई बिहबल, दर्सत छबिमुख ठोट । 
बारहि बार प्रभु कंठ लहि, किए अचरा के ओट ॥ 
पुत्र का मुख देखकर माता कौसल्या विह्वल हो उठी आँचल का ओट किये वे वारंवार उसे कंठ से लगाती ॥ 

मंगलवार, २४ दिसंबर, २ ० १ ३                                                                                     

देखत देखत भई अधीरा । मुदित उदित भए अलक सरीरा ॥ 
मम बछ कह भइ गदगद बानी । धुरे चरण सन लोचन पानी ॥ 
देखते ही देखते माता अधीर हो गईं । हर्ष के कारण उअनके शारीर के रोम रोम उदीयमान हो उठा ॥ मेरे वत्स कह कर उनकी वाणी गदगद हो उठी । नेत्रों से अश्रु प्रवाहित होकर उनके चरणों को भिगोने लगे ॥ 

देख जननी के मोह माया । बिरहन कारन भइ कृष काया ॥ 
भयो नन्द जनि पेखत मोही । अस कहतै प्रभु सन मह रोहीं ॥ 
जननी कि मोह-ममता और विरह के कारण उनकी दुर्बल काया को देखकर । देखो मुझे देखते ही जननी को कैसा हर्ष हुवा है ऐसा कहते ही प्रभु श्रीराम भी उनके संग रुआंसे हो गए ॥ 

किए तुहरे चरन सेउकाई । बहुस दिवस भए हे मम जाई । 
हे जननी मैं बहुस अभागा । रहेउँ दुरान तुहरे रागा ॥ 
हे मेरी जन्मदात्री तुम्हारे चरणों की सेवा किए मुझे बहुंत दिन हो गए । हे माता ! मैं तो बड़ा ही भाग्यहीन हूँ जो तुम्हारे अनुराग से मैं दूर ही रहा ॥ 

एहि मम दूषन कौ छम दाहीं । पालक सेवक जो पुत नाहीं ॥ 
अरु तिन्हन दिए पीर बिजोगे । सोइ नाहि पुत पद के जोगे ।। 
तुम मेरे इस दोष को क्षमा कर दो । जो पुत्र पालक की सेवा नहीं करते । और उन्हें विरह की पीड़ा देते हैं वे पुत्र पद के योग्य नहीं होते ॥ 

रबिकुल रघुबर अस कहत, अरु जल जात बहात । 
आयउँ मैं अब सिय सहित, चरन सरन तव मात ॥ 
ऐसा कहते सूर्य-कुल तिलक रघुपति श्रीराम के कमल जैसे नयन बहने लगे, कि हे माता अब मैं सीता सहित तुम्हारे चरणों की शरण में आया हूँ ॥ 

बुधवार, २५ दिसंबर, २ ० १ ३                                                                                         

श्रुत श्री राम चंदु के बाता । चरनन गहि कौसल्या माता ॥ 
बिधु बदन बधु सिय उर लाईं । देवत असीस अस बदनाई ॥ 
श्री राम चन्द्र जी के वचन श्रवण कर कौसल्या माता ने चरणों को ग्रहण की अपनी चन्द्रवदनी यामिनी  श्रीसीता को फिर ह्रदय से लगा लगाकर आशीर्वाद देते हुवे कहा  : -- 

अध अंगिनी राम हे रमनी । रहहु सदा बन तासु संगिनी ॥ 
निर्मल चरिता पबित सुभाऊ । दुध अन्हाऊ जात जनाऊ ॥ 
राम की अर्धांगिनी हे सुन्दरी सीते ! तुम चिरकाल तक अपने पति की जीवन-संगिनी बनी रहो ॥ हे निर्मल चरिता हे पवित्र -धर्मी ! 'दूधो नहाओ -पूतो फलो' ॥ 

 सह धर्म चरनी हे मम धिया । तीन लोकु मह तुम सोंह प्रिया ॥ 
होत न कहुँ दुःख भागिनी कोई । जह सर्वथा जथारथ होई ॥ 
पति धर्म का पालन करने वाली मेरी बिटिया, तुम्हारे जैसी पतिव्रता स्त्रियाँ तीनों लोकों में कहीं कोई दुःख की भागिनी नहीं होती । यह सर्वथा सत्य वचन है ॥ 

तुम्ह जो हे बिदेह कुमारी । निज पत चरन अनुसरन कारी ॥ 
भए तव कर कुल के उद्धारे । अस कह जनि मुख मौन पधारे ॥ 
वैदेह कुमारी ! तुमने जो अपने पति के चरणों का अनुशरण किया है ।। इससे तुम्हारे हाथों से इस कुल का उद्धरण हो गया । ऐसा कह कर माता कौसल्या के मुख पर मौन विराजित हो गया ॥ 

बहुरि हर्ष स्वन कारन, पुलकित भए सब अंग । 
अस प्रभु सिया मातृ-मिलन भए पूरनित सुप्रसंग ॥ 
हर्ष ध्वनी के कारण उनके पुन: उनके सर्वांग पुलकित हो उठे ॥ इस प्रकार प्रभु श्रीरामचंद्र एवं माता सीता के मातृ-मिलन का यह सुन्दर प्रसंग पूर्ण हुवा ॥ 




























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